“क्योंकि वो काजल थी। एक माँ, एक पत्नी — और सबसे पहले एक इंसान। आपके जैसे दरिंदे से बहुत अलग, जिसके लिए रिश्ते भी सौदे होते हैं।”
दिग्विजय की आँखों में अब धुंध थी। सच्चाई का बोझ उसकी आत्मा को कुचल रहा था…शायद पहली बार, उसने जाना कि किसे खो दिया है उसने और क्यों।
सुहानी धीरे से मुस्कराई, मगर उस मुस्कान में कटाक्ष की धार थी। उसकी आँखें अब भी दिग्विजय को टटोल रही थीं — शायद देखना चाहती थीं कि उसमें इंसानियत बची भी है या नहीं।
“कितना अद्भुत होता है न... निःस्वार्थ होना?” उसकी आवाज़ में एक करुणा व्यंग्य छिपा था।
“मेरी माँ ने वही किया — जो तुम्हारी सोच के परे है।”
“हालाँकि… रणवीर नहीं माना।” सुहानी अब सच को नये रंगों में उकेर रही थी।
“तुम लोगों के अन्याय ने उसके अंदर का जानवर जगा दिया था… जिसने उसका सब कुछ छीन लिया — उसका प्यार, उसका आत्मसम्मान, उसका भविष्य। उसके लिए अब रिश्तों में कुछ बचा ही कहाँ था। वो मंदिरा को, और तुम्हारे बेटे ऋत्विक को मार देना चाहता था।”
दिग्विजय की आँखें सिहर उठीं — शायद पहली बार उस खतरे की कल्पना से, जिससे वो अनजान रहा।
“लेकिन… मेरी माँ — काजल — उस दिन एक बार फिर किसी की ढाल बनीं…उन्होंने रणवीर को रोकना चाहा। किसी तरह उसकी आँखों में मानवता की आखिरी चिंगारी को पकड़ने की कोशिश की… मगर वो नहीं माना। फिर उन्होंने खुद ही उन्हें उस आग से बाहर निकाला।”
एक लंबा सन्नाटा कमरे में भर गया। सुहानी अब धीमे कदमों से कमरे में टहल रही थी, जैसे पुरानी यादों के बीच चल रही हो।
“वो मंदिरा और ऋत्विक को अपने साथ चंडीगढ़ ले आयीं। क्योंकि मंदिरा नहीं चाहती थी, कि उसका बच्चा तुम्हारी सड़ी हुई परछाई में पले। वो आज़ादी चाहती थी — अपने लिए, और अपने बेटे के लिए। एक नयी ज़िंदगी, जहाँ तुम्हारा नाम भी उनके ज़ेहन से मिट जाए।”
दिग्विजय अब किसी बेजान मूर्ति की तरह खड़ा था। लेकिन सुहानी का चेहरा अब गंभीर हो गया था — जैसे कोई तूफ़ान उसके भीतर उमड़ रहा हो।
फिर वो अचानक पलटी, उसकी आँखें दिग्विजय की आँखों से टकराईं — “फिर एक दिन… एक ऐसा दिन आया… जब रणवीर ने अपनी सीमाएं फिर लांघ दीं। वो किसी भी तरह उन्हें फिर से परेशान करने लगा।”
दिग्विजय की आँखें एक पल को चमकीं, लेकिन फिर संशय से सिकुड़ गईं।
“और यहीं से कहानी में आता है एक मोड़ — एक ऐसा ट्विस्ट…जिसने सब कुछ उलट कर रख दिया था।” फिर सुहानी ने कहानी की दिशा को थोड़ा सा भ्रमित करने का सोचा। क्योंकि ये उसके भाई विशाल का सवाल भी था। वो नहीं चाहती थी, कि उसके भाई पर कोई भी आंच आये।
वो आगे झुककर फुसफुसाई, “अब जो मैं बताने जा रही हूँ, वो तुम्हारे रोंगटे खड़े कर देगा, दिग्विजय राठौर…क्योंकि असली शिकारी कौन था —वो अब सामने आने वाला है।”
वो दिग्विजय के सामने खड़ी थी, जैसे एक आईना — जिसमें उसका अतीत, उसका पाप, और उसका अधूरा पश्चाताप झलक रहा था।
“…तो एक दिन,” सुहानी ने रुक-रुक कर बोलना शुरू किया, “मंदिरा परेशान हो जाती हैं। रणवीर की बढ़ते पागलपन से, उसका बार-बार उनके पीछे लगना…मानों उनका जीना मुश्किल हो गया था।”
दिग्विजय अब भी खड़ा था, लेकिन उसकी आँखों में हलचल शुरू हो चुकी थी।
“वो जानती थीं कि रणवीर को रोकने वाला कोई और नहीं है — सिर्फ़ एक ही शख्स है जो उसे शायद रोक सकता है… आप— रणवीर राठौर के बड़े भाई। तो उन्होंने फैसला किया… कि वो आपको सब बता देंगी — रणवीर की हरकतें, उसकी धमकियाँ… और आप से अपने बेटे के लिए सुरक्षा माँगेंगी।”
अब दिग्विजय की साँसें अस्थिर हो रही थीं।
सुहानी ने एक पल को अपनी आँखें बंद कीं, और फिर धीरे से बोली, “वो उस दिन अपने बेटे के साथ आ रही थीं… उसी गाड़ी में — ग्रीन कलर की एम्बेसडर।”
यह कहते-कहते वो झुकी, और ये आखिरी पंक्ति उसने दिग्विजय के कान में फुसफुसा दी।
बस इतना सुनना था…
धड़ाम!
दिग्विजय की टांगें जवाब दे गईं, और वो कुर्सी पर गिर पड़ा — जैसे किसी ने उसके सीने में छुरा घोंप दिया हो, उसकी आँखें चौड़ी हो चुकी थीं, चेहरे पर भय, अफ़सोस और पश्चाताप — सब एक साथ उमड़ आए थे। उसकी साँसें जैसे गले में अटक रही थीं। और अगले ही पल — उसकी आँखों से आँसू बहने लगे, लगातार…तेज़, गर्म और बोझिल।
“नहीं… नहीं… ऐसा नहीं हो सकता…” वो फुसफुसाया, “वो… वो गाड़ी… वही गाड़ी थी… जिसमें… जिसमें…”
उसकी आवाज़ कांप रही थी। उसे अब उस हादसे की एक-एक तस्वीर याद आ रही थी — वही सड़क, वही मोड़… वही धुंध, और वही धमाका।
दिग्विजय अब भी कुर्सी पर बैठा काँप रहा था, उसकी आँखों में अफ़सोस और उलझन की धुंध गहराती जा रही थी। तभी सुहानी ने एक धीमा कदम आगे बढ़ाया — उसकी चाल में अब शिकारी की सधी हुई मद्धम रफ्तार थी।
वो उसके पास झुकी, उसके चेहरे के पास आकर लगभग फुसफुसाती है — “वही ग्रीन एम्बेसडर…”
एक पल ठहरती है, और फिर धीमे से कहती है, “…जिसे तुमने बम से उड़ा दिया था।”
एकदम जैसे किसी ने बर्फ़ की बाल्टी उसके ऊपर उड़ेल दी हो। दिग्विजय की पुतलियाँ फैल गईं, उसका चेहरा पीला पड़ गया। उसके होठ काँपने लगे, जैसे ज़ुबान कुछ बोलना चाह रही हो — लेकिन आवाज़ फँस गई थी।
“नहीं…” उसकी साँस उखड़ती है, “नहीं… मुझे बताया गया था… उस गाड़ी में… तुम्हारी…”
“मेरी माँ, काजल थीं?” सुहानी ने उसकी बात पूरी कर दी — लेकिन उसके लहजे में न कोई झिझक थी, न कोई दर्द — बस ठोस और ठंडा सच।
“हाँ, आप से झूठ कहा गया था।” उसने एक कदम पीछे हटते हुए अपनी बात पूरी की।
“और ये बात आप को बताई किसने थी?” सुहानी ने पूछा।
दिग्विजय ने जवाब दिया — बेहद धीमे स्वर में, “…रणवीर ने…”
सुहानी की आँखें एक पल के लिए सिकुड़ गईं — जैसे उसने उसी क्षण अपने मन की एक और परत पर मोहर लगा दी हो।
“तो आप ने बिना सच्चाई जाने… बिना सबूत देखे… उस गाड़ी को उड़ा दिया?”
अब उसके लहजे में थरथराता लहू था।
“क्यों? क्योंकि रणवीर ने कहा कि उस में काजल थी और आप ने मान लिया? आप ने मान लिया, कि चाहे वो अपने पहले प्यार से कितनी भी नफरत करता हो, वो उसे मौत के घाट उतारना चाहेगा?”
दिग्विजय कुछ नहीं बोला। वो अब ज़मीन में गड़ा जा रहा था — जैसे शर्म, पछतावे और गुनाहों का बोझ उसकी रीढ़ तोड़ रहा हो।
“तो सुनिए दिग्विजय राठौर,” सुहानी की आवाज़ अब फिर सख्त हो गई थी, “उस दिन उस गाड़ी में मेरी माँ नहीं थी… बल्कि आपकी प्रेमिका मंदिरा और आप का बेटा ऋत्विक थे।”
ये कहते हुए उसकी आँखों में आँसू नहीं थे, लेकिन दिग्विजय की आँखों में अब आँसू की धार थी — गुनाह की, पछतावे की, और उस प्यार की जिसे उसने अपने ही हाथों खत्म कर दिया था…एक झूठ पर यकीन करके।
“रणवीर ने”
सुहानी ने अब पूरी सख्ती से, ठोस लहजे में कहा, “हाँ…रणवीर ने आपसे झूठ कहा और आपने… आँखें बंद करके उसका हर झूठ सच मान लिया।”
वो एक पल को रुकी, फिर अपनी बात में वो आख़िरी वार जोड़ दिया, “फिर… अपनी ही प्रेमिका और अपने ही बच्चे को उस धमाके में उड़ा दिया।”
ये शब्द जैसे किसी भारी हथौड़े की तरह दिग्विजय की आत्मा पर गिरे, उसका सिर झुक गया, उसके होंठ काँप उठे। और फिर, टूटे हुए विश्वास की चीख़ बनकर उसके मुँह से निकला — “नहीं… नहीं… नहीं… नहीं…”
वो बार-बार बुदबुदाने लगा, जैसे अपनी ही ज़ुबान से निकले सच को वापस निगल लेना चाहता हो।
“हाँ!” सुहानी अब और तेज़ बोली, “हाँ, आपने ही मारा है उन्हें! मंदिरा और ऋत्विक — दोनों को! आपने अपने ही हाथों से उनकी जान ली है, दिग्विजय राठौर।”
उसकी आँखों में अब आँसू नहीं, सिर्फ़ आग थी।
“मंदिरा ने सही कहा था…आपकी परछाई भी उनके लिए ज़हर थी। वो आपको एक मौका देने आई थीं, एक उम्मीद लेकर… कि शायद आप उन्हें और अपने बेटे को बचा सकें। लेकिन देखिए न…”
वो झुकी, दिग्विजय की आँखों में देखती रही, “आप ही के हाथों ने उनकी साँसें छीन लीं। आपने जो सोचा था कि आप उन्हें बचा लेंगे — दरअसल आपने ही अपनी पीठ पर खंजर घोंप लिया।
अब कमरे में सन्नाटा गूंज रहा था — बस दिग्विजय के अंदरूनी टूटन की आवाज़ थी, और सुहानी के लहजे में बसी कटु सच्चाई।
“मैंने ये क्या कर दिया…”
दिग्विजय राठौर फर्श पर घुटनों के बल बैठ गया। उसकी आँखें शून्य में ताक रहीं थीं, पर वहाँ कुछ नहीं था—बस धुंध, पछतावे और एक कड़वी हकीकत की सच्चाई। उसके हाथ खुद-ब-खुद सिर पर चले गए। उंगलियाँ बालों में उलझ गईं, जैसे ज़िंदगी के बिखरे धागों को समेटने की नाकाम कोशिश कर रही हों।
“मेरे हाथों से ये क्या हो गया…?”
उसकी आवाज़ अब थरथरा रही थी, जैसे किसी टूटे हुए सितारे की आखिरी झनकार। आँसू, जो इतने सालों तक उसके अभिमान और क्रूरता के कवच से बाहर नहीं निकले थे, आज बाँध तोड़ कर बहने लगे थे। हर बूँद जैसे उसके पापों की गवाही दे रही थी। उसका सीना हिचकियों से काँप रहा था। पूरा महल, खड़ी की गईं इतनी सारी प्रॉपर्टी और शानों शौकत, जो उसने अपने गर्व और ताक़त के पत्थरों से खड़ा किया था, उस पल में मानो उसके चारों तरफ ढह रहा था।
“मंदिरा... मेरा प्यार… मेरा खून… मेरा बेटा…”
उसने ज़मीन में मुँह छुपा लिया, जैसे धरती माँ से माफ़ी मांग रहा हो, जैसे खुद को मिट्टी में मिला देना चाहता हो। सुहानी एक कोने में खड़ी थी, उसकी आँखों में नफ़रत नहीं थी — बस एक कठोर सच्चाई की पुष्टि। वो देख रही थी उस इंसान को, जिसे हमेशा से उसने एक राक्षस समझा था…अब एक टूटा हुआ इंसान बना पड़ा था उसके सामने, पछतावे की आग में झुलसता हुआ।
“मुझे रणवीर ने जो बताया… मैंने बिना सोचे समझे मान लिया, मैंने सवाल तक नहीं किया… मैंने आँखें बंद करके... बस विश्वास कर लिया…”
दिग्विजय फुसफुसा रहा था, जैसे अब खुद को भी सुनाने की ताक़त नहीं बची हो। उसने ज़मीन पर मुक्के मारे, जैसे अपनी गलती को वापस लेना चाहता हो, जैसे समय को पलट देना चाहता हो। मगर समय न कभी पलटता है… न रुकता है… बस आगे बढ़ता रहता है — और आज, दिग्विजय राठौर का अतीत, उसकी रगों में ज़हर बन कर दौड़ रहा था।
उसकी सिसकियाँ अब ऑफिस में गूंजने लगी थीं। हर सिसकी के साथ एक बीता पल टूट कर बिखर रहा था।
सुहानी ने एक कदम आगे बढ़ाया, उसकी तरफ देखा — “अब समझ आया, क्यों तुम जैसे लोगों के साथ ऐसा होता है?”
दिग्विजय अब कुछ कहने की हालत में नहीं था। उसकी आत्मा उस क्षण में जैसे खुद पर मुकदमा चला रही थी और हर फैसला उसके खिलाफ था। उसका चेहरा अब ज़मीन पर टिका हुआ था, और आँखें लाल, सूजी हुई थीं — मगर अब उसमें कोई गुस्सा नहीं बचा था।
सिर्फ अपराधबोध… और एक टूटे हुए दिल की चीख, जो बाहर तो नहीं, मगर अंदर बहुत तेज़ सुनाई दे रही थी। सुहानी अपनी कुर्सी पर धीरे से जाकर बैठ गई। उसका चेहरा शांत था, हाव-भाव संतुलित। जैसे कुछ पल पहले ही इस कमरे में कुछ हुआ ही नहीं था। उसने अपने सामने रखी मेज़ पर पड़ी फाइल को उठाया, सधे हुए हाथों से खोला, और उसमें एक के बाद एक पन्ने पलटने लगी।
उसके चेहरे पर एक पेशेवर गंभीरता थी— जैसे वह किसी कॉर्पोरेट मीटिंग में हो, न कि किसी परिवार के काले रहस्यों की अदालत में। दिग्विजय की सिसकियाँ अभी भी कमरे में गूंज रही थीं, मगर सुहानी का ध्यान उस पर नहीं था। या शायद था… मगर अब उसकी तरफ ध्यान देने की ज़रूरत नहीं थी।
कुछ पलों की खामोशी के बाद, उसने पेन उठाया, दस्तावेज़ पर कुछ लिखते हुए बिना उसकी तरफ देखे कहा—
“अगर आपका इमोशनल ड्रामा पूरा हो गया हो, तो आप अब जा सकते हैं।”
उसका लहजा नर्म नहीं था— वो ठंडा था, सीधा, और भीतर तक चुभने वाला था।
“वैसे भी… आपने आज मेरा काफी कीमती वक़्त बर्बाद कर दिया है। और माफ़ कीजिएगा, मेरे पास और भी ज़रूरी काम हैं—जो आपके गुनाहों का हिसाब रखने से कहीं ज़्यादा मायने रखते हैं।”
उसने एक नज़र फाइल पर डाली, और फिर पन्ना पलटा।
“इसलिए… दरवाज़ा वहीं है।” उसकी आवाज़ अब पूरी तरह से निष्पक्ष थी— जैसे कोई जज अपना फैसला सुना कर अगली फाइल आगे बढ़ा चुका हो।
दिग्विजय ने उसकी तरफ देखा… वो वही लड़की थी, जिसे उसने कभी सिर्फ एक कमज़ोर मोहरे की तरह देखा था। मगर आज, उस मोहरे ने उसे शतरंज की पूरी बाज़ी में मात दे दी थी— और अब वो अकेला खड़ा था…हार की सबसे भयानक शक्ल में।
आगे की कहानी जानने के लिए पढ़ते रहिये, रिश्तों का क़र्ज़।
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