दिग्विजय राठौर कुछ पल के लिए सुहानी को देखता रहा— आँखों में पछतावे का समंदर था, मगर अब वो शब्दों से परे जा चुका था। ना कोई सफाई बची थी, ना कोई दलील। वहां बस एक टूटा हुआ इंसान खड़ा था, जो अपनी ही गलियों में भटक गया था। उसने नज़रें झुका लीं। फिर धीमे-धीमे, थके हुए क़दमों से वह मुड़ा, और केबिन से बाहर चला गया। दरवाज़े की “क्लिक” ने जैसे उस पल को अंतिम मुहर लगा दी।

कमरे में अब सन्नाटा था। एक ऐसा सन्नाटा जो चीखने जैसा महसूस हो रहा था। सुहानी ने अपनी आँखें धीरे से बंद की, मानो अंदर कुछ संभाल रही हो। फिर उसने अपना सिर उठाया और दरवाज़े की ओर देखा…जहाँ कुछ देर पहले एक शक्तिशाली पुरुष का पतन हुआ था। उसके चेहरे पर कोई मुस्कान नहीं थी, बस एक थकी हुई दृढ़ता थी।

उसने मेज़ पर रखे एक पुराने से मोबाइल की तरफ़ हाथ बढ़ाया— वही फ़ोन जो उसे आज शमशेर राठौर ने दिया था। जिसे अभी से उसे छिपाकर रखना था, एक गुप्त हथियार की तरह।

उसने स्क्रीन ऑन की, और कॉन्टैक्ट्स में से "Aarav" नाम पर टैप किया।

उंगलियाँ काँपी नहीं, आवाज़ भी नहीं डगमगाई।

“अब आरव को सब जानना चाहिए,” उसने मन ही मन सोचा।

कॉल की घंटियाँ बजने लगीं…और उस सन्नाटे में, अब किसी नए तूफ़ान की दस्तक सुनाई देने लगी। फोन की पहली घंटी में ही कॉल उठ गया। जैसे आरव उसी के कॉल का इंतज़ार कर रहा हो।

“कैसी रही मीटिंग, उनके साथ?” उसकी आवाज़ में एक अजीब सा ठहराव था, जैसे वो जानना तो चाहता हो, पर जान कर भी कुछ खो देना नहीं चाहता।

सुहानी ने उसकी आवाज़ सुनी, और एक पल के लिए चुप हो गई। उसे वो एहसास हुआ, जिसे शब्दों में बाँधना आसान नहीं होता— सुरक्षा का, अपनापन का, किसी के साथ होने का एहसास।

उसने हल्के से मुस्कुराते हुए कहा, “बहुत ही हैक्टिक। वो मंदिरा आंटी और अपने बेटे के बारे में पूछने आये थे।”

एक पल के लिए फोन पर खामोशी छा गई। फिर आरव की आवाज़ आई, जिसमें अब उत्सुकता थी— “तो तुम्हारा फेंका हुआ पासा सही जगह जाकर लगा?”

सुहानी ने गहरी सांस ली, वो पीछे कुर्सी से टिक गई, और धीरे से बोली— “हां… और इतना सही लगा, कि वो आदमी अपने ही बोझ तले दब गया। उनके आँसू थम नहीं रहे थे। उन्होंने मंदिरा आंटी को मारा था, और अब उन्हें लगता है…उन्होंने अपने ही बच्चे को भी मार डाला… अब उन्हें अपने इस गिल्ट में, डर और झूठ के साथ ही जीना होगा। और आज जब उनको सच्चाई दिखाई गई, तो जैसे उनकी पूरी दुनिया ही बिखर गई थीं।”

फोन के उस पार, आरव ने कुछ नहीं कहा। पर उसकी साँसें तेज़ हो गईं, सुहानी ने उसकी चुप्पी को समझा।

“अब वो कमजोर हो चुके हैं, आरव। अब हमें अपनी आखिरी चाल चलनी है—जो सिर्फ बदला नहीं, इंसाफ़ की चाल होगी।”

आरव ने गहरी आवाज़ में कहा, “और इस बार… मैं तुम्हारे साथ हूँ, पूरी तरह।”

सुहानी की आँखें हल्की सी नम हो गईं, पर आवाज़ में वही दृढ़ता थी— “मैं जानती हूँ। वैसे अभी के लिए तो, मैंने उन्हें सोचने के लिए कुछ दे दिया है। कुछ दिनों के लिए वो खुद भी उलझे रहेंगे… और रणवीर को भी उलझाए रखेंगे।”

वो कुर्सी पर पीछे टिक गई थी। उसकी उंगलियाँ अनजाने में टेबल पर रखी फाइल के कोनों से खेल रही थीं, मानो खुद को किसी काम में व्यस्त दिखा कर अपनी थकान से नज़रें चुरा रही हो। फोन के उस पार कुछ पल खामोशी छाई रही।

फिर आरव की नरम, लेकिन परेशान सी आवाज़ सुनाई दी— “सुहानी… तुम्हारी आवाज़ बहुत उदास लग रही है।”

एक पल ठहर कर उसने और धीमे स्वर में कहा, “मैंने कहा था ना जान… कि मैं आ जाता हूं।”

सुहानी की आँखें हल्की सी नम हो गईं। उसके अंदर कुछ टूटा नहीं, पर कुछ भारी सा ज़रूर महसूस हो रहा था।

“नहीं आरव, अभी नहीं। ये लड़ाई अब खत्म होने के करीब है। अगर तुम अभी आओगे, तो वो लोग सतर्क हो जाएंगे। हमने बहुत कुछ सहा है यहाँ तक पहुँचने के लिए… अब बस थोड़ा और।”

आरव ने गहरी साँस ली, जैसे उसकी मजबूरी भी उससे लिपट गई हो।

फिर हल्की सी मुस्कान के साथ कहा— “तुम बहुत स्ट्रॉन्ग हो, सुहानी। पर कभी-कभी स्ट्रॉन्ग लोग भी थक जाते हैं। और जब ऐसा हो, तो मेरा नाम पुकार लेना… मैं हाज़िर रहूंगा।”

सुहानी की आँखों से एक आँसू चुपचाप गाल पर बह गया। उसने उसे पोंछा नहीं— शायद वो उस एहसास को पल भर और जीना चाहती थी।

“बस इतना जान लो, आरव… मैं तुम्हारे बिना कुछ भी नहीं कर पाती। पर तुम्हारे लिए ही सब कर जाती हूं।”

सुहानी की आवाज़ में थकान साफ झलक रही थी, पर उसके लहजे में अब भी वही आत्मविश्वास था…जो उसने खुद को टूटने से बचाने के लिए ओढ़ रखा था।

“वैसे मुझे ये सब… अकेले ही करना था।”

फोन के उस पार अचानक खामोशी सी छा गई। जैसे आरव कुछ कहना चाहता हो, पर सुहानी की दृढ़ता के आगे रुक गया हो।

“और वैसे भी,” वो आगे बोली, “आप एक ज़रूरी काम से वहाँ गए हैं। उसे करने का भी अपना वक़्त है, और आपकी अपनी ज़िम्मेदारी। इस वक़्त मेरा भी यही कर्म है… ये खेल अकेले खेलना। हम सब अपने अपने स्तम्भ संभालेंगे, तभी हमारे इरादों की छत खड़ी रहेगी, ढहेगी नहीं।”

उसने एक गहरी सांस ली, और अपने माथे को हल्के से दबाया, मानो सिर के भीतर दौड़ते विचारों को कुछ देर के लिए रोकना चाहती हो।

“रही बात उदास होने की…तो जो बातें उन्होंने आज मुझे बताई हैं, उन्हें समझना… उन्हें महसूस करना… और उनसे खुद को अलग करना—इन सब में फर्क करना बहुत मुश्किल हो गया है।”

उसकी उंगलियाँ अब फोन की स्क्रीन पर बेवजह कुछ स्क्रॉल करने लगी थीं, जैसे दिल से कुछ भार हटाने की कोशिश हो रही हो।

“ख़ैर,” उसने गला साफ करते हुए बात बदली, “मैंने उनकी सारी बातें रिकॉर्ड कर ली हैं। अब हमारे पास सिर्फ जज़्बात नहीं, बल्कि पुख्ता सबूत भी हैं। एक-एक करके सब सच सामने लाएँगे।”

फोन के दूसरी ओर से आरव की गहरी सांस सुनाई दी। वो जानता था कि सुहानी ने बहुत कुछ अकेले झेला है, और शायद आज फिर से एक बार वो भीतर से टूटी है—पर उसने फिर भी किसी से कोई शिकायत नहीं की।

“तुमने… बहुत हिम्मत दिखाई है, सुहानी।”

आरव ने आखिरकार कहा, “और मैं वादा करता हूँ, इस लड़ाई का आखिरी पड़ाव हम साथ मिल कर पूरा करेंगे। वैसे क्या बताया उन्होंने तुम्हें?”

आरव की आवाज़ अब पहले से कुछ सख़्त और गंभीर हो गई थी। उसे साफ़ महसूस हो रहा था कि सुहानी जानबूझ कर कुछ छुपा रही है। उसकी चुप्पी में सिर्फ थकान नहीं थी, बल्कि कोई गहरा बोझ भी छुपा हुआ था।

“तुम तब से बात घुमा रही हो, सुहानी। क्यों? ताकि मैं परेशान न हो जाऊं? ताकि मैं बेचैन न हो जाऊं?”

सुहानी ने अपनी आँखें बंद कर लीं। आरव की चिंता, उसका लहजा, उसकी नज़ाकत—सब कुछ उसकी सांसों में उतरने लगा था। उसके गले में कुछ अटका-सा महसूस हुआ।

“आरव…” उसने गहरी सांस लेते हुए कहा, “प्लीज़… छोड़ो ना। अभी बात नहीं करना चाहती उस बारे में।”

“सुहानी… प्लीज़ ना,” आरव ने धीमे लेकिन मजबूती से कहा, “मैं जानता हूँ तुम क्या कर रही हो। तुम मुझे बचाने की कोशिश कर रही हो, लेकिन कभी कभी, किसी को बताना जरूरी होता है। कम से कम मुझे तो बताना चाहिए तुम्हें अब।”

आरव का स्वर अब भावनाओं से भर गया था। उसकी चिंता अब अधीरता में बदल रही थी। सुहानी ने एक पल के लिए आंखें खोलीं, दरवाज़े की ओर देखा, जहाँ से दिग्विजय अभी कुछ देर पहले ही गया था, और फिर बगल में रखी फाइलों की ओर देखा— उसकी शक्ल पर आज उसे कई दफ़न राज़ मिल गए थे।

“ठीक है,” उसने धीरे से कहा, मानो खुद को अंदर से समेट कर दोबारा बैठ गई हो।

“उन्होंने… मंदिरा आंटी के बारे में सच कबूला। कहा कि उन्होंने, उन्हें ग्रीन एम्बेसडर में आते देखा था… और उन्हें लगा कि उस गाड़ी में मेरी माँ, काजल थीं।” उसकी आवाज़ कांप रही थी, “और फिर रणवीर के इशारे पर... उन्होंने बम से उड़ा दी वो गाड़ी।”

आरव की सांसें जैसे रुक गईं।

“उन्होंने ये भी कबूला, कि उन्हें ये झूठ रणवीर ने बताया था, कि उस गाड़ी में केवल मेरी माँ, काजल थीं… और उन्होंने बिना सोचे-समझे, बिना सच जाने—मंदिरा आंटी को मार डाला।”

फोन की दूसरी ओर खामोशी छा गई थी। कुछ देर तक आरव कुछ बोल ही नहीं पाया।

“और जानते हो,” सुहानी की आवाज़ में अब एक अजीब सा सन्नाटा था,

“उन्होंने खुद कबूला — ‘मैंने अपने हाथों से ही अपनी प्रेमिका और अपने बच्चे को मार डाला।’ उनके आँसू… उनकी घुटती हुई साँसें…मुझे आज भी यकीन नहीं हो रहा कि इतने सालों तक ये बात दफन रही, कि उन्होंने, रणवीर के इशारे पर, ये सोच कर की मेरी माँ थीं उस कार में, उन्होंने मंदिरा आंटी की जान ले ली। खैर जैसा हम लोगों ने decide किया था, हम यहीं बताएँगे, कि उस कार में उनका बेटा भी था, मैंने वही कहानी उन्हें सुनाई। मैं नहीं चाहती वो कभी भी विशाल भाई तक पहुंचे।”

आरव के होंठ काँप उठे, उसने सुहानी की हर बात को दिल से महसूस किया।

“तुमने… ये सब अकेले सुना, सहा… और फिर भी इतना साहस दिखा रही हो। मैं सच में—” उसकी आवाज़ भर आई थी।

“नहीं आरव, मैं साहसी नहीं हूँ। मैं बस… टूटने से पहले का आख़िरी हिस्सा जी रही हूँ। मैं जीत से पहले बिखरूंगी नहीं बस। मैं बिखर गई तो, उन बच्चों को कौन बचाएगा इनके चंगुल से?”

फिर सुहानी ने बाकी सारी बातें भी आरव को बताईं जो दिग्विजय ने उसे बताईं थीं। ऐसे काले राज़ सुनकर आरव जैसे सुन्न पड़ गया था। उसके हाथ की पकड़ ढीली हो गई, और आँखें एक टक मोबाइल स्क्रीन को देखने लगीं—जैसे आवाज़ तो सुनी, पर दिमाग़ अब तक उसे समझ नहीं पा रहा था। कई पलों की खामोशी के बाद, उसकी आवाज़ टूटी।

“ये लोग… ये लोग सच में पागल हैं।” उसने बेहद थके हुए और टूटे हुए स्वर में कहा, “कैसे कर सकता है ऐसा कोई? कैसे जीते हैं लोग इतने गुनाहों के साथ?”

दूसरी ओर सुहानी ने आंखें बंद कर लीं। उसकी पलकों के नीचे एक थकी हुई मुस्कान उभरी— जो किसी ताज़ा ज़ख्म को छुपाने की नाकाम कोशिश थी।

“Trust me… I know,”

उसने कहा, और फिर एक पल ठहरकर दोहराया, “I know… this is not normal. ये लोग… इंसान नहीं लगते कभी-कभी।”

“मैं समझ सकता हूँ कि तुम पर क्या बीत रही होगी, सुहानी,”

आरव की आवाज़ अब पहले से कहीं ज़्यादा मुलायम और फिक्रमंद हो गई थी।

“इतनी सारी बातें... इतने ज़ख्म... और तुम अकेले सब कुछ झेल रही हो।”

एक गहरी सांस लेकर उसने कहा, “मैं बहुत जल्द ही घर पहुँचने की कोशिश करूँगा। लेकिन प्लीज़, तब तक तुम घर के लिए मत निकलना। तुम्हारा उनके बीच अकेले होने का ख्याल भी मुझे अब बेचैन कर रहा है।”

फोन की दूसरी ओर थोड़ी देर ख़ामोशी रही। जैसे सुहानी उसकी बातों को महसूस कर रही हो, पर कहने को शब्द नहीं मिल रहे थे।

फिर उसने धीमी आवाज़ में कहा— “ठीक है। मैं यहीं रहूंगी।”

“आप ठीक तो हो ना?” सुहानी ने आखिरकार पूछा।

आरव की आवाज़ टूटी हुई थी, जैसे किसी ने उसका सीना चीर कर रख दिया हो— “मुझे समझ नहीं आता, सुहानी… मैं कैसे उस घर का हिस्सा था… जहाँ इंसानियत से ज़्यादा अहम था राज़ छुपाना, सच को मिटाना, और… और अपने ही खून की कुर्बानी देना।”

सुहानी ने गहरी साँस ली— “और यही फर्क है आप में और उनमें, आरव। आप अब भी इंसान हो… आप के अंदर की इंसानियत अब भी ज़िंदा है। आप का दिल अब भी धड़कता है… और यही हमें जीत दिलाएगा।”

फोन के उस पार कुछ हौले से टूटा—शायद एक आँसू, शायद एक पश्चाताप। और उस पल में, उन दोनों के बीच सिर्फ एक कॉल नहीं थी… बल्कि दो टूटी आत्माओं की एक खामोश क़सम भी थी— कि अब चाहे कुछ भी हो, सच को उसके मुकाम तक पहुँचाना है।

 

आगे की कहानी जानने के लिए पढ़ते रहिये, रिश्तों का क़र्ज़। 

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