सुबह के ठीक दस बजे। सुनहरी धूप कांच की ऊँची इमारत पर चमक रही थी — "Rathore & Sons Group of Companies" की शानदार बिल्डिंग, जहाँ अंदर जाते ही हर दीवार, हर कोना सिर्फ़ एक ही बात कहता था: "यहाँ फैसले दिल से नहीं, दिमाग से होते हैं।"

सुहानी ने गहरे नीले रंग का एक फॉर्मल सूट पहना था। उसका चेहरा शांत था, पर उसकी आँखों में वही आग थी जो कल रात सबने देखी थी। उसकी एड़ी की हल्की सी आवाज़ ऑफिस के संगमरमर फर्श पर पड़ते ही सभी की निगाहें उसकी ओर मुड़ गईं।

रिसेप्शन डेस्क से लेकर कॉन्फ्रेंस रूम के काँच के पीछे बैठे कर्मचारियों तक, सभी के चेहरे पर एक ही सवाल तैर रहा था — "ये वही लड़की है? जिसने राठौर खानदान के सिर से ताज छीन लिया?"

कुछ की निगाहों में जिज्ञासा थी, कुछ में जलन तो कुछ कानाफूसी करने लगे — "ये वही है… जो अपनी शादी के दिन इतनी सेहमी सी थी…"

“इतनी चालाक निकली? हमें तो लगा था कि अभी तक तो हार मान चुकी होगी ऐसे खूंखार लोगों के बीच रहकर...” इन सब बातों के बावजूद सुहानी के चेहरे पर कोई भाव नहीं था। उसने एक बार भी किसी की ओर पलट कर नहीं देखा। उसके कदम सीधे उस दरवाज़े की ओर बढ़े जहाँ कभी दिग्विजय राठौर बैठता था — बोर्डरूम, जहां करोड़ों के फैसले लिए जाते थे, और आज वो वहाँ बैठने जा रही थी।

जैसे ही दरवाज़ा खुला, भीतर बैठे पुराने मैनेजमेंट के कुछ सदस्य सन्न रह गए। उन्हें अभी तक यकीन नहीं हो रहा था कि इस युवा लड़की ने एक ही झटके में कानून, वसीयत, और खेल की सारी बाज़ियाँ अपने नाम कर लीं।

"गुड मॉर्निंग," सुहानी ने सधे हुए स्वर में कहा, और कमरे में मौजूद सभी लोगों को देखने लगी।उनमें से कुछ ने मजबूरी में सिर हिलाया, कुछ ने नजरें चुराईं।

"बैठिए, हम आज से नए सिरे से शुरुआत कर रहे हैं। पुराने फैसले, पुराने डर, और पुराने नाम — अब सब हिस्ट्री हैं। अब से हर फैसला यहाँ ईमानदारी, मेहनत और इंसानियत के आधार पर होगा। पिछले तरीकों को आप लोग जितनी जल्दी भुला दें उतना अच्छा होगा।"

बोर्डरूम में एक सन्नाटा-सा छा गया था। जैसे सबको यकीन ही नहीं हो रहा हो कि ये वही लड़की है जिसे, दिग्विजय राठौर कमज़ोर समझ कर अपने घर में लाया था। फिर वो अपने केबिन की ओर मुड़ी — अब CEO का केबिन, जहाँ दरवाज़े के बाहर एक सुनहरा नेमप्लेट चमक रहा था:

“Mrs. Suhani Rathore — Chief Executive Officer”

वो केबिन में गई, दरवाज़ा बंद किया, और गहरी साँस ली। उसके चेहरे पर हल्की मुस्कुराहट थी — "ये शुरुआत है, अब ये साम्राज्य सच के नाम होगा।"

सुहानी ने अपनी डायरी बंद की, गहरी सांस ली और इंटरकॉम का बटन दबाया…."मरियम को मेरे ऑफिस में भेज दीजिये।"

उसके स्वर संयमित थे, लेकिन भीतर हलचल थी। वह जानती थी — यह टकराव आसान नहीं होगा। कुछ मिनटों बाद…दरवाज़ा अचानक तेज़ आवाज़ के साथ खुला। एक अधेड़ उम्र की औरत, सलीके से साड़ी में, अंदर दाख़िल हुई। उसकी चाल में ताव था, आँखों में क्रोध और आत्मसम्मान की चिंगारी। सुहानी की नज़रें सीधी जाकर उस औरत की आँखों पर टिक गईं। 

मरियम — दिग्विजय राठौर की पर्सनल सेक्रेटरी। और आज... वो दिग्विजय की वफादार बनकर सुहानी के सामने खड़ी थी। दोनों औरतें कुछ पलों तक एक-दूसरे को बस देखती रहीं। एक चुप्पी के साथ — जो शब्दों से ज़्यादा बोल रही थी। कुछ देर बीत जाने के बाद भी जब मरियम कुछ नहीं बोली, तो सुहानी कुर्सी में पीछे हो कर बैठ गई। उसने हाथों की उंगलियों को आपस में जोड़ा और शांत स्वर में पूछा, "क्या आपको मुझसे कुछ कहना है?"

मरियम ने होंठ भींचे, फिर एक सर्द स्वर में कहा — “बुलाया तुमने है मुझे इस ऑफिस में। अगर कोई ज़रूरी बात नहीं है तो क्या मैं अब जा सकती हूँ?” उसके लहजे में घृणा थी। जैसे सुहानी का वहाँ बैठना ही उसके आत्मसम्मान पर चोट पहुंचा रहा था।

सुहानी ने हल्की सी मुस्कान के साथ कहा — "तो आप मरियम हैं? आइए, बैठिए। मुझे आपसे कुछ ज़रूरी बातें करनी हैं।"

“मैं ऐसे ही ठीक हूँ। जो भी काम है, जल्दी बताओ।” मरियम ने घड़ी की ओर देखते हुए जवाब दिया, जैसे सुहानी से बात करना भी वक्त की बर्बादी हो।

सुहानी ने खुद को संयमित किया। "ये आसान नहीं होने वाला..." उसने मन ही मन सोचा, "...मगर मुझे धैर्य रखना होगा।"

उसने धीमे स्वर में, मगर पूरी गंभीरता के साथ कहा — "मुझे पिछले पाँच वर्षों की सारी डील्स की रिपोर्ट चाहिए। और दिग्विजय राठौर के जितने भी कारोबारी संपर्क हैं — उन सभी की पूरी जानकारी भी चाहिए। कितने समय में दे सकेंगी आप ये सब?"

मरियम का चेहरा तमतमा उठा। उसकी आँखें मानो अंगारे बरसाने लगीं…"तुमने सोच भी कैसे लिया कि मैं तुम्हारे लिए ये काम करूँगी? मैं दिग्विजय सर की वफादार रही हूँ। अब तुम... एक लड़की जो अचानक आई और उनसे उनका सब कुछ हथिया लिया — तुम मुझसे ये उम्मीद रखती हो कि मैं तुम्हारे लिए काम करूँ?" उसने गुस्से में कहा और पलट कर जाने लगी।

तभी सुहानी की आवाज़ गूंज उठी — "क्योंकि मैं जानती हूँ, वो इंसान कैसा है। और ये भी जानती हूँ कि उन्हें आपसे ज़्यादा कोई भी नहीं जानता होगा।"

मरियम के कदम थम गए। उसने पीठ फेर कर खड़े-खड़े ही सुना।

“उन लोगों ने सालों तक कितने ग़ैरक़ानूनी काम किए, कितने लोगों पर ज़ुल्म ढाए। आप उनकी वफादार ज़रूर रहीं, लेकिन मैं नहीं मानती कि आप भी वैसी ही हैं — एक हैवान। आप में इंसानियत अभी ज़िंदा है, और हर इंसान के भीतर एक आवाज़ होती है, जो सही और ग़लत में फर्क करना जानती है। आपने उनका साथ दिया होगा, शायद मजबूरी में, शायद डर में — लेकिन इज़्ज़त? वो तो ऐसे इंसान के लिए किसी के मन में भी नहीं हो सकती। आपके चेहरे पर साफ़ दिखता है कि ये वफादारी, दिग्विजय राठौर के लिए इज़्ज़त के भाव से तो नहीं आयी….ये डर है। आपकी खामोशी में छुपे डर और विरोध को मैं साफ़ देख सकती हूं, मरियम जी। आप मेरी नज़रों को धोखा नहीं दे सकती।”

"खैर," सुहानी ने कहा, "अभी मैं आपको मजबूर नहीं करूंगी। जब कभी आपको लगे कि आप अन्याय के खिलाफ खड़ी हो सकती हैं, और सच का साथ देने की हिम्मत आप में है — तो ये दरवाज़ा खुला ही रहेगा। आप आइएगा... मगर अपनी मर्ज़ी से।"

कमरे में खामोशी थी। मरियम ने कुछ नहीं कहा, मगर उसका ठहर जाना ही बहुत कुछ कह गया। मरियम ने एक पल को खुद को संभाला, कुछ तेज़ साँसें लीं — जैसे दिल और दिमाग के बीच कोई जंग चल रही हो। फिर बिना पीछे मुड़े, सीधी बाहर निकल गई। उसकी चाल में अब गुस्सा कम और उलझन ज़्यादा थी। उसके जाते ही सुहानी ने अपनी आँखें बंद कर लीं। कुर्सी की पीठ से टिककर उसने एक लंबी, थकी हुई साँस छोड़ी।

"बहुत वक़्त लगेगा... इन दीवारों के पीछे छिपे अंध विश्वास को तोड़ने में।" उसने मन ही मन सोचा।

यह ऑफिस... जहाँ हर व्यक्ति किसी न किसी रूप में राठौर परिवार के षड्यंत्र का हिस्सा बन चुका है — वहाँ सच्चाई का नाम लेना भी बगावत जैसा है। मगर सुहानी जानती थी, अगर उसे इस महल जैसे साम्राज्य की नींव को हिलाना है, तो उसे हर पत्थर को उखाड़ना होगा — सावधानी और हिम्मत से। वो एक पल विचार में डूबी, फिर उसने फौरन इंटरकॉम उठाया। आवाज़ सधी हुई थी, मगर हर शब्द में आदेश था, "डॉक्यूमेंट डिपार्टमेंट से मुझे तुरंत जोड़िए।"

कुछ क्षणों में कॉल जुड़ गया।

"मैं सुहानी राठौर बोल रही हूँ। पिछले पाँच वर्षों के सभी कॉन्ट्रैक्ट्स, डील्स और ट्रांज़ेक्शन से जुड़े डॉक्यूमेंट्स का डिजिटल डेटा मुझे आज ही चाहिए। एक-एक फ़ाइल की सॉफ्ट कॉपी मेरे सिस्टम पर भेज दीजिए।"

फिर उसने एक पल रुककर स्वर और कठोर किया — "और सुनिए, यदि मेरे साइन के बिना किसी ने भी इन फाइलों को बाहर निकालने या शेयर करने की कोशिश की, तो उसे कड़ी प्रशासनिक कार्यवाही का सामना करना पड़ेगा। हर गतिविधि की रिपोर्ट मुझे चाहिए। समझे आप?"

फोन के दूसरी तरफ़ घबराई हुई हाँ में जवाब मिला। सुहानी ने फोन रखा और कुर्सी पर सीधे बैठ गई। उसकी आँखों में अब झिझक नहीं, योजना थी। शाम ढल चुकी थी। ऑफिस के ज़्यादातर कर्मचारी जा चुके थे। सुहानी अब भी अपनी केबिन में बैठी थी, लैपटॉप की नीली रोशनी उसके चेहरे पर थकान और दृढ़ निश्चय की परछाईं डाल रही थी।

डॉक्यूमेंट डिपार्टमेंट से एक भारी-भरकम हार्ड ड्राइव उसे सौंप दी गई। वह घंटों से उसकी फाइलें खंगाल रही थी…एक-एक डेट, एक-एक डील को गौर से देख रही थी। तभी एक फ़ोल्डर पर उसकी नजर पड़ी —

“DPR Holdings Pvt. Ltd – Confidential तारीख़ थी — 13 जुलाई 2018।

सुहानी ने फ़ोल्डर खोला। उसमें एक स्कैन किया हुआ पुराना समझौता था, जिस पर दिग्विजय राठौर का हस्ताक्षर था — और साथ ही एक गुप्त कंपनी के नाम से विदेशी ट्रांज़ेक्शन की डिटेल्स। जैसे-जैसे वो पढ़ती गई, उसके माथे की शिकन गहराती गई।

“यूरोप में organs की एक अवैध डील... इंडिया में एक नकली NGO के नाम पर मनी लॉन्ड्रिंग... और इन सबका मास्टरमाइंड — दिग्विजय राठौर।”

सिर्फ यही नहीं, समझौते में एक और नाम था, जिसने सुहानी की धड़कनों को तेज़ कर दिया — "आरव राठौर"।

उसका नाम बतौर गवाह दर्ज था। सुहानी की उंगलियाँ अब भी पेन ड्राइव की ठंडी सतह को थामे हुए थीं, लेकिन उसकी आंखें अब लैपटॉप स्क्रीन पर नहीं, कहीं और देख रही थीं। जैसे उसकी आंखों के सामने अब सिर्फ एक चेहरा था… आरव का। “क्या आरव ये सब जानता था?” ये सवाल उसकी आत्मा को काटने लगा। दिल ने कहा, "नहीं, वो ऐसा नहीं कर सकता।" लेकिन दिमाग लगातार कड़वी सच्चाइयों की याद दिला रहा था। "अगर उसे ये सब पता था... अगर उसने सब कुछ जानते हुए भी आंखें मूंदे रखीं, तो फिर वो किससे बदला ले रहा था? मुझसे, या खुद से?"

उसकी सांस भारी होने लगी। कमरे की खामोशी में अब उसकी उलझी सोच की गूंज थी। “राठौर परिवार उस पर नफरत का बीज बो सकती है… झूठ बोल सकते है… उसे मेरी माँ और मेरे पापा के खिलाफ भड़का सकते है… लेकिन कोई ये कैसे अनदेखा कर सकता है कि किसी निर्दोष को काल कोठरी में डालना, या काले पैसे को सफेद करना, गलत है?”

"नहीं… आरव ऐसा नहीं हो सकता।" उसने खुद से कहा…..जितना मैंने उसे जाना है, वो दिल से सख़्त हो सकता है… लेकिन ज़मीर से नहीं। वो कभी ऐसे पेपर्स साइन नहीं करता अगर उसे सब कुछ पता होता।" वो पलटी और फिर से लैपटॉप खोला। फाइल को ज़ूम कर के आरव का नाम ढूंढा — लेकिन वहां सिर्फ दिग्विजय और कुछ अन्य बिज़नेस एसोसिएट्स के साइन थे।

आरव का नाम कहीं नहीं था। "इसका मतलब... उसे या तो सच में कुछ नहीं बताया गया, या फिर उसे किसी और बहाने से दूर रखा गया। उसे जानबूझकर धोखे में रखा गया। शायद उसे सिर्फ इतना बताया गया कि ये डील किसी विदेशी NGO के साथ CSR के तहत हो रही है। और उस मासूम भरोसे का फायदा उठाया गया।"

सुहानी के हाथ काँप गए। वो समझ चुकी थी — ये सिर्फ व्यापारिक धोखाधड़ी नहीं, ये एक अंतरराष्ट्रीय अपराध था। उसने झट से एक पेन ड्राइव निकाली और पूरे फ़ोल्डर की कॉपी उसमें सेव कर ली। "अब ये सिर्फ सबूत नहीं... मेरी ढाल है" उसने फुसफुसाते हुए कहा।

उसने पेन ड्राइव को अपनी जेब में रखा और धीरे से फुसफुसाई — "अब आरव को ये जानना होगा… पूरा सच। सिर्फ मेरे लिए नहीं, बल्कि उसके अपने लिए भी।"

और तभी... ऑफिस के दरवाज़े के बाहर किसी आहट की आवाज़ आई। उसने कंप्यूटर बंद किया, फाइल लॉक की, और शांत होकर दरवाज़े की ओर देखा। कोई था — जो नहीं चाहता था कि ये सच बाहर आए…सुहानी कुछ पल खामोशी से बैठी रही। बाहर हलचल जारी थी, लेकिन उसके भीतर... एक जंग छिड़ चुकी थी। ये जंग अब सिर्फ़ विरासत की नहीं थी। ये थी सिस्टम बदलने की — एक ऐसी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने की, जो वर्षों से भय, भ्रष्टाचार और झूठ पर खड़ी थी।

"औरत को कमज़ोर समझने की सबसे बड़ी गलती यही होती है," उसने अपनी डायरी में लिखा — "क्योंकि जब वो निडर होकर खड़ी होती है, तो अकेले ही पूरे साम्राज्य को बदल देती है।"

फिर उसने कलम रखी, स्क्रीन पर नजर दौड़ाई —

और फिर उसने दिग्विजय राठौर के सारे बिज़नेस कॉन्टैक्स को छान लिया। उसकी नज़रें केवल पांच नामों पर टिकी। और वो सब सुहानी के पिता, शिव प्रताप के associates रह चुके थे, मतलब दिग्विजय ने उन सबको पैसे देकर खरीद लिया था। क्योंकि एक एंट्री थी, जिस पर सुहानी की आँखें टिक गयी थीं। 

“Rathore Enterprises — Mauritius Account Transactions” इसके अंडर उन पाँचों का नाम दर्ज़ था। उसने उन पांचों का नाम नोट किया, और उस ट्रांजेक्शन का मेंशन भी नोट किया। उसकी आँखों में एक चमक उभरी। “खेल अब शुरू हुआ है...” उसने स्क्रीन ऑफ किया — और मुस्कराई।

 

कौन है वो पांच लोग? 

क्या आरव सच में हक़ीक़त से अनजान है? 

जानने के लिए पढ़ते रहिए… 'रिश्तों का क़र्ज़'!

Continue to next

No reviews available for this chapter.