राठौर हवेली की सुबह आज कुछ अलग थी। वो हवेली जो कल तक सत्ता और नियंत्रण की मिसाल थी, आज अपनी ही परछाइयों से डरती नज़र आ रही थी। सुहानी अपनी माँ की तस्वीर के सामने खड़ी थी — उसकी आँखों में नमी थी, लेकिन चेहरा ठोस और शांत। जीत का स्वाद भी तब तक अधूरा होता है, जब तक उसके पीछे की पीड़ा को कोई समझने वाला न हो।

“माँ,” उसने धीमे से कहा, “जो तुमने खोया, मैं उसे वापस नहीं ला सकती... लेकिन जो तुमने सहा है, उसका हिसाब तुम्हारी बेटी इन सब से एक-एक कर के लेगी।”

उस दिन की सुबह आम दिनों जैसी शांत नहीं थी। हवाओं में एक अजीब सी बेचैनी थी, मानो हवेली की दीवारें भी जान गई हों कि अब सब कुछ बदल चुका है। बीते दिन जो भी हुआ, उसकी आवाज़ अब तक हवेली के कोनों में गूंज रही थी। सुहानी द्वारा सभा-हॉल में सबके सामने किया गया वो ऐलान किसी बिजली से कम नहीं था — एक ऐसा प्रहार, जिसने उन तीनों के चेहरे से नकाब उतार दिए थे, जो बरसों से झूठ, लालच और पाखंड की दीवारों में छिपे बैठे थे: दिग्विजय राठौर, गौरवी राठौर और मास्टर माइंड रणवीर राठौर ।

उस एक पल ने राठौर खानदान की नींव हिला दी थी। और पहली बार, इस खानदान के तीन सबसे चालाक खिलाड़ी खुद को एक असहाय मोहरे की तरह महसूस कर रहे थे। सुहानी अब वो मासूम, डरती-झिझकती लड़की नहीं रही थी जिसे उन्होंने हवेली में लाकर बंद कर दिया था। अब वो एक सशक्त स्त्री थी — जिसके पास न सिर्फ़ सच्चाई थी, बल्कि अब कानूनी दस्तावेज़, वसीयत की नकलें और अपनों की सहानुभूति भी थी। वह अब शिकार नहीं, शिकारी बन चुकी थी। और यही बात उन हैवानों को सबसे ज़्यादा डराने लगी थी।

सुहानी ने सबके सामने उस असली वसीयत का ज़िक्र किया था जिसमें लिखा था कि विभंश राठौर की सारी संपत्ति और अधिकार उसी बेटे को दिए जाएँगे, जो पूर्वी का खून है — और जो एक सच्चे और ईमानदार जीवनसाथी के साथ आगे बढ़े। और वो जीवनसाथी कोई और नहीं, बल्कि काजल की बेटी — यानी सुहानी खुद थी।

उस एक खुलासे ने हवेली की सत्ता उनके हाथों से छीन ली थी। अब बात सिर्फ़ संपत्ति की नहीं थी। अब डर उनके अपने अस्तित्व का था। क्योंकि सुहानी को चोट पहुँचाना अब आसान नहीं था। उसके पास सबूत थे, गवाह थे, और सबसे बड़ी बात — एक नाम था, जिसकी धाक समाज में अब भी थी, शमशेर राठौर। और वो अब उसके साथ खड़ा था।

राठौर परिवार के ये तीनों सदस्य रात भर सो नहीं पाए।मीरा बार-बार अपने कमरे में इधर-उधर चक्कर काट रही थी, उसके चेहरे पर चिंता और असहायता साफ़ झलक रही थी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि अगर किसी को भी पता चल गया कि वो सुहानी के साथ है, तो क्या होगा। 

दूसरी ओर गौरवी, अपने कमरे में बैठी पुरानी तस्वीरों को घूर रही थी — वो तस्वीरें जिन में काजल और पूर्वी की मासूमियत अब उसे जलाने लगी थी। उस परछाई से जो उसने मिटाने की कोशिश की, वो अब और भी ताकतवर होकर उसके सामने खड़ी थी — उसकी बेटी के रूप में।

और फिर था दिग्विजय — चालाक, निर्मम और सत्ता का भूखा। उसने अपनी पूरी जिंदगी सिर्फ़ एक चीज़ के लिए बिताई थी: राठौर नाम की सत्ता। लेकिन अब वो उसकी मुट्ठी से रेत की तरह फिसल रही थी। वो अपने निजी वकीलों से लेकर पुराने राजनीतिक संपर्कों सबको फोन कर चुका था, कोई तोड़, कोई रास्ता निकालने के लिए... लेकिन हर तरफ़ से एक ही जवाब मिल रहा था: “अब देर हो चुकी है, दिग्विजय। अब उस लड़की से टकराना आसान नहीं होगा।”

आज का दिन कुछ अलग था… क्योंकि आज से पहली बार, हवेली की छत के नीचे सच्चाई ने सिर उठाया था। और वो सच्चाई एक बेटी थी — जो अपनी माँ का सम्मान, अपने अधिकार, और अपनी पहचान के लिए खड़ी हो चुकी थी।

रणवीर, जिसे लगता था, कि उसके पास हर चीज़ का तोड़ है, आज वो बेबस, अपने ऑफिस में इधर-उधर घूम रहा था। आज उसे इस समस्या का कोई तोड़ नज़र नहीं आ रहा था।

सुहानी अब राठौर परिवार की एकलौती और अधिकारिक मालकिन बन चुकी थी — वो पद जिसे पाने के लिए वर्षों से साजिशों का जाल बुना गया, खून बहाए गए और झूठ बोले गए। लेकिन अब, बिना किसी छल-कपट के, सच और साहस के बल पर यह मुकाम सुहानी ने हासिल किया था।

लेकिन इस जीत के बीच, सुहानी का मन कहीं और अटका था — आरव पर।

उसने आरव को उस हालत में छोड़ दिया था जब वो भावनाओं के भँवर में डूबा हुआ था, अपने ही रिश्तों और सच्चाइयों से टूट चुका था। उसे अब भी याद था कि आरव कैसे चीख उठा था जब उसे अपनी माँ की सच्चाई का पता चला था, कैसे उसकी आँखों में पश्चाताप, दुख और अपराधबोध की परतें थीं। और अब, जब आरव बेहोशी की हालत में था — सुहानी के दिल में बस एक ही इच्छा थी…कि जब वो होश में आए, तो उसकी आँखों में अपने लिए घृणा नहीं, बल्कि गर्व हो।

गर्व इस बात का कि सुहानी ने न सिर्फ़ खुद को संभाला, बल्कि उस नाम को भी फिर से इज्ज़त दिलाई, जिसे मिटाने की हर संभव कोशिश की गई थी। वो जानती थी कि जब आरव को होश आएगा, तो उसके चेहरे पर एक मुस्कान होगी — एक सुकून, कि उसने किसी झूठे बदले की आग में एक निर्दोष लड़की को नहीं झोंका... बल्कि वो लड़की अब उस हवेली की रोशनी बन चुकी है।

और शायद, वो दिन बहुत दूर नहीं था…

अब जब सुहानी राठौर परिवार की अधिकारिक मालकिन बन चुकी थी, तो उसके कंधों पर सिर्फ़ हवेली की ज़िम्मेदारी ही नहीं, बल्कि उन रिश्तों की भी जिम्मेदारी आ चुकी थी जिन्हें उसने जीवनभर अपनी धड़कनों में बसाया था।

अब अगला कदम स्पष्ट था — अपनी माँ को बचाना।

काजल… उसकी माँ… जिसने आस पास ना रहते हुए भी उसे हर मुश्किल घड़ी से बचाने की कोशिश की, हर आँधी से बचाया, अब खुद एक कैद की जंजीरों में जकड़ी हुई थी। रणवीर राठौर — वो आदमी जो कभी प्यार में हारा था अब और नफ़रत में डूबा हुआ, अपने ही अधूरे अतीत का बदला काजल से लेना चाहता था। उसने न सिर्फ़ काजल को अगवा किया था, बल्कि सावित्री अम्मा को भी अपने चंगुल में कैद कर लिया था — उस औरत को, जो कभी राठौर परिवार के लिए एक वफादार थीं।

"माँ को कुछ नहीं होना चाहिए..." सुहानी ने खुद से वादा किया। उसकी आँखों में आँसू नहीं थे अब — बस एक दृढ़ संकल्प था। उसने माँ से बचपन में वादा किया था कि वो कभी हार नहीं मानेगी… और आज वो वादा उसे रणवीर की दीवारें तोड़ने की ताक़त दे रहा था।

और सावित्री अम्मा — उनकी भी जान दांव पर थी। वे वो इकलौती कड़ी थीं जो राठौर परिवार की सच्चाई और पुरानी गलियों के रहस्यों को जानती थीं। अगर रणवीर ने उन्हें कुछ कर दिया… तो न सिर्फ़ दो जानें जाएंगी, बल्कि अतीत के सारे सबूत भी हमेशा के लिए मिट जाएंगे।

उसके पिता — शिवप्रताप सिंह — जो इस पूरे खेल के एक मासूम मोहरा बने, आज भी जेल में बंद थे। उन पर लगाए गए झूठे आरोपों की वजह से उनका सम्मान मिट्टी में मिला दिया गया था। मगर सुहानी अब वो बेटी बन चुकी थी जो अपने पिता के लिए पूरा आसमान झुका सकती है।

उसने चुपचाप, मगर पूरे होशियारी से अपने वकील, मीडिया और कुछ ईमानदार अफसरों की मदद से एक कानूनी जाल तैयार किया था। उस जाल में सच्चाई के धागे थे, गवाहों की गूंज थी, और सबूतों की धार थी — जो बहुत जल्द वो अदालत में पेश करने वाली थी।

"बाउजी अब अकेले नहीं हैं..." उसने मन ही मन कहा। अब की बार अदालत में सिर्फ़ कानून नहीं बोलेगा, बोलेंगे वो रिश्ते, जो सच्चाई के साथ खड़े हैं।

 वो आज पूरे आत्मविश्वास के साथ कमरे से बाहर निकली। उसके चेहरे पर एक ठंडा, शांत लेकिन बेहद दृढ़ भाव था। जैसे कोई युद्ध जीत चुकी रानी दुश्मनों के गढ़ में अपने हक की सलामी लेने निकली हो। उसके कदम सधे हुए थे, चाल में गरिमा थी, और आंखों में वो चमक, जो एक लंबे डर के साये से निकल कर अपने अस्तित्व को स्वीकार करने वाले इंसान की होती है।

सुहानी ने जैसे ही अपने रूम का दरवाज़ा खोला, पूरे कॉरिडोर में उसकी मौजूदगी महसूस की जा सकती थी। नौकर-चाकर एक पल को सन्न रह गए। आज पहली बार वे देख रहे थे कि वो लड़की जिसे कुछ दिन पहले तक सबने नजरअंदाज़ कर दिया था, अब उस हवेली की असली मालकिन बनकर सामने खड़ी थी।

वो धीमे-धीमे लेकिन पूरे आत्मविश्वास के साथ डाइनिंग हॉल की ओर बढ़ी। जहां फैसला होना था, वहीं आज उपस्थिति दर्ज़ करनी थी।

डाइनिंग टेबल पर पहले से ही राठौर परिवार के वो तीन शैतान — गौरवी, दिग्विजय और रणवीर — नाश्ता कर रहे थे। बातों के बीच उनकी हंसी में आज वो बेफिक्री नहीं थी। सुहानी का बयान अब भी उनके दिमाग में गूंज रहा था। जैसे ही सुहानी की आहट उनके कानों तक पहुँची, उनकी निगाहें एकदम उसकी ओर उठ गईं।

"गुड मॉर्निंग," उसने नपे-तुले शब्दों में कहा, और एक कुर्सी खींचकर सबसे सटीक जगह पर बैठ गई — ठीक रणवीर राठौर के आमने-सामने। मीरा, जो आज गुलाबी साड़ी में बेख़ौफ़ बैठी थी, उसकी ओर देखते ही हल्के से मुस्कुराई — ताकी कोई उसे देख ना ले, इसलिए संभल कर भी। और आज, पहली बार विक्रम भी वहीं बैठा था — अपने फोन को यूं घूर रहा था जैसे उसमें छुपा जवाब उसे कोई रास्ता दिखा सके।

हॉल में कुछ पल को सन्नाटा छा गया। एक अजीब तनाव हवा में घुल गया था। दिग्विजय ने अपनी कॉफी का कप उठाया, पर हाथों की कांपती उंगलियों ने सुहानी को वो सब बता दिया जो उसके होंठ कभी नहीं कह सकते थे — डर।

गौरवी ने अपनी बात संभालने की कोशिश की, “नींद अच्छी आई, बहू?” उसके शब्दों में मिठास कम, ज़हर ज़्यादा था।

सुहानी ने उसकी आंखों में आंखें डालकर जवाब दिया, “हाँ… और शायद पहली बार मुझे सुकून की नींद आई इस घर में।”

विक्रम कल का तमाशा नहीं देख पाया था। जब हवेली में सुहानी ने राठौर परिवार की बुनियाद हिला देने वाला ऐलान किया, तब वह वहां मौजूद नहीं था। दरअसल, उसे सुबह-सुबह ही ऑफिस के एक जरूरी काम के बहाने हवेली से रवाना कर दिया गया था — भेजने वाला कोई और नहीं, बल्कि रणवीर राठौर था।

रणवीर ने विक्रम से कहा था कि उसे शमशेर राठौर के संभावित ठिकानों का पता लगाना है। लेकिन रणवीर क्या जानता था, कि वो खुद जिस विक्रम को वफादार समझता है, वह अब किसी और के लिए वफादारी निभा रहा है — सुहानी के लिए। ठीक वैसे ही जैसे मीरा अब पूरी तरह सुहानी की वफादार बन चुकी थी।

रणवीर ने विक्रम को जो काम सौंपा था, उसे निभाने का विक्रम ने सिर्फ़ एक दिखावा किया था। असल में विक्रम पहले से जानता था कि शमशेर कहां छिपा है। और बिना बताए उस दिन विक्रम रणवीर के आदमियों को इधर उधर भटकाने के बाद, विक्रम एक गुप्त ठिकाने पर गया। गुप्त ठिकाना एक सुनसान फार्महाउस था — शहर से दूर, एक वीरान सड़क के आख़िरी छोर पर। वहां एक महत्वपूर्ण मुलाकात हुई — शमशेर, विशाल और विक्रम के बीच।

तीनों ने एक बंद कमरे में बैठक की, जहां ना कोई नौकर था, ना गवाह। वातावरण में संदेह था, पुरानी रंजिशें थीं, लेकिन साथ ही एक नए गठबंधन की ज़रूरत भी थी।

शमशेर ने सीधे मुद्दे पर आते हुए विक्रम से कहा, “मुझे काजल का ठिकाना चाहिए। रणवीर ने उसे अगवा किया है — कहां छिपा रखा है, ये तुम ही पता लगा सकते हो।”

विक्रम ने कुछ पल सोचा। वो जानता था कि ये काम आसान नहीं होगा। रणवीर अब पहले जैसा नहीं था। उसके इरादे बदल चुके थे, और अब वह हर कदम सोच-समझ कर उठाता था। मगर विक्रम को ये भी समझ आ गया था कि अगर उसने इस बार चुप्पी साधी, तो ना केवल शमशेर का भरोसा टूटेगा, बल्कि शायद वो सुहानी की नज़रों में भी गिर जाएगा।

अब हर किसी को उसकी भूमिका मिल चुकी थी। सुहानी ने अपने भरोसेमंद लोगों को मोर्चे पर तैनात कर दिया था, और हर कोई अपने-अपने तरीके से उस बड़े युद्ध की तैयारी कर रहा था जो अब सामने था — एक ऐसी जंग, जो सिर्फ़ सच और झूठ की नहीं, बल्कि न्याय और अन्याय की थी।

विशाल को सौंपा गया सबसे अहम काम — अपने पिता शिव प्रताप को जेल से रिहा कराना। उसके लिए उसे उन पुराने दोस्तों, वकीलों और पुलिस अधिकारियों से मिलना था, जिन पर वो अब भी भरोसा कर सकता था। जिन्होंने शिव प्रताप के संघर्षों को करीब से देखा था। विशाल जानता था कि ये कोई आसान काम नहीं होगा। क्योंकि केस को राठौर परिवार ने इतनी चालाकी से उलझा रखा था कि हर कानूनी दरवाज़ा जैसे बंद नज़र आता था।

दूसरी तरफ, रमेश को सौंपा गया था एक गुप्त मिशन - रमेश, जो एक मामूली सा वार्ड बॉय था, लेकिन पिछले कई सालों से शमशेर राठौर के वफादारों को पहचानता था — उन्हें जो अंडरग्राउंड हो गए थे, जब शमशेर को मरा हुआ मान लिया गया था।

सुहानी को पता था, अगर राठौर परिवार ने किसी भी तरह से उस पर या उसकी माँ पर हमला किया, तो वो लोग ही थे जो तुरंत सामने आकर उसे बचा सकते थे। इसलिए रमेश को गुप्त संकेतों के साथ रवाना किया गया — वो हर उस शख्स तक पहुंचेगा जो शमशेर के पुराने लोग थे, और अब सुहानी के लिए ढाल बन सकते थे।

और इस सबके बीच, हवेली के अंदर का कनेक्शन थी — मीरा। वो न सिर्फ़ हवेली में हो रही हर गतिविधि की जानकारी सुहानी तक पहुँचा रही थी, बल्कि उन बातों को भी भांपने लगी थी जो कहे बिना रह जाती थीं। मीरा ने एक खास कोड में मैसेज भेजने की प्रणाली तैयार की थी — ताकि अगर किसी ने उसका फोन भी देख लिया, तो कुछ समझ ना आए।

सुबह के नाश्ते से लेकर राठौर की हर हलचल, उनके चेहरे के बदलते भाव-भंगिमाएं तक — मीरा सब कुछ रिपोर्ट कर रही थी। उसकी ये सूझबूझ अब इस पूरे ऑपरेशन की रीढ़ बन गई थी। अब युद्ध सिर्फ़ मानसिक नहीं था — ये रणनीति, निष्ठा और न्याय का इम्तिहान बन चुका था।

 

क्या ये रणनीति काम आएगी? 

सुहानी के मोहरे - विक्रम, विशाल और रमेश कामयाब हो पाएंगे? 

किसकी होगी जीत? 

जानने के लिए पढ़ते रहिये, रिश्तों का क़र्ज़। 

 

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