सुबह की हल्की किरणें राठौर हवेली के भारी पर्दों से छनकर अंदर आ रही थी, लेकिन हवेली में उजाले से ज़्यादा काला साया पसरा था। हर कोने में एक अनकहा डर, एक अनसुलझा रहस्य तैर रहा था। दीवारों की साज-सज्जा जितनी भव्य थी, उतनी ही भारी चुप्पी उस पर लिपटी हुई थी।

नौकर-चाकर भी धीमे कदमों से चल रहे थे, जैसे हवा में कुछ अजीब सा हो। किसी की भी हिम्मत नहीं हो रही थी ज़ोर से बोलने या आंख से आंख मिलाने की। मानो हवेली में खुद हवाएं भी धीमे बह रही हों।

[INT. राठौर हवेली – सुबह]

हॉल के बीचों बीच – वही विशाल दीवान, भारी झूमर, लेकिन आज सब कुछ बदला हुआ लग रहा था।

सोफे पर गौरवी राठौर बैठी थी – अपनी पारंपरिक रौबदार साड़ी में, आंखों में अंगार लिए, उसकी साड़ी की सिलवटें भी उसके गुस्से की गवाही दे रही थीं। चेहरा तमतमाया हुआ, आंखों में एक ऐसा अंगार, जो किसी को भी झुलसा सकता था।

बगल में दिग्विजय – हमेशा शांत, मगर आज उसकी उंगलियां कुर्सी की बाहों को कसकर पकड़े हुई थीं। माथे पर पसीने की महीन लकीरें, जो उसके डर का पर्दाफाश कर रही थीं।

कोने में मीरा खड़ी थी – उसके होंठों पर एक नकली मुस्कान, लेकिन आंखों में एक विषैला इंतज़ार। जैसे बस मौके की तलाश में हो।

आरव दीवार के सहारे, हाथों को सीने पर बांधे हुए खड़ा था, मगर उसकी आंखें लगातार सीढ़ियों की ओर देख रही थीं। चेहरे पर कोई भाव नहीं, पर भीतर कोई युद्ध चल रहा था।

तभी…

सीढ़ियों पर कदमों की धीमी आहट होती है।

हर कोई पलटता है।

सुहानी गुलाबी रंग की साधारण सूती साड़ी में, बिना गहनों के, लेकिन चेहरे पर एक अलग ही चमक। बाल खुले हुए, माथे पर छोटी सी बिंदी, और आंखों में हल्की सूजन – रात की नींद की गवाही। लेकिन आज उसकी चाल में डर नहीं था... था तो बस एक आत्मविश्वास, एक जंग का ऐलान।

वो धीरे-धीरे सीढ़ियों से उतरती है। उसके उतरते हर कदम के साथ कमरे का वातावरण बदलने लगता है।

उसकी नज़र सबसे पहले गौरवी से मिलती है – फिर मीरा, फिर दिग्विजय, और अंत में... आरव।

आरव की आंखें उसी पर टिकी होती हैं, तभी उसकी नज़र टेबल पर जाती है।

एक काली, मामूली-सी पेन ड्राइव।

वो ठिठक जाती है, उसका चेहरा एक पल में पीला पड़ जाता है, सांसें अटक सी जाती हैं….उसकी नज़रें एक बार फिर आरव से टकराती हैं।

वो सब कुछ जान गया है…

आरव की आंखों में सवाल भी थे… और जवाब भी, लेकिन चेहरा बिल्कुल भावशून्य।

हिम्मत जुटाकर, सुहानी आगे बढ़ती है। सभी की निगाहें उसकी हर हरकत पर – जैसे उसे चीर कर देख लेना चाहते हों।

 

वो बीच हॉल में पहुंचती है – और बिना किसी डर या इजाज़त के, सीधे जाकर उस बड़े, नक्काशीदार सोफे पर बैठ जाती है।

सुहानी की इस हरकत पर गौरवी की आंखें फट पड़ती हैं, चेहरा क्रोध से लाल हो जाता है।

गौरवी चिल्ला उठती है, “तुम्हारी इतनी हिम्मत कि बिना पूछे इस घर के बुजुर्गों के सामने बैठ जाओ?”

सुहानी धीमे स्वर में कहती है, “जब पाप की दीवारें ढहने लगें, तब पापियों से डरना बंद कर देना चाहिए।”

गौरवी गुस्से से उठती है, उसकी ओर बढ़ती है….

“जबान लड़ाने लगी है ये! अभी बताती हूँ...”

वो सुहानी का हाथ खींचने के लिए झपटती है, लेकिन इससे पहले—सुहानी उसका हाथ कसकर पकड़ लेती है।

 

सुहानी तेजी से चिल्लाती है, “बहुत बर्दाश्त कर चुकी। अब अगर दोबारा मुझे हाथ लगाने की कोशिश की, तो ये याद रखना कि ये वो सुहानी नहीं जो इस घर में आई थी। ये सुहानी अपने आत्मसम्मान के लिए किसी भी हद तक जा सकती है।”

गौरवी एक पल के लिए झिझकती है, लेकिन पीछे हटने की बजाय फिर से चीखती है “जेठ जी! आप देख रहे हैं? ये लड़की अब हम पर हुकुम चला रही है! इसकी जुरत तो देखो।”

 

दिग्विजय टेबल की ओर इशारा कर के गंभीर लहजे में कहता है…“हमें सिर्फ ये जानना है कि ये पेन ड्राइव तुम्हारे पास कैसे पहुंची, जवाब चाहिए... अभी के अभी।”

“मेरे कमरे में था, मेरी किताबों के बीच। किसने रखा – नहीं पता। लेकिन जैसे ही देखा... छुपा दी। क्योंकि अब मुझे समझ आ चुका है कि इस हवेली के खेल का शिकार कौन कौन बना हैं।”

मीरा हँसते हुए, तंज कसती है…“तो अब तुम जासूस बन गई हो?”

सुहानी उसे घूरकर देखती है “सच का पीछा करना अगर जासूसी है... तो हाँ, मैं अब इस घर के झूठ का अंत हूँ।”

 

तभी आरव आगे बढ़ता है उसकी आंखें सुहानी पर टिकी हैं और वो पेन ड्राइव उठाता है।

आरव धीमे स्वर में पूछता है “इसमें जो है... वो तुम्हें क्यों छुपाना पड़ा?”

“क्योंकि तुम उन लोगों के साथ खड़े हो जो मेरे माँ-बाप की ज़िंदगी बर्बाद कर चुके हैं। और मैं… इतनी बेवकूफ नहीं कि हाथ में आया मौका ऐसे ही जाने दूंगी।”

आरव की उंगलियां पेन ड्राइव को कसकर पकड़ लेती हैं और उसकी आंखें नीची हो जाती हैं।

इस पर दिग्विजय तंज़ कसते है…“अब से इस लड़की पर निगरानी रखी जाएगी। हर कॉल, हर मैसेज, हर एक हरकत पर। इसके पास कोई मोबाइल नहीं रहेगा, न लैपटॉप। कोई भी बाहरी संपर्क – बंद।”

गौरवी तपाक से कहती है, “और इसके कमरे के बाहर अब से हमेशा गार्ड्स खड़े रहेंगे।”

सुहानी एक एक को घूरते हुए कहती है "जेल बनाकर किसी को बंधक नहीं बनाया जा सकता…सच – कैद में नहीं रहता, वो रास्ता बना ही लेता है।"

 

वो बिना किसी से कुछ कहे, सीढ़ियों की ओर बढ़ती है।

आरव बस देखता रह जाता है – जैसे हर कदम उसके सीने पर चोट कर रहा हों।

मगर उसे जो करना था वो सफल हुआ, इस बात के लिए उसके दिल का एक कोना सुकून में था। 

 

(सुहानी अपने कमरे में पहुंचकर) 

उसकी आंखों में आंसू हैं – लेकिन उनमें कमज़ोरी नहीं, सिर्फ आग है।

एक संकल्प – इस बार वो अकेली नहीं गिरेगी।

बल्कि इस बार... राठौर परिवार की नींव हिलने वाली है।

 

[फ्लेशबैक – आज सुबह 6 बजे]

 

उसी दिन सुबह 6 बजे, दिग्विजय की स्टडी में….गौरवी और दिग्विजय, आरव की गैर मौजूदगी में लॉकर खोलते हैं। पेन ड्राइव वहीं होती है, उसी जगह…तो फिर जो सुहानी के पास है – वो दूसरी है?

वो उस पेन ड्राइव को लैपटॉप में लगाते हैं, जो आरव ने उन्हें सुहानी के अलमारी से लाकर दी थी।

ऑडियो प्ले होता है – शमशेर की आवाज़ गूंजती है। 

और फिर साथ ही, स्क्रीन पर एक स्कैन की हुई चिट्ठी खुलती है –

“तुम्हारा राज़ सबके सामने ज़रूर आएगा।”

गौरवी के चेहरे का रंग उड़ जाता है, दिग्विजय के माथे से पसीना टपकने लगता है।

 

सुहानी के कमरे में थोड़ी देर आने के बाद दरवाज़ा ज़ोर से बंद होता है।

सुहानी तेज़ साँसों के साथ दरवाज़े से पीठ टिका कर खड़ी होती है। चेहरा आँसुओं से भीगा हुआ है। उसकी आँखों में गुस्सा, दर्द और घुटन साफ़ झलक रही है।

आरव धीरे-धीरे अंदर आता है।

सुहानी पलटती है, और उसे धक्का देती है।

 

“मार डालो मुझे! क्या यही चाहते हो तुम?! सब कुछ छीनकर अब मेरी जान भी ले लो!”

वो आरव के सीने पर मुक्के मारती है — बार-बार। हर मुक्का उसके अंदर जमा ग़ुस्से, चोट और विश्वासघात को बहार निकाल रहा है।

“क्यों किया ये सब? क्यों? कैसे सोच लिया कि मैं तुम पर फिर भरोसा करूंगी?”

आरव धीरे से उसका हाथ पकड़ते हुए कहता है, “मैंने कहा था ना... जो कर रहा हूँ, वो तुम्हें बचाने के लिए कर रहा हूँ।”

सुहानी चीख पड़ती है….“बचाना कहते हो तुम इसे? ये कैद है आरव! ये ज़ुल्म है! तुमने मेरी आज़ादी छीनी, मेरी आवाज़ छीनी... और अब कह रहे हो ‘बचा रहा हूँ’?”

“तुम सच के पीछे जा रही थी... और वो सच एक ऐसे अंधेरे में है जहां से कोई लौटकर नहीं आ पाएगा।”

 

आरव धीरे से उसके और पास आता है।

“अब तुम यहीं रहोगी, सुरक्षित। मैं खुद पता लगाऊंगा सब कुछ... मैं वादा करता हूँ।”

सुहानी उसकी ओर तीखी नज़रों से देखती है, फिर टूटकर ज़मीन पर बैठ जाती है। उसका सारा दर्द, सारा बोझ उसकी हिचकियों में बहने लगता है।

सुहानी की आवाज़ कांपने लगती है….

“काश कभी तुम पर भरोसा न किया होता... अब कभी नहीं करूँगी। कभी नहीं।”

आरव बाहर से शांत लेकिन भीतर से बुरी तरह टूट चुका है। वो मन ही मन खुद से कहता है….

“तुम्हें नहीं पता... तुम किस बवंडर में फंस चुकी हो। मैं जानता हूँ — ये घर नर्क है, लेकिन इस नर्क से बाहर सिर्फ मौत है और मुझे तुम्हें जिंदा रखना है। किसी भी क़ीमत पर।”

[क्षण भर बाद]

सुहानी अब भी ज़मीन पर बैठी है, रोते रोते उसकी आँखें तक सूज चुकी हैं।

“तुम्हें क्या लगता है? एक कमरे में बंद कर दोगे तो मैं डर जाऊँगी? मैं हार मान लूंगी?”

वो लड़खड़ाते क़दमों से उठती है और आरव की ओर बढ़ती है। उसकी चाल में नफ़रत है, लेकिन उसकी आँखों में सिर्फ टूटा हुआ प्यार।

“तुम्हें हक किसने दिया, मेरी ज़िंदगी का फ़ैसला लेने का? कौन हो तुम?” सुहानी का सवाल आरव को चुप कर देता है।

वो उसकी कॉलर पकड़ कर बोलती है…“एक पल के लिए लगा था... कि तुम अलग हो, बाक़ियों जैसे नहीं। पर तुम... तुम भी उन जैसे निकले — झूठे, मक्कार, धोखेबाज़!”

आरव धीमे स्वर में उसे शांत करने की कोशिश करता है, “मैं जानता हूँ तुम क्या सोच रही हो... और मैं ये भी जानता हूँ कि मैं उस भरोसे के लायक नहीं रहा।”

“भरोसा? वो तो तब ही टूट गया था, जब हम सावित्री अम्मा से मिलकर लौटे थे! जब तुमने मुझे मेरी माँ की यादों से भी दूर कर दिया था!”

वो फिर से उसे धक्का देती है।

“तुम कहते हो तुम मुझे बचा रहे हो? पर तुमने तो मुझे तोड़ दिया आरव! अंदर तक! उसका क्या?”

आरव सुहानी की आंखों में झाक कर कहता है, “क्योंकि तुम उस सच्चाई को जानने के लिए जो कदम उठा रही हो... वो इतना ख़तरनाक है कि तुम्हारी जान भी जा सकती है। मैं उस साज़िश का हिस्सा था... अनजाने में। अब अगर तुम्हें उस दलदल से निकालना है, तो तुम्हें मुझसे नफ़रत करनी होगी। लेकिन तुम्हारा ज़िंदा रहना बहुत ज़रूरी है, अगर तुम अपनी माँ से मिलना चाहती हो।”

“मैं तुमसे नफ़रत करती हूँ!! सुन रहे हो ना?! नफ़रत!!”

सुहानी एक बार फिर उसके सीने पर मुक्के मारती है — बार-बार, हिचकियों और आँसुओं के साथ।

“क्यों किया ये सब? क्यों मुझे इस क़ैद में डाल दिया? क्यों मेरे सवालों के जवाब छीन लिए?”

एक झटके में वो नीचे बैठ जाती है — बुरी तरह टूटी हुई, असहाय।

“थक गई हूँ मैं... अब और नहीं लड़ सकती...”

आरव उसकी ओर देखता है, उसके टूटे हुए दिल को अपनी हार मानता है। वो धीरे से उसके पास बैठता है। वो उसके आँसुओं को पोंछने के लिए हाथ बढ़ाता है, लेकिन सुहानी उसे ज़ोर से धक्का देती है।

“मत छूओ मुझे... मत आओ मेरे पास...हाथ लगाने का हक तुम बहुत पहले खो चुके हो”

पर आरव उसे एक झटके में अपनी बाँहों में कस लेता है। सुहानी छटपटाती है, लेकिन आरव उसे कसकर थामे रहता है।

आरव उसके बालों में अपना चेहरा छिपाकर, काँपती आवाज़ में बोलता है, “सॉरी... सॉरी सुहानी... मैं बहुत बुरा हूँ... लेकिन मेरे पास और कोई रास्ता नहीं था।”

वो उसे और कस के पकड़ता है।

आरव जानता था…“वो मुझे कभी माफ़ नहीं करेगी। शायद नफ़रत भी करेगी... लेकिन अगर यही क़ीमत है उसे ज़िंदा रखने की — तो मैं हर रोज़ ये सज़ा झेलूँगा। बस वो सुरक्षित रहे... मुझे अपनी परवाह नहीं।”

 

रात की किसी को खबर नहीं…सुहानी थककर उसकी बाहों में रोते-रोते सो गई, और आरव बस उसे थामे रहा — जैसे ये आख़िरी बार हो। बाहर बिजली चमकी, और तेज़ गड़गड़ाहट ने कमरे की खामोशी को चीर डाला।

अचानक दरवाज़े पर एक ज़ोरदार दस्तक हुई। आरव ने चौंककर सिर उठाया। सुहानी भी सहम गई।

दस्तक दोबारा हुई — इस बार और ज़ोर से।

आरव ने सुहानी को शांत रहने का इशारा किया और दरवाज़े की ओर बढ़ा। जैसे ही उसने कुंडी खोली, एक नौकर बदहवास अंदर आया, पसीने से भीगा हुआ।

नौकर (हांफते हुए) “बड़े मालिक ने... राठौर हवेली के तहखाने का दरवाज़ा खुलवाया है...”

आरव का चेहरा एकदम ज़र्द पड़ गया।

आरव “तहखाना? पर क्यों?”

नौकर की आँखों में डर था।

नौकर “क्योंकि... आज 14 अप्रैल है, साहब। वही तारीख़... जब शमशेर राठौर की मौत हुई थी...”

आरव की साँसें अटक गईं। सुहानी की आँखें सवालों से भर गईं और उसी पल — हवेली की बत्तियाँ एक झटके में गुल हो गईं।

 

क्या था उस तहखाने का सच?

कौन से राज़ गड़े थे उस तहखाने में? 

आखिर अब दिग्विजय कौन से गड़े मुर्दे उखाड़ रहा है? 

सुहानी क्या कभी आरव को समझ पायेगी, उस पर भरोसा करने का सोच पायेगी?

ये जानने के लिए पढ़ते रहिये, रिश्तों का क़र्ज़।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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