Pendrive में छुपे कुछ और राज़…
कमरे में हल्की रोशनी थी। खिड़की से आती चांदनी, फर्श पर चुपचाप बिछी हुई थी। सुहानी ने दरवाज़ा बंद किया, पर्दे गिरा दिए और मेज़ पर रखे लैपटॉप में वो pendrive दोबारा लगाई – वही pendrive जो उसकी माँ के अतीत और उसकी ज़िन्दगी के हर झूठ को सबके सामने लाने वाली थी।
क्लिक करते ही स्क्रीन पर कुछ नई फाइल्स खुलीं – एक ऑडियो, और नीचे एक वीडियो, जिसके thumbnail में कोई चेहरा नहीं था, सिर्फ धुंधली परछाइयाँ थीं।
उसने कांपते हाथों से सबसे पहले ऑडियो प्ले किया।
कुछ सेकंड सन्नाटा… फिर एक जानी-पहचानी, मगर कंपकंपा देने वाली आवाज़ — शमशेर राठौर की।
"…अगर मुझे कुछ भी हुआ, तो ये ऑडियो सबूत बनेगा दिग्विजय राठौर और गौरवी राठौर के विनाश का, उस षड्यंत्र का जिसने कितने लोगों का जीवन तबाह कर दिया।”
सुहानी की साँसें थम सी गई।
ये सिर्फ शब्द नहीं थे, ये आरव के पिता की सुलगती हुई चेतावनी थी — ऐसा पिता जिसने अपना सब कुछ खो दिया था, मगर अपने एक ज़िंदा बची औलाद की सुरक्षा के लिए किसी भी हद्द तक जाने को तैयार था।
लेकिन ऑडियो यहीं खत्म नहीं हुआ…
कुछ देर बाद, एक और आवाज़ गूंज उठी — दिग्विजय राठौर की।
दिग्विजय की आवाज़ - अगर मुझे अपने हक़ के लिए अपने बाप को भी रास्ते से हटाना पड़ेगा तो मैं झिझकूंगा नहीं।
सुहानी की आँखें फटी की फटी रह गईं।
उसके दिल में एक डर घुल गया… क्या ये आदमी अपने ही पिता को…?
और फिर…
गौरवी की आवाज़ - हिम्मत तो देखिये उनकी, अपने बेटों को छोड़ कर प्रॉपर्टी में एक अनजान लड़की को हिस्सा दे दिया। उन्हें तो वैसे भी जीने का हक़ नहीं।
मैंने बहुत मेहनत की थी इस प्रॉपर्टी का हिस्सेदार बनने के लिए, अपनी सगी बहन और उसके बेटे को ख़तम करने में आपका साथ देने में एक पल के लिए भी नहीं झिझकी, तो ये करने में भी पीछे नहीं हटूंगी।
और उसके बाद….
दिग्विजय की आवाज़ - हम इस प्रॉपर्टी का एक छोटा सा हिस्सा भी किसी और के हाथ नहीं लगने देंगे….चाहे हमें कुछ भी करना पड़े।
गौरवी की आवाज़ - मैं आपके साथ हूं।
हर शब्द, सुहानी की रगों में जैसे आग बनकर दौड़ गए।
वो चेयर से उठ खड़ी हुई। उसकी माँ… उसकी माँ कोई दुर्घटना का शिकार नहीं हुई थी। ये एक सुनियोजित साज़िश थी।
और अब... वो वीडियो।
The Mysterious Video – वो परछाई जो रहस्य बनने वाली थी।
सुहानी ने कांपते हाथों से pendrive की दूसरी फाइल खोली। स्क्रीन पर एक पुराना, grainy वीडियो – काली सफेद रेखाएं, आवाज़ में थोड़ी रुकावट, लेकिन visuals साफ़।
location - लोकेशन: किसी पुरानी हवेली का तहखाना या शायद कोई सीक्रेट बेसमेंट — मोटी ईंटों की दीवारें, दीवारों पर टूटे-फूटे शीशे, एक हल्का झूमता बल्ब… सब कुछ सिनेमा के किसी डरावने फ्रेम जैसा।
दिग्विजय दीवार के सहारे खड़ा है, उसका चेहरा पसीने से तर है। उसका सूट बिखरा हुआ, जैसे उसने किसी से भाग कर अपनी जान बचाई हो।
गौरवी एक टूटी कुर्सी पर बैठी है, आँखें लाल, होंठ कांपते हुए, जैसे उसकी रूह किसी साए की गिरफ्त में हो।
फिर… कैमरे के फ्रेम में एक तीसरा शख्स दाखिल होता है।
दरवाज़ा अपने आप खुलता है… और एक साया भीतर आता है।
चेहरा नहीं दिखता… सिर्फ उसकी पीठ।
उसकी चाल में अजीब सा ठहराव था — काला कोट, एक हाथ में दस्ताने, चाल इतनी ठहरी हुई कि लगता है जैसे हवा भी रुक गई हो।
जैसे वक़्त उसके कदमों से डरता हो।
गौरवी (डरी हुई): “हमें कुछ नहीं पता… गाड़ी में काजल ही थी ना? हमने सिर्फ वैसा ही किया जैसा कहा गया था…”
दिग्विजय (बुरी तरह घबराया हुआ, हलक सूखा हुआ): “त-तुमने कहा था कि वो मर गई थी… तुमने कहा था सब क्लियर है…प्लीज़, अब ये मत कहना कि… कि वो कोई और थी…”
कुछ सेकंड सन्नाटा… फिर वो तीसरी परछाई बोली –
“अक्की…” (उसकी आवाज़ लोहे से टकराती किसी पुरानी ज़ंजीर जैसी थी — ठंडी, मगर भारी।)
सुहानी का दिल जोर से धड़कने लगा।
“अक्की…?”
ये नाम उसने पहले कहीं सुना हुआ है… कहीं बचपन में, किसी कोने में दबे किसी पुराने संवाद में, उसे ठीक से याद नहीं।
लेकिन गौरवी को कोई इस नाम से क्यों बुला रहा है?
“तुम्हारी यादाश्त कमजोर है क्या? मैंने कहा था ना, जितना कहा जाए उतना ही करना, और मेरे काम पर कभी सवाल मत उठाना।”
गौरवी की साँसें रुक सी गईं, दिग्विजय के पैर काँपने लगे।
"तुम्हें तुम्हारा काम दिया गया था ना? तो अपने काम पर ध्यान दो। काजल की कहानी मेरा हिस्सा थी। उसमें टांग अड़ाने की हिम्मत कैसे की?"
गौरवी की आँखों में डर तैरने लगता है।
दिग्विजय ने पसीना पोंछा, जैसे किसी शैतान के सामने खड़ा हो।
और इतना कहकर वो उन लोगों के करीब आता है। उन दोनों की सांसें सूख जाती हैं। फिर उन्हें कुछ देर अपनी नज़रों से मौत के घात उतारने के बाद, वो वैसे ही उस दरवाज़े से बाहर निकल जाता है, जहां से वो अंदर आया था।
एक काली परछाई की तरह !
फिर अचानक वीडियो कट हो गया।
सुहानी, स्क्रीन के सामने सन्न बैठी हुई थी। अब वो साफ़ समझ गई थी —काजल की मौत कोई हादसा नहीं, एक गहरी साजिश थी। और गौरवी और दिग्विजय… सिर्फ कठपुतलियाँ।
असल खेल किसी और ने रचा था।
कौन था वो शख्स?
क्यों उसने गौरवी को "अक्की" कहकर पुकारा?
रात गहरी हो चुकी थी….चाँद अपनी जगह खामोश था और हवाओं में दबी-दबी सी बेचैनी महसूस हो रही थी।
दिग्विजय का स्टडी – रात के करीब 1 बजे
आरव दबे पाँव स्टडी के भीतर दाख़िल होता है। अंधेरा गहरा है, टेबल लैम्प की हल्की पीली रोशनी में कमरा किसी गुमनाम रहस्य जैसा महसूस हो रहा था।
उसकी नज़रें कमरे में इधर उधर घूमती हैं — दीवार पर शमशेर राठौर की एक पुरानी तस्वीर टंगी है, जिसे देखकर उसके सीने में एक टीस उठती है। लेकिन आज जज़्बातों को काबू में रखना ज़रूरी था।
टेबल पर पड़ी एक स्लिप पर उसकी नज़र जाती है — उसने उसे उठाया और उस पर लिखे हुए शब्दों को पढ़ा।
“Confidential Delivery – 1 Pendrive Inside.”
उसकी आंखों में चमक सी आ गई।
आरव धीरे से, खुद से कहता है, “तो ये है वो चीज़... जिसे देने के लिए आज वो डिलीवरी बॉय आया था। जिसके आने के बाद से दिग्विजय इतना बेचैन घूम रहा है।”
वो पूरे कमरे में इधर-उधर तलाश करता है। दराज़ें खोलता है, किताबों के बीच देखता है, अलमारी टटोलता है — लेकिन Pendrive कहीं नहीं मिलती।
आरव एक पल के लिए ठहरता है, सोचता है… और फिर उसकी नज़र लॉकर पर जाती है। उसका दिल ज़ोरों से धड़कने लगता है।
ये वहीं लॉकर है, जिसका कोड एक बार आरव ने चुपके से याद कर लिया था। क्यों? वो नहीं जानता। मगर आज, वो उसके काम आने वाला था।
आरव लॉकर के पास जाकर
“SR... 1990...” (क्लिक!)
लॉकर एक हल्की सी आवाज़ के साथ खुल जाता है।
अंदर एक काले रंग की पेन ड्राइव रखी थी — वो उसे बड़ी सावधानी से बाहर निकालता है, मानो कोई विस्फोटक चीज़ हो।
उसे स्टडी टेबल पर रखे लैपटॉप में लगाता है।
ऑडियो फाइल ऑटो-प्ले होती है।
शमशेर राठौर की जानी-पहचानी, मगर थकी और टूटी हुई आवाज़ कानों में गूंजती है।
आरव की आंखों में पानी होता है, होंठ कांपने लगते हैं। उसके चेहरे पर ग़ुस्सा, दुख, ग्लानि — सब एक साथ उभर आते हैं। वो जल्दी से Backup लेना शुरू करता है... लेकिन तभी— दरवाज़े के बाहर धीमी सी आहट होती है।
उसके हाथ रुक जाते हैं। सांसें जैसे गले में अटक जाती हैं।
आरव (धीरे से बुदबुदाता है) “लगता है कोई इधर ही आ रहा है।”
वो झट से पेन ड्राइव निकालकर वापस लॉकर में रख देता है, लैपटॉप बंद करता है और कमरे के एक कोने में भारी पर्दों के पीछे छिप जाता है।
दरवाज़ा खुलते ही दिग्विजय अंदर आता है — उसके चेहरे पर से जैसे हवाइयाँ उड़ गई थीं। वो सीधे टेबल की तरफ जाता है, फिर अचानक रुकता है और जेब से फोन निकालता है।
दिग्विजय (गुस्से में, फोन पर) “शमशेर ज़िंदा है! तुमने कहा था कि तुम सब कुछ संभाल लोगे।”
(एक पल की चुप्पी...)
“नहीं, मैं शक नहीं कर रहा तुम पर... लेकिन अब वो हमें सबूत भेज रहा है — हमारे ख़िलाफ़!”
“अगर तुमने जल्दी कुछ नहीं किया तो हम सब बर्बाद हो जाएंगे!”
फोन के उस पार से शायद कोई गुस्से में कुछ कहता है। दिग्विजय की आवाज़ धीमी हो जाती है।
दिग्विजय (आवाज़ धीमी, मगर डरी हुई)
“मुझे तुम पर भरोसा है... बस प्लीज़, जो करना है जल्दी करो, वरना सब बर्बाद हो जाएगा।”
फोन कट जाता है।
दिग्विजय गुस्से में बड़बड़ाता है, और फिर अचानक —
फोन उठाकर पूरी ताक़त से दीवार पर दे मारता है। फोन टूटकर, ज़मीन पर गिर जाता है। स्क्रीन के कांच के टुकड़े, पूरे फ़र्श पर बिखर जाते हैं।
कुछ देर तक वो वहीं खड़ा रहता है — जैसे उस दीवार को घूरकर अपनी बेबसी को कोस रहा हो। फिर गहरी सांस लेकर, एक झटके से बाहर निकल जाता है।
कमरे में फिर से वही सन्नाटा छा जाता है। पर्दे के पीछे से आरव बाहर आता है। उसका माथा पसीने से भीग चुका है, मगर आंखें अब सिर्फ़ डर से नहीं, ग़ुस्से और सच्चाई की तलाश से भरी हैं।
आरव (धीरे से, खुद से)
“अब कुछ करना ही होगा... बहुत हो चुका ये खेल।”
आरव का कमरा हल्की रोशनी में डूबा हुआ है। दीवार पर लगी घड़ी की टिक-टिक, और बाहर तेज़ हवाओं की आवाज़, वातावरण में एक अजीब सी बेचैनी घोल रही है। जैसे ही आरव अंदर दाख़िल हुआ, सामने का नज़ारा उसे चौंका देता है।
मीरा और सुहानी के बीच बहस चल रही होती है। मीरा की आंखों में गुस्सा, जबकि सुहानी शांत मगर दृढ़ खड़ी है।
बहस के बाद मीरा कमरे से निकल जाती है। उसके जाने के बाद, कमरे में सन्नाटा फ़ैल जाता है।
आरव कुछ देर वहीं खड़ा रहता है, फिर सुहानी की ओर आगे बढ़ता है। उसकी आंखों में हल्की सी कोमलता है, मगर वो खुद भी उलझा हुआ है।
आरव “मुझ पर भरोसा करो, सुहानी... जो मैं कर रहा हूँ, तुम्हें सुरक्षित रखने के लिए कर रहा हूँ।”
सुहानी कुछ नहीं कहती। उसकी पीठ आरव की ओर होती है। वो अलमारी में कुछ रख रही होती है—धीरे से, जैसे किसी डर को छुपा रही हो। आरव उसकी हलचल को गौर से देखता है, लेकिन कुछ पूछता नहीं।
देर रात सुहानी गहरी नींद में सो रही थी। उसका चेहरा थका हुआ लेकिन मासूम लग रहा है। आरव धीरे से वो अलमारी की ओर बढ़ता है और उसे खोलता है — वही जगह, जहां पहले सुहानी कुछ छुपा रही थी।
एक काले रंग की पेन ड्राइव उसके हाथ लगती है। वैसी ही पेन ड्राइव जैसी दिग्विजय के लॉकर में थी। आरव हैरान रह जाता है। ये सुहानी को कहाँ से मिली?
आरव उसे हाथ में लेते ही एक गहरी सांस लेता है, जैसे किसी राज़ को छू लिया हो। फिर वह अपना लैपटॉप उठाता है और अंदर दूसरे कमरे में जाता है, और बैठकर धीरे से पेन ड्राइव अपने लैपटॉप में लगाता है।
लैपटॉप की स्क्रीन जगमगा उठती है।
तीन फोल्डर्स सामने आते हैं:
‘Medical Documents’ | ‘Audio’ | ‘Video’
आरव सबसे पहले ‘Audio’ फोल्डर खोलता है। वही आवाज़ फिर गूंजती है — शमशेर राठौर के हर शब्द उसके अंदर कहीं जाकर चुभते है।
वो अगला फोल्डर खोलता है — ‘Video’ स्क्रीन पर एक पुराना तहखाना दिखता है। कमरा अंधेरा, दीवारें नमी से सड़ चुकी हैं….आरव चौक जाता है।
आरव (धीरे से, खुद से)
“अक्की...? ये नाम... मैंने कहीं सुना है... ये तो—”
वो धीरे से सुहानी की ओर देखता है — जो अब भी निश्चिंत सो रही है, बिल्कुल बेख़बर।
आरव “वो इसकी वजह नहीं... वो तो हमेशा से ही इस साज़िश का शिकार है।”
तभी— उसके दिमाग में एक ख्याल आता है। उसकी आंखों में चमक दौड़ती है।
आरव, अगर ये किसी को सुहानी के पास मिली तो वो मुश्किल में पड़ जायेगी और मैं ऐसा नहीं होने दे सकता। आख़िर इसे ये मिली कहाँ से। इसीलिए शायद आज इसने मेरा फ़ोन नहीं उठाया था। मैं इसे खुद को बार-बार यूँ खतरे में नहीं डालने दे सकता।
आरव अपने कमरे के ऑफिस में जाता है।
वो एक पुरानी घड़ी का बॉक्स निकालता है — जिसमें एक डुप्लीकेट pendrive छुपा सकते हैं। उसने ये घड़ी अपनी एक विदेश यात्रा पर खरीदी थी। ऐसा लग रहा है जैसे वो सालों से, अनजाने में आज की लड़ाई की तैयारियों में लगा हुआ था।
वो असली पेन ड्राइव को छुपा देता है लेकिन पहले उस ऑडियो का backup ले लेता है।
उस ऑडियो को एक दूसरे वैसी ही दिखने वाले पेन ड्राइव में डाल कर वो फिर उसे सावधानी से एक ऐसे पैकेट में रखता है, जिस पर लिखा है —
“To Be Delivered – Gauravi Rathore”
वो मुस्कुराता हुआ धीरे से कहता है,
“अब देखना ये खेल कैसे पलटता है…”
आखिर आरव क्या करना चाह रहा है?
कौन है अक्की, क्या वो ही है इन सबके पीछे?
अक्की का शमशेर और काजल से क्या रिश्ता है?
जानने के लिए पढ़ते रहिये, ‘रिश्तों का क़र्ज़।’
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