अगली सुबह हवेली की हवाओं में रात की रहस्यमयी कम्पन घुली हुई थी। दरवाज़ों की चरमराहट, परदों की धीमी सरसराहट और दीवारों पर मंडराती उदासी — कुछ अनकहा, अनदेखा लेकिन निश्चित बीती रात कुछ घटा हो, ऐसा संकेत दे रही थी।
हॉल की रोशनी अभी पूरी तरह जगमग नहीं थी, और नौकर-चाकर एक-दूसरे से नजरें चुराते हुए धीमे कदमों से चल रहे थे — जैसे डर उनकी पीठ पर सवार हो।
वहीं आरव के कमरे में हल्की-हल्की धूप छनकर खिड़की से आ रही थी। आरव नीचे ज़मीन पर बैठा था — पीठ सीधी, आँखें ज़मीन पर गड़ी हुईं, जैसे किसी विचार में डूबा हो। उसका चेहरा भावहीन था, लेकिन उसकी साँसों में एक बेचैनी थी, जो हर पल उसे भीतर से कुरेद रही थी। और सुहानी रात में हुई बगावत, आरव से हुई शिकायत, और इतना रोने के बाद थक कर आरव की बाहों में ही सो गई थी।
आरव की बेचैनी का कारण भी सुहानी का टूटा हुआ दिल था।
….तभी दरवाज़ा खुला।
एक नौकर हड़बड़ाता हुआ भीतर आया, पसीने से तर, आँखों में घबराहट।
नौकर डरी हुई आवाज़ में बोला “सर… तहख़ाना… खुला है…”
आरव की गर्दन झटके से ऊपर उठ गई।
आरव हैरान होकर पूछता है…."क्या कहा तुमने?"
"सुबह-सुबह… दिग्विजय साहब… स्टडी में गए थे… और कुछ देर बाद तहख़ाना खुलवाया गया। उन्होंने किसी को अंदर नहीं जाने दिया। सिर्फ़ खुद… बस चंद मिनटों के लिए गए थे… फिर वापस लौट कर ताला बंद कर दिया।"
आरव के माथे पर सिल्वटें पड़ गईं। वो तहखाना, जहां वो कभी गया नहीं, मगर वो जब भी खुला उसके अंदर की बेचैनी को बढ़ा गया।
आरव खुद से बड़बड़ाने लगता है, "अब क्यों…? और अचानक?"
“कैसा तहखाना आरव?” सुहानी, उस नौकर के आते ही सीधे उठकर बैठ जाती है।
आरव उठ खड़ा होता है…उसकी चाल में संदेह और जिज्ञासा साफ़ झलकती है, “तुम यहीं रहना, कहीं जाना मत।” इतना कहकर वो सुहानी को वहीं, उलझन में छोड़कर चला जाता है।
थोड़ी देर बाद आरव स्टडी के लॉक सिस्टम को खोलता है — वही फोटो फ्रेम, वही दीवार जो एक गुप्त दरवाज़ा बन जाती है। उसके कदम धीरे-धीरे तहख़ाने की सीढ़ियों पर पड़ते हैं। हर कदम के साथ ठंडक और घना अंधेरा उसे अपनी ओर खींचता है। टॉर्च की रोशनी में दीवारें पुराने ज़माने की फंगस और धूल से सनी हुई हैं। वो एक-एक कोना देखता है।
फिर मन ही मन कहता है, "यहाँ ऐसा क्या है… जो अब तक छिपा रहे हैं ये लोग?"
लेकिन चारों तरफ़ सन्नाटा—तहख़ाना पूरी तरह खाली। दीवारों पर कुछ पुरानी खरोंच, कुछ टूटे हुए फर्नीचर के टुकड़े, एक बुझा हुआ लैंप… और एक अजीब सी गंध।
आरव कुछ याद आने पर ठहर जाता है और धीरे से, कहता है, "यह वही जगह है… वही माहौल … ये उस वीडियो में दिखा तहख़ाना है।"
उसे याद आता है – वही वीडियो जिसमें दिग्विजय, गौरवी और एक तीसरा गुमनाम व्यक्ति, जिसका चेहरा नहीं बस पीठ दिख रही थी, खड़े थे… एक रहस्यमयी बातचीत के दौरान।
आरव की भौवों में सिलवटें आ जाती हैं। वो अब ध्यान से तहख़ाने की दीवारों और फर्श को देखने लगता है।
कोई गुप्त सुराग? कोई ताज़ा निशान? लेकिन कुछ नहीं।
और फिर…उसे लगता है जैसे वहाँ कुछ था।
कुछ तो… था।
“कोई यहाँ था… कुछ छुपा रहा था… या शायद किसी को…?”
वो थोड़ी देर और तहख़ाने के हर कोने की तलाशी लेता है, पर सब बेकार।
किसी के क़दमों की आवाज़ें सुनाई देती हैं तो, आरव सावधान हो जाता है। उसके चेहरे पर तनाव उभर आता है। वो कुछ और तलाशना चाहता है, लेकिन किसी के आने से पहले बाहर निकलने का फ़ैसला करता है।
वो एक आख़िरी बार पीछे मुड़कर उस अंधेरे तहख़ाने को देखता है।
“कुछ छुपा है यहाँ… और मैं उसे ज़रूर ढूंढ निकालूंगा…” वो सीढ़ियां चढ़कर बाहर निकल जाता है।
राठौर हवेली की ऊँची छतों के बीच, एक संकरी सीढ़ी की ओट में कोई परछाई सिमटी हुई थी।
सुहानी की परछाई….दीवार से लगी, सांस रोके खड़ी, उसकी आँखें आरव के हर कदम को महसूस कर रही थी, जो अभी तहख़ाने से बाहर आया था।
उसके माथे पर पसीने की बूँदें लुढ़क रही थीं, पर चेहरे पर जो लिखा था — वो डर नहीं था…हिम्मत थी।
जैसे ही आरव ने ऊपर की सीढ़ियों की ओर कदम बढ़ाए, सुहानी ने तेज़ी से पीछे मुड़कर अपने कमरे की ओर दौड़ लगाई।
रात का अंधेरा पर, सुहानी का कमरे में हल्की रोशनी थी, हवा में बेचैनी घुली हुई थी। दीवार पर लगी घड़ी की टिक-टिक उस रात के सन्नाटे में चाकू के वार जैसी लग रही थी। कमरे के बाहर फैले अंधेरे गलियारे में एक बॉडीगार्ड अब भी अपनी जगह पर खड़ा था, जिसे गौरवी ने वहां सुहानी पर नज़र रखने के लिए तैनात किया था। उस गार्ड की पलकें भारी हो रही थीं, सिर बार-बार झुक रहा था… मगर वो अब तक सोया नहीं था।
"बाहर नहीं जा सकती… लेकिन इस हवेली के अंदर जो दफ़न राज़ हैं… वो अब ज़िंदा किए बिना नहीं रहूंगी।"
सुहानी दर्पण के सामने खड़ी होकर अपने लंबे बाल कसकर बांधती है — जैसे जंग पर जाने से पहले योद्धा अपने सिर की पगड़ी कसता है।
छोटा-सा कंधे वाला बैग उठाती है — जिसमें एक छोटा टॉर्च, फोन (साइलेंट पर), पिन, पानी की बोतल, खाने के लिए कुछ एनर्जी बार, एक छोटा सा मेडिकल किट और एक फोल्ड किया हुआ स्कार्फ है।
वो अपने कमरे की बालकनी में आती है। उसकी नज़र दाईं ओर जाती है — जहाँ आरव का ऑफिस है और उससे सटा हुआ दिग्विजय का स्टडी रूम, जिससे तहख़ाना खुलता है।
दोनों बालकनियाँ — पास हैं, लेकिन दूर भी।
आरव किसी काम से देर रात तक बाहर है, तो वो रास्ते में तो नहीं आएगा।
सुहानी मन में ठान लेती है, “अगर बचपन में भाई के साथ सीखा हुआ वो करतब आज काम आ जाए… तो शायद मैं इस हवेली की सबसे काली गुत्थी को सुलझा पाऊं।”
वो बालकनी की रेलिंग पर चढ़ती है। नीचे झाँकती है — अंधेरा गहरा है, लेकिन हवा में भीगे पत्तों की महक और दूर किसी उल्लू की आवाज़ उस रात को और भी रहस्यमयी बना रही है। उसका दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा है। मगर…उसने दौड़ लगाई — और बालकनी से बालकनी की तरफ छलांग मार दी।
उसका पैर दूसरी ओर लगते ही थोड़ा फिसला, लेकिन उसने फुर्ती से रेलिंग पकड़ ली। उसके मुँह से एक हल्की सी सिसकारी निकली।
“शांत… सुहानी, शांत…” उसने खुद को समझाया।
वो धीरे-धीरे स्टडी की बालकनी तक सरकती है।
अंदर झाँकती है — दिग्विजय वहीं है, फाइल्स समेट रहा है। उसकी हरकतें तेज़ हैं, आँखों में तनाव। वो कुछ देर में कमरे का दरवाज़ा लॉक करता है और चला जाता है।
सुहानी, स्टडी के बालकनी के दरवाज़े तक जाती है पर, दरवाज़ा लॉक होता है।
वो बैग से एक पतली हेयरपिन निकालती है।
उसके होंठों पर एक हल्की सी मुस्कान आई — और अगले ही पल पूरा ध्यान ताले पर।
एक, दो… क्लिक! दरवाज़ा खुल गया।
“शुक्रिया भाई… आज तुम्हारा सिखाया ट्रिक काम आ गया।”
वो दबे पाँव अंदर दाख़िल होती है।
अब अगला कदम — उस तस्वीर तक पहुँचना है, जो तहख़ाने का रास्ता खोलती है।
कमरे में हल्का अंधेरा है। वह जानती है, किस दीवार पर वो पुरानी तस्वीर लगी है — वही, जिसके पीछे छुपा है तहख़ाने का गुप्त रास्ता। वो धीरे से हाथ बढ़ाकर तस्वीर को दबाती है।
“घ्र्र्र्र्र्र…”
दीवार सरकती है… और सामने एक सँकरी, अंधेरी सुरंग उभरती है।
सुहानी के चेहरे पर टॉर्च की रोशनी पड़ती है। उसकी साँसे धीमी, पर दिल की धड़कनें तेज़।
धीरे-धीरे वो तहख़ाने की सीढ़ियां उतरने लगती है…
हर कदम के साथ, एक राज़ और करीब आता जा रहा है।
नीचे एक ठंडा, सीलन भरा तहख़ाना है — दीवारों पर पुरानी रगड़ के निशान, फर्श पर टूटी लकड़ियां। वो हर कोने की जांच करती है।
"कुछ भी नहीं…"
उसकी आँखों में निराशा उतरती है।
तभी…
… वो वीडियो… वो रहस्यमयी आदमी…
“वो ऊपर से नहीं आया था… यहीं अंदर से किसी दरवाज़े से आया था… यानी यहाँ कोई और रास्ता भी है…”
वो तुरंत दीवारों पर हाथ फेरने लगती है। उँगलियाँ धूल से भर जाती हैं। ज़मीन पर घुटनों के बल बैठकर वो हर ईंट पर ध्यान देती है।
और तभी…उसका हाथ एक ढीली ईंट पर जाता है, जो गलती से दब जाती है।
“क्लिक!”
एक कोने में एक छोटा-सा दरवाज़ा धीरे से खुल जाता है।
सुहानी टॉर्च बंद करती है, बैग से एक चमकदार छोटी सुरक्षा स्टिक निकालती है — जिसे वो सेल्फ-डिफेंस के लिए साथ रखती थी।
वो स्टिक को हिलाकर जलाती है — हल्का नीला प्रकाश उस अंधेरे को चीरता है।
वो सिर झुकाकर उस दरवाज़े के भीतर प्रवेश करती है…एक नई, रहस्यमयी दुनिया में कदम रखते हुए — जहाँ अंधकार था, चुप्पी थी… और शायद एक अनसुना सच…
यह कोई साधारण तहख़ाना नहीं था — यह था एक जिंदा नरक, जहाँ इंसान की साँसे भी गिनती से चलती थीं….यह एक कैदखाना था।
सुहानी के हाथ में टॉर्च की मद्धम रोशनी कांप रही थी, जैसे उसकी अपनी हथेलियाँ डर से थरथरा रही हों। वो हर कदम फूँक-फूँक कर रख रही थी। दीवारों से टकराकर आती हवा सिसक रही थी… और अचानक…
“झ्र्र्र… झन झन…”
एक भारी ज़ंजीर की आवाज़ गूंजती है।
सुहानी ठिठक जाती है, उसका दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगता है।
उसके सामने… एक कोना… अँधेरे में ढका हुआ… वहां कुछ है। वो धीरे-धीरे आगे बढ़ती है।
टॉर्च की रोशनी जैसे जैसे पास जाती है… वो आकृति साफ़ होती जाती है।
एक इंसान।
घुटनों के बीच सिर छिपाए… बाल बेतरतीब… कपड़े फटे हुए… शरीर झुका हुआ, जैसे सालों की थकान और दर्द ने उसे जकड़ रखा हो।
सुहानी की साँसें थम जाती हैं, वो तुरंत अपने हाथों से होठों को दबा देती है, ताकि उसके मुँह से कोई चींख न निकल जाए।
कुछ देर बाद वो गौर करती है, कि वो इंसान भी उससे डरा हुआ है।
वो फुसफुसाती है — जैसे किसी घायल परिंदे से बात कर रही हो।
सुहानी (धीरे से) “sshhh… मैं तुम्हें कोई नुकसान नहीं पहुँचाऊँगी… प्लीज़… मैं मदद करने आई हूँ…”
वो इंसान थोड़ा पीछे और खिसक जाता है, मगर धीरे से वो अपना सिर उठाता है।
पहले एक आँख… फिर अधजला चेहरा… फिर पूरा चेहरा।
सुहानी की आँखें चौड़ी हो जाती हैं, उसके होंठ सूख जाते हैं।
"आरव…?" वो फुसफुसाती है।
पर नहीं…वो आरव नहीं था।
वो… कोई और था।
मगर चेहरा वही… बस ज़िंदगी से और भी ज़्यादा टूटा हुआ।
सुहानी कांपती आवाज़ में सवाल करती है, “तुम… तुम प्रणव हो ना? आरव के जुड़वाँ भाई?”
उस आदमी की आँखें सुहानी पर ठहर जाती हैं। उनमें पहचान की एक छोटी-सी चमक झलकती है… और फिर वो आँखें धीरे से भर आती हैं।
“आरव… ज़िंदा है…?”
उसकी आवाज़ में बर्फ की तरह जमी हुई पीड़ा थी। जैसे उसने ये सवाल हज़ार बार खुद से किया हो… मगर आज पहली बार किसी से पूछते वक़्त उसे आवाज़ दी हो।
सुहानी की आँखों से आँसू बहने लगते हैं, वो बिना एक पल गँवाए बैग से पानी की बोतल निकालती है, घुटनों पर बैठकर धीरे-से प्रणव के होंठों से लगाती है। वो पानी पीता है… बिलकुल एक डरे हुए बच्चे की तरह। उसके होंठ कांपते हैं, शरीर भी। उसकी उंगलियाँ बोतल से ऐसे लिपटी हैं, जैसे वो ज़िंदगी का आख़िरी सहारा हो।
प्रणव कहता है, “तो फिर… उसने मुझे कभी ढूंढा क्यों नहीं…?”
“क्योंकि… उसे नहीं पता… कि तुम ज़िंदा हो… किसी ने नहीं बताया… सबको यही लगा कि…”
वो खुद को संभाल नहीं पाती। घुटनों के बल बैठ जाती है। उसका चेहरा आंसुओं से भीग चुका होता है।
प्रणव की आँखों में आँसू नहीं… एक सन्नाटा है। जैसे रो-रोकर अब और आंसू नहीं बचे।
प्रणव — दीवार से पीठ टिकाए बैठा था। उसकी आँखें थकी हुई थीं, मगर उनमें दर्द अब भी ज़िंदा था। आधा चेहरा झुलसा हुआ, आँखों के नीचे काले गड्ढे, होंठ सूखे हुए। जैसे इंसान कम, ज़िंदा लाश हो।
सुहानी अब उसके पास बैठी थी, उसका चेहरा देखते हुए, जैसे वो एक टूटी हुई किताब को पढ़ने की कोशिश कर रही हो। उसकी आँखों से आँसू चुपचाप टपक रहे थे — हर बूंद में एक सवाल, एक अफ़सोस।
ये इतने सालों से यहां बंद है? उसका मन ये सवाल बार बार दोहरा रहा था।
प्रणव रुंधे स्वर में पूछता है, “…पापा ज़िंदा हैं?”
“हाँ… शमशेर अंकल ज़िंदा हैं। उन्होंने मेरी माँ को भी बचाया था… काजल आंटी को।”
“माँ… काजल आंटी?”
“हाँ… मैं उनकी बेटी हूँ, सुहानी।”
एक पल के लिए प्रणव की आँखों में चमक सी उभरी, जैसे अंधेरे में कोई दिया जल उठा हो। लेकिन वो बहुत जल्दी बुझ गया।
“वो… वो मुझे मारना चाहते थे… उन्होंने ही मुझे यहां फेंका…मेरा चेहरा उस एक्सीडेंट में झुलस गया था… मैं चिल्लाता रहा… मगर कोई नहीं आया… और… रणवीर अंकल… उन्होंने ही कहा था — ‘अब तू भूल जा कि तेरा कोई परिवार है।’”
“रणवीर… अंकल…?”
“वो ही थे असली राक्षस। उन्होंने ही मेरी मां की मौत की साजिश रची… पापा को गिराया… मुझे मिटा देना चाहा। उन्होंने कहा था — ये विरासत का खेल है, और मैं सिर्फ एक अड़चन हूँ।”
“…इसीलिए दिग्विजय और गौरवी भी उनसे डरते हैं।”
प्रणव सिसकते हुए बोलता है, “डरते हैं? वो उनके गुलाम हैं! सब रणवीर की उँगलियों पर नाचते हैं। वो जो कहता है… वही आखिरी सच होता है।”
सुहानी अब काँप रही थी। दिल दहशत से जकड़ा जा रहा था।
“…तो… उस वीडियो में… जो आदमी था…”
सुहानी का दिल बैठ गया।
प्रणव अचानक सिसकने लगा, उसके आंसू अब थम नहीं रहे थे। वो अपने घुटनों में मुंह छिपाकर कांपने लगा।
“हम तुम्हें बाहर निकालेंगे। वादा है मेरा….अब तुम अकेले नहीं हो।”
“तुम भी वैसा ही सोचती हो, जैसा मैं कभी सोचा करता था… कि कोई आएगा… मुझे बचाएगा… पर यहाँ सिर्फ मौत आती है।”
“नहीं प्रणव। इस बार सिर्फ ये बातें नहीं हैं… मैं आई हूँ। और मैं किसी को भी तुम्हारा यह हाल करने नहीं दूंगी। तुम्हारे भाई को, तुम्हारे पापा को तुम्हारे ज़िंदा होने का पता चलेगा… और इस बार… सज़ा उन्हें मिलेगी, जिन्होंने कई जिंदगियां बर्बाद कर दी, ख़ास कर तुम्हारी।”
“मगर… मेरे पापा… उन्होंने तो…”
“नहीं। शमशेर अंकल ज़िंदा हैं। वो खुद छुपकर इन सब का पर्दाफाश करने में लगे हैं। और मेरी माँ… काजल… वो भी ज़िंदा हैं। उन्होंने तुम्हें मरा हुआ मान लिया था… मगर अब… अब सब बदलेगा।”
“आरव… आरव को भी मारना चाहते थे वो लोग…”प्रणव रूककर बोलता है
“हाँ, मगर वो ज़िंदा है और वो भी इस सच की तह तक पहुँचने की कोशिश कर रहा है… अपने तरीके से।”
“रणवीर…? उसने कहा था कि कोई मेरा नाम तक नहीं लेगा… तुम उसे अपना ‘अंकल’ कैसे कह सकती हो?”
“वो… वो हमारी मदद करने का नाटक कर रहे थे।”
“वो फिर से चाल चल रहा है। वो तुम्हें भी मोहरा बना रहा है। मैं उसे जानता हूँ… वो किसी के लिए कुछ नहीं करता… सिर्फ अपने लिए।”
“मगर अब मैं सच को जानती हूँ। तुम फिक्र मत करो, ये सच सबके सामने आकर रहेगा।”
आखिर कब से कैद है प्रणव तहखाने में?
क्या सच में रणवीर है इन सबके पीछे या फिर ये कोई ग़लतफहमी है?
क्या सुहानी आरव को अपने भाई से मिलवा पायेगी?
आगे की कहानी जानने के लिए, पढ़ते रहिये ‘रिश्तों का क़र्ज़।’
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