सुहानी को इतनी बातें सुनाने के बाद तो आरव का मन खुद बेचैन हो गया था।

तो ये मान लेना कि सुहानी को कोई फर्क ही नहीं पड़ा — थोड़ा मुश्किल था आरव के लिए। उसकी चुप्पी में एक अजीब सी स्थिरता थी, मगर साथ ही एक गूंजती हुई तकलीफ़ भी, जो आरव को भीतर तक छू गई थी।

वो चाहती तो कुछ कह सकती थी। उस पर चिल्ला सकती थी, उसे ताना मार सकती थी, उसके सवालों का जवाब उसकी ही भाषा में दे सकती थी। मगर नहीं — वो चुप रही। बस उसकी आंखों में कुछ कह न सकने की बेबसी और थकी हुई उदासी तैरती रही।

आरव के अंदर कुछ काँप उठा।

वो चाहता था कि सुहानी गुस्से में फट पड़े, चीखे, झगड़े, उस पर इल्ज़ाम लगाए... ताकि उसे भी कुछ कहने का हक मिले, ताकि उस दूरी को किसी बहाने से काटा जा सके। मगर जब वो कुछ नहीं बोली, तो उसकी ये चुप्पी आरव को भीतर तक तोड़ने लगी।

क्यों?

वो खुद से यही सवाल करता रहा — “मैं क्यों चाहता हूँ कि वो बोले? क्यों चाहता हूँ कि वो अपना मन मुझ पर हल्का करे? जब मैं उससे नफ़रत करता हूँ... तो फिर ये अजीब सा खालीपन क्यों महसूस होता है जब वो चुप हो जाती है?”

आरव ने नज़रें फेर लीं, लेकिन वो बेचैनी उसके चेहरे पर साफ झलक रही थी। अपने ही सवालों में उलझा हुआ, खुद से ही लड़ता हुआ वो अब खुद को समझा नहीं पा रहा था। उसने एक गहरी सांस ली, जैसे अपने भीतर उठ रहे तूफान को थामने की नाकाम कोशिश कर रहा हो।

मगर दिल की ये लड़ाई आसान नहीं थी — खासकर तब, जब सामने खड़ी लड़की की ख़ामोशी उसकी नफ़रत से ज़्यादा असर कर रही थी। मगर फिर भी वो खुद को रोक ना सका। दिल में उमड़ता गुस्सा, जलन और अंदर ही अंदर उठती बेचैनी अब हद पार कर चुकी थी। वो एक कदम आगे बढ़ा, उसकी आँखों में चुभती हुई नाराज़गी थी — मगर उसके लहजे में कहीं एक टूटी हुई उम्मीद भी छुपी हुई थी, जिसे वो खुद भी पहचानने से इनकार कर रहा था।

“विक्रम से तो बड़ी आसानी से नज़रें मिला कर बात कर लेती हो तुम...”

उसने ताना मारते हुए कहा, उसकी आवाज़ काँप रही थी, “मेरे सवालों के जवाब देने में तो जैसे मौत आ रही है तुम्हें!”

सुहानी सन्न खड़ी रही, उसकी पलकों की कोरें हल्का-सा फड़कीं, मगर उसने अभी भी कुछ नहीं कहा। आरव की आँखों में अब घुलता दर्द और ज़्यादा ज़हरीला हो गया था।

“अजीब बेशरम लड़की हो तुम...” उसने और करीब आकर कहा, हर शब्द तलवार बन कर उसके ज़ख़्मों को छील रहा था, “पत्नी होने का दावा करती हो... कहती हो कि मुझ से प्यार करती हो…मेरे ही कमरे में... मेरे ही बिस्तर पर सोती हो, ये जानने के बाद भी कि मैं तुम्हें अपनी पत्नी नहीं मानता...”

आरव अब एक पल को रुका, जैसे सांस लेने की कोशिश कर रहा हो, मगर वो रुक नहीं सका। उसकी नज़रों में आहत प्रेम और बेइंतिहा ग़लतफ़हमी का तूफान उबाल खा रहा था।

“और फिर सुबह-सुबह सबकी नज़रों से बचकर... अपने आशिक से पार्क में मिलने जाती हो?”

उसके लफ्ज़ अब सीधे वार कर रहे थे।

“शर्म नहीं आती तुम्हें?”

उसके शब्दों का ज़हर सुहानी की रग-रग में उतर गया, मगर उसने फिर भी कुछ नहीं कहा। उसकी आँखों में नमी उतर आई, होंठ कांपने लगे, मगर वो फिर भी अपनी गरिमा में खड़ी रही — जैसे अपनी सफाई को भी एक तरह की हार मानती हो। और शायद, यही खामोशी आरव को सबसे ज़्यादा बेचैन कर रही थी।

सुहानी ने आरव की तीखी, तानों से भरी बातों को कुछ देर चुपचाप सहा। उसकी आँखों में कुछ पल के लिए तकलीफ़ और पीड़ा उभरी, मगर फिर उसने गहरी साँस ली। धीरे से सिर उठाया और सीधी नज़र आरव की आँखों में डाल दी — न कोई गुस्सा, न कोई झिझक... बस एक शांत, सधा हुआ लहजा।

“मुझे नहीं पता कि आप ये सारी कड़वी बातें मुझ से क्यों कह रहे हैं?”

उसके स्वर बेहद शांत थे, लेकिन हर शब्द सीधा दिल तक जाता था।

“आपको मुझ से चाहे जितनी नफरत करनी हो, कीजिए... लेकिन मेरे प्यार पर सवाल मत उठाइए। और रही बात विक्रम की... तो हाँ, वो बचपन से मेरा दोस्त रहा है। और अगर वो मुझे पसंद करता था, तो वो उसकी फीलिंग्स थी — मेरी नहीं।”

अब उसकी आँखों में दृढ़ता थी, “मैंने कभी, एक पल के लिए भी, उसे एक दोस्त से ज़्यादा नहीं देखा। मेरे मन में उसके लिए कोई और भावना कभी थी ही नहीं।”

आरव कुछ कहने को हुआ, लेकिन सुहानी ने हल्के से हाथ उठा कर उसे रोक दिया।

“मैं तो जानती तक नहीं थी कि वो मेरे लिए क्या महसूस करता था। और अब, अगर आप सुनना चाहते हैं सच — तो सुन लीजिए, अब वो दोस्ती भी खत्म हो चुकी है। क्योंकि वो उसी रणवीर के साथ मिला हुआ है... जो मेरी ज़िंदगी की सबसे बड़ी साज़िशों में शामिल है।”

उसकी आँखें एक पल को नम हो गईं, लेकिन उसने अपनी आवाज़ में कंपकंपी नहीं आने दी।

“जिसके लिए मैं विक्रम को कभी माफ नहीं कर पाऊँगी।”

फिर उस ने एक पल को रुक कर थोड़ा आगे झुक कर कहा, “आपको हमारे बीच के रिश्ते से जलने की कोई ज़रूरत नहीं है।”

वो अब सीधी खड़ी हो गई थी, जैसे आरव की नज़रों के सामने उसका आत्म-सम्मान दीवार बन कर खड़ा हो गया था। “आपने खुद कहा था कि आप मुझ से बात नहीं करना चाहते। तो मत करिए... प्लीज मत करिए। मैं भी आप से उतनी ही दूरी बनाए रखूँगी, जितनी बना सकती हूँ। आपको परेशान नहीं करूँगी... बस आप अपना ख्याल रखिए।”

और फिर एक हल्की रुकावट के बाद, जैसे दिल भारी हो चला हो, वो धीमे स्वर में बोली— “अब अगर आपकी ये कड़वी बातों का सिलसिला ख़तम हो गया हो तो... तो क्या मैं जा सकती हूँ?”

उसके आखिरी शब्दों में वो तकलीफ़ छुपी हुई थी जो एक टूटे हुए दिल को तब होती है जब वो बार-बार खुद को सही साबित करने की कोशिश करता है, और फिर भी शक की आग में जलता रहता है।

सुहानी की बातें जैसे आरव के दिल के आर-पार उतर गई थीं। हर शब्द—शांत मगर मजबूत, टूटे हुए मगर झुके नहीं—उसे भीतर तक हिला गया।वो कुछ कहने के लिए अपने लब खोलना चाहता था, पर कुछ निकला ही नहीं। उसकी ज़ुबान जैसे सुन्न हो गई थी और दिमाग़ खाली। पहली बार ऐसा हुआ था कि सुहानी ने ना कोई इल्ज़ाम लगाया, ना कोई शिकायत की, बस सच्चाई रख दी—साफ़, सधी हुई और पूरी गरिमा के साथ।

आरव बस उसे देखता रह गया—उसकी आँखें, उसकी आवाज़, उसकी मजबूती... हर चीज़ उसे चुप करा गई। सुहानी बिना एक पल रुके, उसके बगल से गुज़री। न कोई गुस्सा, न कोई ताना, बस एक सुकून भरी चुप्पी में लिपटी हुई गरिमा।

आरव के कंधे से हल्की हवा सी टकराई, जैसे उसका अंतर्मन खुद से कुछ कहने लगा हो—"तुम ने क्या कर दिया..."

वो बस उसे जाते हुए देखता रहा। सुहानी के कदम जैसे हर उस इल्ज़ाम को पीछे छोड़ते जा रहे थे, जो आरव ने उस पर लगाए थे। और फिर… दरवाज़ा धीरे से बंद हो गया।

आरव अब भी वहीं खड़ा था। हवा एकदम ठहर गई थी, और समय जैसे थम सा गया था। उसके सीने में एक अजीब सी बेचैनी थी। जैसे उस पर कोई भारी पत्थर रख दिया गया हो।

वो सुहानी को हरा नहीं पाया था... उल्टा खुद ही खुद से हार गया था। उसकी उँगलियाँ मुट्ठी में तब्दील हो गईं, और नज़रें नीचे झुक गईं थी।

“क्यों नहीं समझ पा रहा हूँ मैं उसे?” उस के मन में सवाल उठने लगे।

“क्या वो सच में...?”

और फिर वो सोच अधूरी ही रह गई।

सुहानी जा चुकी थी। मगर उसकी कही हुई बातें, आरव के भीतर कहीं गूंज रही थीं—जैसे हर लफ़्ज़ एक सज़ा बनकर उसे काट रही हो।

आरव वहीं खड़ा था, सुहानी के पीछे बंद हुए दरवाज़े को एकटक देखता हुआ। उसकी आँखों में हल्की जलन थी, दिल की धड़कनें तेज़ थीं, और दिमाग़—वो जैसे अब भी सुहानी की हर बात दोहरा रहा था।

मगर तभी, जैसे अपने ही भीतर उठते भावों से लड़ने के लिए, उसने खुद से झुंझलाहट में फुसफुसाना शुरू कर दिया— “नहीं... ये सब झूठ था। सब नाटक कर रही थी, वोबहुत स्मार्ट बनती है। सब सही कहते हैं इस के बारे में—मैनिपुलेटिव है ये लड़की।”

उसका लहज़ा जैसे खुद को यकीन दिलाने की कोशिश कर रहा था, जैसे खुद के अंदर उठती सच्चाई की आवाज़ को दबाना चाहता हो।

“बाई गॉड... कोई भी इस की बातों में आ सकता है। अगर मुझे पहले से इसकी असलियत पता ना होती, तो शायद मैं भी बहक जाता… मैं भी यकीन कर लेता इस झूठे प्यार पर।”

उसने ज़ोर से अपनी मुट्ठी भींची, जैसे सुहानी की कही हर बात को दबोच कर फेंक देना चाहता हो।

“ये झूठी है... चालक है… बहुत अच्छे से खेलना आता है इसे। इस से संभल कर रहना होगा। बिल्कुल सतर्क रहना होगा इस से…।”

उसकी आँखों में अब फिर से कठोरता लौटने लगी थी, मगर वो आंखें भीतर के उस तूफान को नहीं छुपा पा रही थीं, जो सुहानी की सच्चाई और अपनी नफरत के बीच टकरा रहा था।

आरव ने एक लंबी सांस ली, जैसे कोई एहसास दबाने की कोशिश कर रहा हो—अफसोस को, उलझन को… या शायद कुछ और गहरा।

और फिर बिना पीछे देखे, वो भी ऑफिस के अंदर चला गया—अपने चेहरे पर वही पुराना कठोर नकाब ओढ़े, मगर दिल में सुहानी की कही बातों की गूंज लिए।

दिन भर ऑफिस का माहौल व्यस्त और तेज़ रफ्तार पर चलता रहा। मीटिंग्स की भरमार थी, पावरपॉइंट प्रेज़ेंटेशन, क्लाइंट कॉल्स, और पॉलिसी डिस्कशन्स के बीच हर कोई अपनी भूमिका में व्यस्त था। लेकिन इन सब के बीच एक अजीब-सी खामोशी भी थी—एक अनकहा तनाव जो सिर्फ दो लोगों के बीच मौजूद था—आरव और सुहानी।

वे दोनों साथ थे—एक ही टीम में, एक ही टेबल पर, मगर जैसे दो अलग-अलग दुनिया से आए हों। ना कोई सीधा संवाद, ना कोई नज़र मिलना। जब एक बोलता, दूसरा चुप रहता। जब एक कमरे में दाख़िल होता, दूसरा अनजाने में ही पीछे हट जाता। उनकी आँखों में जितनी कहानियाँ थीं, उतनी ही सावधानियाँ भी।

आरव हर मीटिंग में अपनी जगह पर बैठता, मगर उसका ध्यान बार-बार सुहानी की ओर चला जाता। वह खुद को रोकता रहा, जैसे भीतर से कोई कह रहा हो—“मत देखो उसे, ये कमज़ोरी है तुम्हारी।” मगर इंसान की आँखें कहाँ मानती हैं? जब भी सुहानी सामने होती, आरव का दिल ज़ोर से धड़क उठता। उसके लिये ये मानना मुश्किल हो रहा था कि यह वही लड़की है, जिससे वह कभी सिर्फ बदला लेना चाहता था, अब उसके दिल के सन्नाटे में धीरे-धीरे गूंज बढती जा रही थी।

दूसरी ओर सुहानी थी—बिल्कुल शांत, मगर भीतर से उलझनों से घिरी हुई थी। वह, आरव से नज़रें नहीं मिलाना चाहती थी। आरव की मौजूदगी से उसे एक बेचैनी होने लगती थी, जिसे वह शब्दों में नहीं बयां कर सकती थी। मगर इस सब के बावजूद, वह हर बार उसके असिस्टेंट से धीरे से पूछ लेती— “सर की तबीयत कैसी है आज?”

हर बार जवाब मिलता—“थोड़े थके हुए लग रहे हैं, मगर काम पर फोकस है उनका आज।”

वह बस हल्के से सिर हिला देती, बिना कुछ और पूछे, बिना जताए कि उसकी फिक्र है उसे। क्योंकि वो जानती थी—अब उनके बीच का रिश्ता इतना सरल नहीं रहा कि चिंता भी खुलेआम जताई जा सके।

आरव ने भी उसकी इस चुपचाप फिक्र को महसूस किया। मगर वह भी कुछ नहीं कह पाया। ना "धन्यवाद", ना ही कोई भावनात्मक प्रतिक्रिया। जैसे दोनों के बीच कोई अदृश्य दीवार खड़ी थी, जो हर जज़्बात को रोक रही थी।

दोपहर के बाद की एक मीटिंग में जब उनकी कुर्सियाँ पास-पास थीं, तब भी वे दोनों एक-दूसरे से मुंह मोड़ कर बैठे थे। एक ही लैपटॉप स्क्रीन पर कुछ समझाते हुए भी उनके हाथ अलग-अलग कोनों पर टिके हुए थे—जैसे छू जाने से कोई ज्वालामुखी फूट जाएगी।

 

आगे की कहानी जानने के लिए पढ़ते रहिये, रिश्तों का क़र्ज़।

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