दोपहर की मीटिंग का माहौल सजीव और औपचारिक था। बड़े कॉन्फ्रेंस रूम में एक लंबा टेबल, उसके चारों ओर सजे गंभीर चेहरे, लैपटॉप्स की टाइपिंग की आवाज़ें और सामने लगी स्क्रीन पर प्रोजेक्शन का हल्का सा उजाला। सभी को लगा कि ये भी एक आम मीटिंग होगी—कुछ आंकड़े, कुछ प्लान्स, और फिर वही रूटीन की सराहना या आलोचना।
मगर जैसे ही सुहानी मंच पर खड़ी हुई, हवा का रुख बदल गया। उसके चेहरे पर गंभीरता थी, मगर आंखों में कुछ अलग चमक थी—जैसे उसके भीतर कोई आग सुलग रही हो, कोई अधूरा सपना बोलने को तैयार हो।
“नमस्ते, आज मैं जो कुछ आपके सामने रख रही हूँ, वो सिर्फ एक प्रेज़ेंटेशन नहीं है... ये एक मक़सद है।”
उसके शब्दों में आत्मविश्वास था, और आवाज़ में एक ऐसी दृढ़ता, जो सीधे दिल को छूती थी।
“अब तक राठौर परिवार ने जितना भी अर्जित किया है, उसका एक हिस्सा उन लोगों की ओर जाना चाहिए, जिनके पास कुछ भी नहीं है। हम क्यों न उस धन का इस्तेमाल उन जगहों के लिए करें, जहाँ इलाज आज भी एक सपना है? जहाँ एम्बुलेंस से ज़्यादा अर्थियाँ पहुँचती हैं? हमें अस्पताल बनाने होंगे—ऐसे अस्पताल जहाँ सिर्फ मशीनें नहीं, इंसानियत काम करे। जहाँ सिर्फ इलाज नहीं, उम्मीद भी दी जाए।”
पूरे हॉल में सन्नाटा था। लोग स्क्रीन से ज़्यादा अब उसकी आँखों में देख रहे थे।
“और ये ही नहीं, हमें orphanages अपनाने चाहिए—वो जगह जहाँ ऐसे बच्चे रहते हैं जिन्हें समाज ने ठुकरा दिया है। जिनके लिए कोई ममता की गोद नहीं, कोई सहारा नहीं। हम उन्हें सिर्फ खाना नहीं, शिक्षा और आत्मसम्मान भी दिला सकते हैं।”
फिर वह रुकी, गहरी सांस ली, और आगे बोली— “हम ऐसी संस्थाएं बनाएं जो एसिड अटैक सर्वाइवर्स, रेप विक्टिम्स, और ट्रांसजेंडर समुदाय को न केवल शरण दें, बल्कि रोज़गार और इज़्ज़त भी। जहाँ उन्हें वो ज़िंदगी मिले, जो समाज ने उनसे छीन ली थी। जहाँ उनके ज़ख्मों का इलाज सिर्फ दवाओं से नहीं, अपनेपन से हो।”
स्लाइड्स बदल रही थीं। हर स्लाइड में कोई बच्चा मुस्कुरा रहा था, कोई औरत नए सिरे से जी रही थी, कोई ट्रांसजेंडर अपने हुनर से सबका दिल जीत रहा था। कमरे की हवा भारी होती जा रही थी, किसी की आँखें नम हो चुकी थीं।
“और हम स्कूल खोलें, उन बच्चों के लिए, जो गरीबी की वजह से स्कूल नहीं जा पाते। हम उनके माता-पिता को रोज़गार दें, ताकि वे अपने बच्चों को शिक्षा से वंचित न रखें। हमें पढ़ाई को मजबूरी नहीं, अधिकार बनाना होगा।”
फिर, सुहानी ने स्क्रीन की ओर नहीं, सामने बैठे लोगों की आंखों में देखा।
“मैं जानती हूँ, ये सब करना आसान नहीं होगा। मगर शुरुआत में देर नहीं होनी चाहिए। अगर आज हम एक नींव रख दें... तो कल एक बेहतर समाज बन सकता है। शायद धीरे-धीरे, मगर यक़ीनन।”
एक पल को सन्नाटा छा गया। जैसे पूरा हॉल उसकी कही बातों को भीतर तक महसूस कर रहा हो। कोई कुछ नहीं बोला, सब कुछ जैसे रुक सा गया हो। और फिर…तालियों की गूंज ने खामोशी को तोड़ा।
पहले एक ने ताली बजाई, फिर दूसरा, फिर पूरा हॉल तालियों से गूंज उठा। हर चेहरा स्तब्ध था, हर नज़र बस उसी एक लड़की पर टिकी थी जिसने शब्दों के ज़रिए एक सपने को जगा दिया था। पूरा हॉल तालियों से गूंज तहा था। लोग खड़े हो गए थे—कोई बॉस, कोई क्लाइंट, कोई स्टाफ—मगर उस पल सब बराबर थे। सब बस एक इंसान की सच्चाई, संवेदनशीलता और विज़न को सलाम कर रहे थे।
सुहानी थोड़ी घबरा गईं, इतनी भावुक प्रतिक्रिया की उम्मीद नहीं थी उसे। मगर फिर, दिनों बाद उसके चेहरे पर एक मुस्कान आई—एक सच्ची, दिल से निकली मुस्कान।
उस मुस्कान में आत्मविश्वास भी था और संतोष भी। वो मुस्कान नहीं, जैसे एक संकल्प था।
ऐसा स्वागत अपने विचारों को लेकर उसने सोचा नहीं था। पल भर को उसकी आँखें झपकीं, जैसे ये सब कोई सपना हो। उसके चेहरे पर वो मुस्कान उभरी—नर्म, सच्ची, और आत्मा से निकली हुई। वो मुस्कान जो बहुत दिनों से कहीं खो गई थी, ज़िम्मेदारियों और दर्द के बोझ तले दब गई थी। आज जैसे किसी ने उसे फिर से ज़िंदा कर दिया हो।
और भीड़ के एक कोने में जहाँ आरव बैठा था—वह बिल्कुल स्थिर था। जैसे उसकी साँसें थम गई हों। सुहानी को यूँ सबके सामने इस तरह बोलते देख, उसका दिल ज़ोरों से धड़कने लगा था। उस में कुछ जाग रहा था—कुछ ऐसा जिसे वह वर्षों से दबाता आया था। आरव की साँसें तेज़ थीं, दिल बेकाबू धड़क रहा था। वो पल उसे हिला गया—उसके भीतर कुछ बिखर गया था।
कई सालों से उसने लोगों को डरते, झुकते और बिकते देखा था। मगर आज पहली बार किसी को सामने खड़े होकर ज़रूरत मंदों के हक़ के लिए इस तरह से बोलते हुए देखा है। और वो भी वही लड़की, जिससे वह दूर रहना चाहता था... मगर अब शायद बहुत देर हो चुकी थी।
सुहानी की आवाज़, उसकी आँखों की चमक, उसकी बातों में वो करुणा और संकल्प… आरव के भीतर कहीं गहराई में कुछ दरक गया था। वो लड़की जिसे वह सिर्फ बदले का जरिया समझता था, आज उसे उस पर गर्व करने का मन हो रहा था। और ये एहसास उसे अंदर ही अंदर तोड़ रहा था।
वो खुद को रोकना चाह रहा था—बहुत चाह रहा था। उस की मुठ्ठियाँ बंधने लगीं, नजरें नीचे झुक गईं, जैसे अपने भीतर उठते तूफान को काबू में लाने की कोशिश कर रहा हो।
मगर नहीं… अब देर हो चुकी थी। उसके दिल ने सुहानी की सच्चाई को पहचान लिया था। और जब दिल किसी की सच्चाई से छू जाता है, तब चाह कर भी कुछ पहले जैसा नहीं रहता।
और तभी, हॉल के एक कोने से किसी ने घबराई हुई आवाज़ में कहा— “सुहानी! तुम्हारे सिर से खून निकल रहा है!”
पल भर में जैसे पूरी मीटिंग रुक गई। सबकी नज़रें फौरन सुहानी की तरफ घूम गईं। और सुहानी…वो तो बस शांत खड़ी थी, जैसे ये किसी और की बात हो। हाथ धीमे से सिर पर ले गई, और जब उंगलियों पर हल्का-सा खून लगा देखा, तो वो ज़रा-सी मुस्कुराई।
पास रखे टिशू उठाए और धीरे से, बहुत ही सहज अंदाज़ में कहा—“ध्यान नहीं रहा... दीवार से टकरा गई थी शायद। थैंक यू बताने के लिए।”
"काम में इतना खो जाना भी ठीक बात नहीं है!" किसी ने मज़ाक में कहा।
किसी ने टिशू आगे बढ़ाए, किसी ने उसके जज़्बे की तारीफ़ की। मगर आरव... वो सबके बीच होते हुए भी अकेला हो गया था। उसकी धड़कनें तेज़ होने लगीं। सुहानी के सिर की उस चोट को देख कर जैसे किसी ने उसके सीने पर हाथ रख दिया हो।
उसे याद आई... सुबह की वो छोटी-सी बहस। वो गुस्से में था, सुहानी ने कुछ कहा था। और उसने… अनजाने मे एक हल्का सा धक्का दिया था, शायद दीवार से जा टकराई थी वो। उसे तो लगा था कुछ नहीं हुआ होगा… मगर अब… अब वो निशान बता रहा था कि बात उतनी हल्की भी नहीं थी।
आरव की आँखों के सामने सुहानी का वो शांत चेहरा घूम गया—जो दर्द में भी मुस्कुरा रहा था, जो अपनी चोट को भी एक मज़ाक की तरह टाल रहा था… या शायद छुपा रहा था, सिर्फ इसलिए कि कोई और असहज न हो, उसके काम के आलावा उस पर ज़्यादा कोई अपना attention ना दे।
अब वो नज़रें जो अभी कुछ देर पहले तक उसकी मुस्कान पर टिकी थीं, अचानक एक अलग ही एहसास से भर गईं—अफ़सोस, अपराधबोध और दर्द की चुप्पी से।
आरव की मुट्ठियाँ कस गईं। खुद से नज़रें मिलाना मुश्किल हो गया था, उसके लिए। और सुहानी… वो अब भी उसी तरह खड़ी थी—खून साफ करते हुए, मुस्कराते हुए—जैसे कुछ हुआ ही न हो। मगर आरव जान चुका था… कुछ हो चुका था। और शायद… बहुत गहरा।
मीटिंग खत्म होते ही हॉल धीरे-धीरे खाली होने लगा। कागज़ों की आवाज़, कुर्सियों की खटपट, हल्की-फुल्की बातचीत… सब धीरे-धीरे बाहर चले गए।सुहानी भी चुपचाप फाइल समेटती हुई उठी, जैसे हमेशा की तरह खुद को सबसे पीछे रख कर बाहर निकल जाना उसका नियम बन गया हो।
मगर तभी…आरव अचानक अपनी जगह से उठा और दो कदम में उसके सामने आ खड़ा हुआ। उसका रास्ता रोक लिया।
“तुम ने बताया क्यों नहीं, कि इतनी चोट लगी है तुम्हें?”
उसकी आवाज़ धीमी थी, मगर उस में एक सख्त तड़प थी—एक अनकहा अफ़सोस, और शायद… माफ़ी का पहला स्पर्श। सुहानी कुछ पल उसे देखती रही। फिर उसकी आँखों में वही तीखा कटाक्ष लौट आया, जिसकी वजह शायद आरव ही था।
“क्योंकि आप इसे भी नाटक ही कहते, है ना?”
उसके स्वर अब तक शांत थे, मगर उसमें जो कसक थी, वो सीधे आरव के दिल पर लगी।
"अब प्लीज़ मुझे जाने दीजिए।" वह पलटी, चलने ही वाली थी।
“नहीं।”
आरव की आवाज़ आई—कम शब्द, मगर पूरी दीवार बन कर खड़ी हो गई। सुहानी रुक गई।
"मतलब?" उस ने पलट कर पूछा, आँखों में गुस्सा और आहत से भरा आत्मसम्मान साफ़ झलक रहा था।
आरव ने कोई जवाब नहीं दिया। बस उसका हाथ थाम लिया—बहुत हल्के से, मगर दृढ़ता से। और बिना उसकी इजाज़त मांगे, उसे फिर से कुर्सी पर बैठा दिया। फिर खुद इंटरकॉम उठाया।
“कांफ्रेंस रूम में फर्स्ट ऐड बॉक्स भेजो, फौरन।”
सुहानी ने हाथ छुड़ाने की हल्की कोशिश की। “आरव, इसकी कोई ज़रूरत नहीं है। मैं ठीक हूं।”
मगर वो नहीं माना। बल्कि एक पल उसकी ओर देखा और धीरे से… अपनी ऊँगली होठों पर ले जाकर ‘Ssshh…’ का इशारा किया। वो नर्मी जो पहले कभी नहीं दिखी थी, अब हर शब्द में थी।
“अब तुम्हारी नहीं, मेरी चलेगी।”
ये कोई आदेश नहीं था, ये एक ज़िम्मेदारी का ऐलान था—कहीं खुद से, कहीं उस अधूरी कशिश से जो हर बार उन के बीच अधूरी ही रह जाती थी। और सुहानी…वो बस चुप रही। शायद पहली बार आरव के इस बदलते रंग को पढ़ने की कोशिश कर रही थी। या शायद… खुद उससे लड़ते-लड़ते थक चुकी थी।
फर्स्ट ऐड बॉक्स थोड़ी ही देर में आ गया। आरव ने खुद ही उसे खोला। उसके हाथों में अब गुस्सा नहीं, एक अजीब सी थरथराहट थी। शायद पछतावे की… शायद उस एहसास की जो बहुत देर से उसके भीतर दस्तक दे रहा था।
उसने बहुत सावधानी से, हल्के स्पर्श से सुहानी की चोट को साफ़ किया। रुई से खून हटाते हुए एक पल के लिए उसकी उंगलियाँ थम सी गईं—जैसे वो खुद को ही माफ़ नहीं कर पा रहा हो। फिर मरहम लगाया… और बेहद सलीके से उस साफ़ की हुई चोट पर bandage लगाया।
उसका हर स्पर्श नर्म था, मगर उसकी आँखों में जैसे एक तूफ़ान पल रहा था— गिल्ट, शर्म, और वो सच्चाई जिसे उस ने अब तक खुद से भी छिपा रखा था।
सुहानी पूरे वक़्त चुप रही। ना कोई सवाल, ना कोई शिकवा। बस एक सन्नाटा था—जो कह रहा था कि ये खामोशी, उस चीख से कहीं ज़्यादा भारी है।Bandage लगने के बाद वो धीरे से उठी। बिना कुछ कहे मुड़ने लगी। और तभी…
“सॉरी।”
एक शब्द…मगर जैसे पूरे कमरे की हवा अचानक ठहर गई। सुहानी के कदम रुक गए, वो धीरे से पलटी।
“क्या?”
उसकी आवाज़ में हैरानी थी—जैसे ये आरव के मुँह से सुनने की उम्मीद उसने कभी सपने मे भी नहीं की थी। आरव की निगाहें झुकी हुई थीं।
"इसके लिए," उसने धीरे से चोट की तरफ इशारा करते हुए कहा। “मुझे उम्मीद है… तुम समझती हो… ये जानबूझकर नहीं किया था मैंने।”
वो नज़रें अब उठीं। आरव की आँखों में अब कोई गुरूर नहीं था— बस एक कच्ची, टूटी हुई इंसानियत थी।
सुहानी ने कुछ नहीं कहा। एक पल के लिए उसकी आँखें नम सी हुईं— जैसे कोई पुराना दर्द फिर से उभर आया हो, या शायद एक बोझ थोड़ा हल्का हुआ हो। फिर वो पलटी…चुपचाप कमरे से बाहर चली गई।
आरव वहीं खड़ा रहा… उसकी जाती हुई परछाई को देखता रहा। उसने सुहानी की चोट पर मरहम तो लगा दिया था, मगर वो घाव जो उसने उसके आत्मसम्मान और दिल पर दिए थे… क्या उन के लिए भी कभी कोई मरहम बनेगा?
या शायद…वही मरहम अब उसके बदलते एहसासों की पहली परत बन रहा था। आज एक मीटिंग में बहुत कुछ बदल गया था। शब्दों से ज़्यादा असर भावनाओं ने किया था। और शायद… आज एक दिल पहली बार अपने ही अपराध में जागा था।
दरारें कभी-कभी वहाँ बनती हैं, जहाँ उम्मीद सबसे ज़्यादा होती है।
मगर हर दरार एक शुरुआत भी बन सकती है—अगर दिल उसे भरने की हिम्मत जुटा सके, तो।
आगे की कहानी जानने के लिए पढ़ते रहिये, रिश्तों का क़र्ज़।
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