दिन भर की थकान, मीटिंग्स की गंभीरता और अंदर ही अंदर चलते भावनाओं के तूफ़ान के बाद…शाम की हल्की रोशनी ऑफिस के बाहर बिखरी हुई थी। आसमान में सूरज अब ढलने को था, और शहर की हलचल धीमे-धीमे संजीदगी में ढल रही थी।
सभी स्टाफ मेंबर्स एक-एक करके ऑफिस से निकल रहे थे। आरव और सुहानी भी कुछ पलों बाद बाहर निकले—दोनों एक-दूसरे के ठीक पीछे, मगर फिर भी जैसे मीलों की दूरी हो उनके बीच। ऑफिस के बाहर खड़ी चमचमाती काली कार के पास आरव कुछ कहने ही वाला था, कि उसने देखा—सुहानी ने उस ओर आने के बजाय दूसरी दिशा में कदम बढ़ा दिए।
“सुहानी!” उसने थोड़ी तेज आवाज़ में पुकारा।
सुहानी ने पलट कर देखा नहीं। उसके कदम स्थिर थे—सधे हुए, न थमे, न लड़खड़ाए। वो सीधा जाकर अपनी गाड़ी का दरवाज़ा खोलती है और अंदर बैठ जाती है। आरव कुछ पल वहीं खड़ा उसे जाते हुए देखता रहा— जैसे उसकी आँखें पूछ रही हों, “क्यों?”
मगर जवाब देने वाला कोई नहीं था। उसकी चुप्पी अब सुहानी की चुप्पी से टकराने लगी थी। वो धीरे-धीरे अपनी गाड़ी की तरफ बढ़ा, वहाँ पहले से ही उस का ड्राइवर खड़ा इंतज़ार कर रहा था।
“तुम यहाँ कब आए?” आरव ने हैरानी से पूछा।
ड्राइवर ने विनम्रता से जवाब दिया— “सर, सुहानी मैडम का कॉल आया था थोड़ी देर पहले। उन्होंने कहा कि मैं पहले उनकी गाड़ी लेकर आ जाऊँ, और फिर आपको ऑफिस से घर ड्राइव कर के ले जाऊं।”
वो थोड़ा रुक कर बोला, “आप चलने के लिए तैयार हैं, सर?”
आरव ने कोई शब्द नहीं कहे। बस हल्के से सिर हिला दिया….इतना शांत था वो पल, कि लगा था जैसे किसी ने पूरे माहौल से आवाज़ें खींच ली हों। वो गाड़ी का पिछला दरवाज़ा खोल कर अंदर बैठ गया। मगर उस के मन में हलचल थी। बैठते ही उसकी नज़र सामने शीशे से सड़क पर जाती गाड़ियों पर पड़ी— और दूर, एक गाड़ी तेज़ी से मोड़ काटती हुई ओझल हो गई….वो सुहानी की गाड़ी थी।
आरव ने सीट पर अपना सिर टिकाया, आँखें बंद कीं, उसके दिल के अंदर कुछ दहक रहा था। वो समझ रहा था—सुहानी आज सिर्फ एक गाड़ी में नहीं बैठी थी… वो ये उनके बीच जो कुछ था, उसे वो आरव की पहुंच से दूर कर देना चाहती थी।
गाड़ी की खामोशी, शहर की रोशनी, और मन की बेचैनी— आरव पिछली सीट पर सिर टिकाए बैठा था। ड्राइवर चुपचाप गाड़ी चला रहा था, मगर आरव के अंदर एक भूचाल चल रहा था।
“क्यों गई वो अलग गाड़ी से?”
“क्यों कुछ कहे बिना चली गई?”
“क्या इस लायक भी नहीं था मैं कि मुझ पर वो अपने शब्द भी ख़र्च करे?”
उस का ज़हन सवालों से भर गया था। जैसे हर खामोश लम्हा, एक नया इल्ज़ाम बन कर उसे घेर रहा हो।
“सुहानी कभी मेरी बातों का जवाब क्यों नहीं देना चाहती?”
"क्या उसे अब मुझ से डर लगता है? या अब उसने भी हमारे इस रिश्ते पर भरोसा करना छोड़ दिया है?”
“या फिर... अब उसके लिए मैं बस एक ज़ख्म देने वाला इंसान बन कर रह गया हूँ?”
उसका मन खुद से ही लड़ रहा था। एक ओर उसका अहम था—जो पूछ रहा था कि ये बगावत क्यों? दूसरी ओर उसका दिल था—जो धीरे-धीरे पिघल रहा था, सुहानी की ओर झुक रहा था, सुहानी की चुप मुस्कान और खून से सनी वो चोट उसकी आँखों के सामने बार-बार घूम रही थी।
“क्या सच में मैंने उसे चोट दी?”
“मैं तो बस... गुस्से में था। पर क्या मेरा गुस्सा इतना बढ़ चुका था उसके लिए, कि मैंने कभी ये तक नहीं सोचा वो भी एक इंसान ही है? चालाक, पर इंसान है। और अगर मैंने उसे चोट दी तो, उसने मुझसे कुछ कहा क्यों नहीं?”
“क्या मैं सच में आँख बंद कर के अपने घर वालों पर जो भरोसा कर रहा हूँ, वो मुझे नहीं करना चाहिए? वो मुझ से कुछ तो ज़रूर छुपा रहे हैं। तो क्या सुहानी को लेकर भी वो मुझ से झूठ बोल रहे हैं?”
उसने एक गहरी सांस ली, खिड़की के बाहर भागती हुई दुनिया भी जैसे थम सी गई थी। उसके अंदर का आरव—जो अब तक सिर्फ नफ़रत से भरा था—धीरे-धीरे इंसान बन रहा था। उसके अंदर भावनाएं वापस लौट रही थीं।
हवेली के गेट पर गाड़ी रुकी, ड्राइवर ने उतर कर दरवाज़ा खोला। आरव अब भी कुछ गुम-सा था, मगर जैसे ही उस ने नज़रें उठाईं—वो पल ठहर गया।
सुहानी…अपनी गाड़ी से निकल कर पोर्च की ओर बढ़ रही थी। उसका चेहरा थका हुआ था, मगर चाल में वो वही आत्म-सम्मान था—जो आरव को हमेशा चुभता था, और अब... कहीं भीतर उसे छूने लगा था। मगर तभी…दरवाज़ा एक झटके से खुला।
गौरवी राठौर—आरव की माँ—तेज़ कदमों से बाहर निकलीं। चेहरे पर ग़ुस्सा नहीं, एक सनकी क्रोध था। और इस से पहले कि कोई कुछ समझ पाता— “तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई!”
एक ज़ोरदार तमाचा सुहानी के गाल पर पड़ा। “राठौरों” की हवेली में कदम रखते ही, एक बार फिर से सुहानी की गरिमा टूट गई थी। सुहानी लड़खड़ा गई। उसके चेहरे पर हैरानी, चोट और अपमान—तीनों एक साथ उभरे।
आरव की आँखें फटी की फटी रह गईं। ये क्या था? क्यों हुआ? और… किस लिए? कुछ सेकेंड्स के लिए वो अपनी जगह से हिला नहीं, मगर अगले ही पल…एक अजीब-सी बेचैनी ने उसे भीतर से खींच लिया।
गाड़ी का दरवाज़ा ज़ोर से खुला। वो बाहर निकला—तेज़ क़दमों से—और गौरवी और सुहानी के बीच जाकर खड़ा हो गया।
"बस! बहुत हो गया!"
उसकी आवाज़ में पहली बार वो आग थी—जो अब तक दूसरों के लिए लपटे लेती थीं, अब... सुहानी की हिफाज़त के लिए अंगारे भर रही थी। गौरवी अपने गुस्से के आवेग में इतनी बहक चुकी थीं कि ये भी नहीं देखा कि आरव की गाड़ी घर के पोर्च में ही खड़ी थी। जैसे ही उसने आरव को सामने आ कर बीच में खड़ा होते देखा, उसके चेहरे की सख़्ती और आँखों की आग ने गौरवी को एक झटका सा दिया।
वो एक पल को ठिठक गई…दो कदम पीछे हट गई, और अचानक उसका लहजा लड़खड़ाने लगा— “आर... आरव... तुम यहाँ...? मैं तो बस...”
“बस क्या, माँ?” आरव की आवाज़ ठंडी थी, मगर उसके पीछे दहकता लावा था।
“क्या वजह थी इस तमाचे की? आपने उसे सबके सामने इस तरह ज़लील किया... क्यों?”
गौरवी अकबका गई। उसके चेहरे पर झुँझलाहट थी—और शायद डर भी।
"तुम मुझ से सवाल कर रहे हो?" उसने ऊँची आवाज़ में कहा, मगर आत्मविश्वास डगमगाया हुआ था। “तुम्हारी माँ हूँ मैं, आरव!”
आरव ने गंभीरता से अपनी माँ की आँखों में देखा, “और क्या एक माँ होकर भी किसी और की बेटी को इस तरह से बेइज़्ज़त करना आपका अधिकार बनता है?”
गौरवी का चेहरा तमतमा गया। उसने जल्दी से नज़रें घुमा ली, जैसे किसी जवाब की तलाश कर रही हों।
गौरवी चौंक गईं, “आरव? ये क्या कर रहे हो तुम?”
मगर आरव की नज़रें अब किसी और को देख रही थीं। सुहानी को—जिसका चेहरा अब तक झुका हुआ था, मगर आँखों में फिर भी आँसू नहीं थे।आरव के भीतर कुछ फिर से दरक गया। वो सुहानी के गाल पर पड़े लाल निशान को देख कर बुरी तरह बेचैन हो उठा।
“अब अगर किसी ने भी इस पर हाथ उठाया—तो मुझ से बर्दाश्त नहीं होगा।” उसका लहजा धीमा था, मगर इतना तीखा कि हवाओं में सन्नाटा छा गया। गौरवी हक्का-बक्का रह गई। सुहानी ने एक पल को उसकी आँखों में देखा—और पहली बार, आरव में उसे कुछ और दिखा… शायद एक दरार, शायद एक बदलाव। और शायद… एक सुरक्षा करने की चाह।
“मैंने कुछ गलत नहीं किया।” गौरवी की आवाज़ में हठ था, "तुम्हें मेरी बात पर भरोसा होना चाहिए, आरव… मेरे actions पर सवाल नहीं उठाने चाहिए। मैंने अगर उसे थप्पड़ मारा है, तो यकीनन कोई वजह रही ही होगी। और वो वजह तुम्हें जानने की ज़रूरत नहीं है! तुम्हें बस मेरी ममता पर भरोसा होना चाहिए। इतना तो हक़ है ना, एक माँ का!"
आरव कुछ पल तक अपनी माँ को घूरता रहा। ये वही माँ थी, जिस ने बचपन से उसे सिखाया था कि सम्मान कमाया जाता है, अंधा भरोसा नहीं। और आज... वही माँ अपनी इस हरकत के पीछे 'माँ' का दर्जा, एक ढाल बना रही थी।
"अगर आप की ममता ऐसी है, जिस में इंसानियत की जगह अहम नहीं है… तो शायद अब उस पर आँख मूंद कर भरोसा करना मेरे लिए मुमकिन नहीं है, माँ।"
आरव की बातों से गौरवी का चेहरा फक पड़ गया। उसके पास कोई और तर्क नहीं बचा था। सुहानी चुपचाप खड़ी थी— उसकी आंखों में अब भी वो ताज़ा ज़िल्लत की जलन थी, मगर साथ ही एक नया भाव भी था…किसी ने पहली बार उसके लिए आवाज़ उठाई थी।
गौरवी ने खुद को जल्दी सँभालते हुए आरव के कंधे पर हाथ रखा और धीमे मगर ठोस स्वर में बोली— “अंदर चलो, आरव। बहुत तमाशा हो गया बाहर।”
मगर आरव टस से मस नहीं हुआ। वो अब भी वहीं खड़ा था, एक हाथ जेब में, और आँखें अपनी माँ पर टिकी हुईं थी—शंकाओं और भावनाओं का तूफ़ान उसके भीतर उमड़ रहा था। उसे चुप खड़ा देख, गौरवी की आंखें नम हो गईं। वो पलट कर अपने आंसू छुपाने की कोशिश करने का नाटक करने लगी, मगर तभी उसने कांपती हुई आवाज़ में कहा— “ठीक है…”
“जिस बात से मैं डरती थी, वही हुआ।”
आरव ने चौंक कर अपनी माँ की ओर देखा।
गौरवी अब मुड़ी और दर्द भरे स्वर में बोली— “वो लड़की जीत गई, आरव। सुहानी ने आखिर तुम्हें मुझ से दूर कर ही दिया… तुम्हारा दिल अब इस लड़की के लिए धड़कने लगा ना… अपनी माँ के खिलाफ… कर ही दिया ना उस ने तुम्हें दूर। मुझे नहीं पता, मैंने क्या ग़लत किया है…लेकिन शायद एक माँ का बेटा अब उसका नहीं रहा…"
वो सिसकने लगीं—एकदम धीमे से, मगर उसके शब्द तीर बन कर आरव के दिल में उतरते चले गए। आरव का चेहरा कठोर था, मगर आँखें कमजोर पड़ रही थीं। उसने गर्दन झुकाई, जैसे अंदर से हिल गया हो।
"माँ…" उसकी आवाज़ धीमी हो गयी थी, “ऐसा कुछ नहीं है…”
वो आगे बढ़ा, “मैं बस परेशान हो गया था… आपने उसे सबके सामने थप्पड़ मार दिया… तो झटका लगा। मैं आप से दूर नहीं हूँ माँ, और कोई मुझे आप से दूर नहीं कर सकता…”
गौरवी ने तुरंत उसका हाथ पकड़ लिया— “तो फिर मत खड़े हो उस लड़की के लिए। ये बहुत चालाक है… वो हमारी छत के नीचे रहते हुए, और हमें ही तोड़ रही है, आरव!”
आरव चुप था। उसके भीतर दो आवाज़ें लड़ रही थीं— एक जो तर्क कर रही थी, और एक जो माँ के आँसुओं से बहक रही थी। गौरवी ने उसकी ख़ामोशी को अपनी जीत समझा। उसने लंबी साँस ली और धीरे से कहा— “चलो बेटा… अंदर चलो।”
आरव ने एक बार पीछे मुड़ कर देखा— जहाँ सुहानी अब भी चुपचाप दरवाज़े की ओट से सब देख रही थी। उसकी आँखों में कुछ नहीं था— ना शिकायत, ना उम्मीद…बस एक थकावट…जो आती है, जब इंसान ये समझ जाता है कि उसके लिए अब कोई नहीं लड़ेगा।
आरव ने पल भर के लिए खुद को रोकने की कोशिश की—मगर फिर अपनी माँ के साथ भीतर चला गया। मगर वो कदम… भारी थे। जैसे आत्मा पीछे ही छूट गई हो। सुहानी ने गौरवी का इमोशनल ड्रामा, आरव की कश्मकश, और पूरे दृश्य को जिस अंदाज़ में देखा… वो मुस्कुरा पड़ी—एक थकी हुई, तंज़ से भरी मुस्कान…
“ड्रामेबाज़ औरत है ये।” उसने खुद से बुदबुदाते हुए कदम भीतर की ओर बढ़ा दिए। आरव ने उसकी मुस्कान देखी। वो मुस्कान हँसी जैसी थी… मगर आरव जानता था, उस में दर्द था, ताना था, और शायद हार भी। उसके कदम अनायास ही धीरे हो गए और वो सुहानी के पीछे चलने लगा।
गौरवी भी अपने चेहरे पर मजबूती का मुखौटा लगाए, उन दोनों के आगे चल रही थी। कुल मिलाकर माहौल ऐसा था, जैसे एक सन्नाटे भरे युद्धभूमि से तीन घायल सैनिक लौट रहे हों।
घर के दरवाज़े के भीतर कदम रखते ही, दिग्विजय राठौर की गूंजती हुई आवाज़ सुनाई दी— “सुहानी, मेरे ऑफिस में आओ….अभी।”
आरव तुरंत चौकन्ना हो गया। उसने जैसे ही आगे बढ़ने की कोशिश की— “मैं भी चलता हूँ—”
मगर तभी रणवीर ने उस का रास्ता रोक लिया…“नहीं, आरव।”
रणवीर की आवाज़ शांत थी, मगर उस शांति में एक स्पष्ट आदेश छुपा था। “जब तुम्हारी ज़रूरत होगी, तब तुम्हें बुला लिया जाएगा।”
आरव कुछ कहना चाहता था, मगर रणवीर ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए धीमे से कहा—"अभी तुम्हें आराम करना चाहिए। सुना है, कल रात और आज सुबह तबीयत कुछ ठीक नहीं थी तुम्हारी?"
आरव ने नजरें फेर लीं। उसे समझ नहीं आया कि रणवीर को ये बात कैसे पता चली, मगर वो कुछ बोला नहीं।
रणवीर ने आगे जोड़ कर कहा— "हर लड़ाई में शामिल होना ज़रूरी नहीं होता, आरव। कभी-कभी जवाबों से ज़्यादा, खामोशी सिखाती है।"
आरव ने धीरे से सिर हिलाया। सुहानी, जो अब तक दरवाज़े तक पहुँच चुकी थी, पलट कर एक बार देखती है— उसकी नज़र रणवीर और आरव पर टिकी, फिर सीधे दिग्विजय के ऑफिस की ओर बढ़ जाती है। गौरवी पहले से ही भीतर जा चुकी थी। अब इस महल के भीतर एक नया खेल शुरू होने वाला था—जहाँ शतरंज की गोटियाँ थीं, मगर चालें… कुछ और ही थीं।
आगे की कहानी जानने के लिए पढ़ते रहिये, रिश्तों का क़र्ज़।
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