रणवीर की बात सुनकर आरव की आँखों में शंका की परछाई उभर आई थी…“आराम?”
नहीं, ये सिर्फ़ आराम के लिए नहीं था। उसे साफ़ महसूस हो रहा था—कुछ छिपाया जा रहा है।
“मुझे भी जानने का हक़ है, रणवीर चाचा। अगर सुहानी को कुछ—”
मगर रणवीर ने उसकी बात को नर्मी से, मगर दृढ़ता से काट दिया। "आरव… ये बस कुछ सवाल हैं। तुम्हारी बीवी ने शायद फिर कोई चाल चली है, और दिग्विजय भाई साहब उसे समझाना चाहते हैं बस…बस इतना ही।"
“समझाना चाहते हैं… या धमकाना?” आरव की आवाज़ धीमी थी, मगर उसकी आँखों में चिन्ता साफ़ झलक रही थी।
रणवीर ने एक लम्बी साँस ली। फिर भीतर जाकर एक नाम पुकारा—“मीरा!”
मीरा तुरंत बाहर आई।
“आरव को उसके कमरे तक छोड़ दो। थोड़ा रेस्ट करना चाहिए उसे, हम सब संभाल लेंगे यहाँ से।”
मीरा ने मुस्कुराते हुए सिर हिलाया और धीरे से आरव की बाँह पकड़ कर कहा—“आओ आरव… तुम थक गए होगे। तुम्हें आराम की ज़रूरत है।”
आरव ने एक पल के लिए सुहानी की ओर देखा—वो अब पूरी तरह से शांत, आत्मविश्वास से भरी हुई थी, मगर बिलकुल अकेली…गौरवी, रणवीर और दिग्विजय के साथ उस ऑफिस के भीतर जा चुकी थी, जहाँ कभी-कभी शब्दों से ज़्यादा, सन्नाटा जानलेवा होता है।
मगर सुहानी घबराई नहीं। वो जानती थी कि ये सब क्या है— “बस एक और चाल का इल्ज़ाम, एक और कटघरे में खड़ी कर देने की साजिश।” लेकिन इस बार, उसके कदम न तो काँपे, न उसकी आँखों में कोई डर था।
"ये उनका खेल है। मगर अब मैं मोहरा नहीं… मैं भी चाल समझती हूँ, और अपनी चालें चलना भी जानती हूँ।"
वो दिग्विजय के ऑफिस में एक कोने में जाकर खड़ी हो गई। पीछे रह गया— आरव, उलझनों में घिरा हुआ…मीरा, अपने चेहरे पर बनावटी चालाकी लिए और रणवीर, जैसे हर मोहरे को सही जगह रखने में व्यस्त एक अनुभवी खिलाड़ी।
आरव वहीं खड़ा रहा… उसकी नज़रें सुहानी की पीठ पर टिकी थीं, जो बिना एक पल रुके….दिग्विजय, गौरवी और रणवीर के साथ उस कमरे में चली गयी थी, जिसके पार अक्सर सच्चाइयों को झूठ कह कर दबाया जाता था।
“सुहानी…” उस ने मन ही मन बुदबुदाया— ना वो उसे रोक सका, ना साथ जा सका।
उसकी मुट्ठियाँ धीरे-धीरे भींचने लगीं, उसका सीना भारी होने लगा था, कंधों पर एक अनजाना सा बोझ…और दिल में बेचैनी जैसे कोई धीमे-धीमे धड़कनों को निचोड़ रहा हो।
उधर मीरा सब कुछ देख रही थी। वो जानती थी…क्यों ले जाया गया है सुहानी को उस ऑफिस में। वो जानती थी…किस साजिश की अगली कड़ी रची जा रही है। मगर उसने साथ ही ये भी महसूस कर लिया था—आरव की धड़कनें अनियमित हो रही हैं, उसके माथे पर पसीने की हल्की परत दिखने लगी थी, उसका चेहरा फिर से वैसा ही फीका पड़ने लगा था, जैसा पिछली बार बेहोशी से पहले हुआ था।
“नहीं…” मीरा ने मन ही मन में सोचा—"अभी नहीं।
अगर आरव ने इन सब चीज़ों को ज़्यादा सीरियसली लेना शुरू कर दिया, तो उसकी तबीयत फिर बिगड़ सकती है। और अगर ऐसा बार-बार होता रहा…तो डॉक्टर ने साफ़ कहा है—उसकी याददाश्त पर असर पड़ सकता है। वो सब यादें जो वापस आने की उम्मीदें हैं… फिर से खो सकती हैं।"
मीरा ने एक गहरी साँस ली। फिर उसने एक सौम्य मुस्कान ओढ़ी, और आरव के पास आकर उसका हाथ पकड़ लिया।
"आरव, चलो… थोड़ा आराम कर लो प्लीज। तुम जान भी नहीं रहे… तुम कितना थक चुके हो। और अगर तुम इस तरह से सोचते रहे तो फिर…"
वो बात अधूरी छोड़ कर उसका चेहरा पढ़ने लगी। आरव ने कोई जवाब नहीं दिया, मगर उसकी साँसें भारी थीं। मीरा ने एक बार फिर नज़रों से ऑफिस के दरवाज़े की ओर देखा, जहाँ सुहानी अब अकेली थी— सच के सामने, झूठ के खिलाफ।
विक्रम वहीं खड़ा था—दीवार से टिक कर, शांत… मगर उसकी आँखों में हलचल थी। उसने मीरा की ओर देखा और सिर हिला कर इशारा किया।
“उसे ऊपर ले जाओ, मीरा,” उसके इशारे में सख़्ती भी थी और चिंता भी। मीरा ने सिर हिलाया और आरव का हाथ थाम लिया, मगर आरव की नज़रें अब भी उस दरवाज़े की तरफ जमी थीं….जहाँ सुहानी थी।
उस दरवाज़े के उस पार तीन चेहरे उसका इंतज़ार कर रहे थे—दिग्विजय, गौरवी और रणवीर खुद।
विक्रम ने एक आखिरी बार आरव की ओर देखा, उसकी आँखों में एक झलक थी—“मैं हूँ… मैं देख लूंगा।”
फिर वो अपने कोट की कॉलर सीधी करता है, धीरे-धीरे चलता हुआ उस बंद ऑफिस के दरवाज़े की तरफ बढ़ता है, जहाँ सन्नाटा भी सवाल बन कर गूंज रहा था। उसे मालूम था—सुहानी मज़बूत है, वो अकेले मुकाबला कर सकती है। मगर… उसे इन तीनों के बीच यूँ अकेला छोड़ना… उसके दिल को चुभ रहा था।
हर कदम के साथ उसका मन कह रहा था— "काश, आरव की तबीयत ठीक होती…काश, वो भी उस कमरे में उस के साथ खड़ा हो सकता… और सच को अपनी आँखों से देखता। काश, सुहानी अकेली न होती।"
विक्रम दरवाज़ा खोलता है। सामने सुहानी, नज़रें नीची किए, मेज़ के उस पार खड़ी थी। तीन हैवानों की नज़रों के बीच वो एक अकेला सच बन कर खड़ी थी। विक्रम भीतर दाखिल होता है, दरवाज़ा पीछे से धीमे से बंद करता है।
अब कमरा पूरा आक्रोश की भावना से भर चुका होता है— चार कुर्सियाँ… चार लोग… और एक साज़िश, जो सुहानी को तोड़ने के लिए रचाई जाने वाली थी। मगर उन्हें ग़लतफहमी थी कि वो सुहानी को और कमज़ोर कर पाएंगे। बल्कि वो तो और मज़बूत बनने वाली थी।
राठौर हवेली का प्राइवेट ऑफिस— कमरा ऊँचा, लकड़ी की दीवारें, पुरानी पेंटिंग्स, और बीच में भारी-भरकम महोगनी की टेबल। कमरे में घुसते ही एक अजीब सा वायुमंडल था—तनाव से भरा हुआ, चुप्पी से लिपटा हुआ।
सुहानी निडर होकर कमरे के एक कोने मे खड़ी थी। उसके चेहरे पर हल्की सी थकान थी, मगर आँखों में वही पुराना तेज़…जो किसी तूफ़ान से पहले आसमान में चमकती बिजलियों जैसा लगता है। वो धीरे-धीरे चलती हुई मेज़ के उस पार जाकर बैठ गई, बिना किसी आमंत्रण के, बिना किसी डर के।
दिग्विजय, गौरवी और रणवीर—तीनों पहले से वहाँ मौजूद थे। तीनों की नज़रें उस पर टिक गईं, मगर किसी ने एक शब्द भी नहीं कहा। कुछ पल तक बस सन्नाटा रहा। फिर…
“तुम्हें लगा था, हमें पता नहीं चलेगा?” दिग्विजय की आवाज़ कमरे में गूँजी। उस के स्वर में वो कटुता थी, जो किसी पुराने ज़ख्म को फिर से कुरेद देती है।
“तुम ने जो किया है, उसे धोखा नहीं कहते तो और क्या कहते हैं?” गौरवी का चेहरा गुस्से से तमतमाया हुआ था।
रणवीर अब तक शांत था, मगर उसकी आँखों की चमक बता रही थी, कि आज वो भी पीछे नहीं हटेगा…सुहानी ने गर्दन उठाई।
"आप लोगों की भाषा में 'धोखा' वो होता है, जब आप किसी के भरोसे को अपने फ़ायदे के लिए तोड़ते हैं। मैंने बस एक सच को सामने रखने की हिम्मत की है।"
गौरवी कहती है, “सच? ये सच है कि तुम हमारे कमाए हुए पैसों को यूँ बर्बाद करना चाहती हो? अस्पताल, महिला सुरक्षा संस्था, बच्चों के लिए शिक्षा अभियान? ये क्या तमाशा है?”
दिग्विजय कहता है, “हम ने खून-पसीना बहाया है इस साम्राज्य को बनाने में! और तुम—एक बाहर से आई लड़की—हमें बताओगी कि पैसों का सही इस्तेमाल कैसे करते हैं?”
रणवीर कहता है, “तुम ने हम से हमारा हथियार छीन लिया है, सुहानी। सत्ता का केंद्र बदलने की कोशिश की है तुम ने। जो काम सिर्फ ट्रस्ट के चेयरमैन कर सकते हैं, उसके लिए तुम ने अकेले टेंडर पास करवाने की कोशिश की? हिम्मत कैसे हुई तुम्हारी?”
सुहानी ने गहरी साँस ली, “हिम्मत वहीं से आती है जहाँ इंसान इंसाफ़ के लिए लड़ता है। मैंने कुछ चुराया नहीं है…ट्रस्ट के सारे दस्तावेज़ सार्वजनिक हैं।मैंने सिर्फ उन पैसों का उपयोग वहीं करने की बात की है, जहाँ उनका सबसे ज़्यादा मूल्य है—इंसानों के जीवन पे।”
गौरवी गुरराती है, “तुम्हें लगता है, तुम हम से ज्यादा जानती हो बिज़नेस? या ये कि तुम्हारे ये सपने इस खानदान से ज़्यादा ज़रूरी हैं?”
सुहानी (धीरे से) कहती है, “न मैं आप से ज़्यादा जानती हूँ, न ही कम। लेकिन इतना ज़रूर जानती हूँ—आप के साम्राज्य की नींव सिर्फ पैसों पर नहीं, लोगों के भरोसे पर टिकी है। और वो भरोसा, आपके कारोबार के बाहर भी ज़रूरी है।”
रणवीर कुर्सी से खड़ा हो गया। “तुम्हें लगता है ये आदर्शवाद चलेगा इस घर में? ये कोई NGO नहीं है, सुहानी! ये राठौर खानदान है—यहाँ भावना नहीं, फायदा चलता है।”
सुहानी अब पूरी तरह से तैयार थी। उस ने अपनी फाइलें टेबल पर रख दीं— पूरा प्लान, सारी डीटेल्स, फंड एलोकेशन रिपोर्ट, CSR से जुड़ा documentation…
“मेरे पास हर सवाल का जवाब है। अगर आप चाहें तो एक-एक पन्ना पढ़ लीजिए या फिर, सिर्फ गुस्से में मुझे गुनहगार ठहरा दीजिए। आप की मर्ज़ी।”
तीनों थोड़ी देर के लिए चुप हो गए। कमरे में अब फिर सन्नाटा था—मगर इस बार वो सन्नाटा घुटन से भरा हुआ था। गौरवी ने दाँत भींच लिए, रणवीर के चेहरे की रेखाएँ कड़ी हो गईं, दिग्विजय की उंगलियाँ टेबल पर गुस्से में थिरकने लगीं।
“तुम्हें लगता है, हम तुम्हारी ये नाटकबाज़ी बर्दाश्त करेंगे?”
सुहानी, एकदम शांत होकर बोली, “नाटक नहीं है ये… ज़िम्मेदारी है। जिस से आप भागना चाहते हैं।”
मकान के सबसे पुराने हिस्से में स्थित यह ऑफिस, सालों से सिर्फ ‘बड़ों’ की बैठकों के लिए इस्तेमाल होता आ रहा है। मोटी दीवारें, लकड़ी की छत, पीतल की मूर्तियाँ, और दीवार पर टंगी वो तस्वीर—विभांश राठौर की, जिसकी आँखें जैसे हर कोने की निगरानी कर रही हों। कमरे में एक अजीब सी घुटन थी। एक ऐसी चुप्पी, जो आने वाले तूफ़ान का इशारा कर रही थी।
गौरवी, रणवीर और दिग्विजय—तीनों एक साथ बैठे थे। तीनों की नज़रों में गुस्सा, असहायता और सबसे ज़्यादा—अहंकार घायल होने का डर। और ठीक सामने, निडर हो कर बैठी थी—सुहानी। उसकी चाल में कोई झिझक नहीं थी, चेहरा थोड़ा थका हुआ ज़रूर था, लेकिन आँखें…वो किसी रणभूमि में खड़ी योद्धा की तरह चमक रही थीं।
गौरवी ने कहा, “हमें नहीं लगा था कि तुम इतनी चालाक निकलोगी। हमें ही हमारे पैसों का हिसाब देने लगी?”
रणवीर ने कहा, “तुम ने हमारे सारे फाइनेंशियल प्लान्स के खिलाफ ट्रस्ट से टेंडर पास करवा लिए? अस्पताल, महिला सुरक्षा संस्थान, बच्चों की शिक्षा के लिए फंड! ये सब तुम्हारे फैंसी सपने हैं, कोई बिज़नेस स्ट्रैटेजी नहीं!”
दिग्विजय (धीरे, मगर तीखे स्वर में) बोला, “तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई इन सबके लिए हमारी परमिशन के बिना सरकारी आवेदन भेजने की?”
सुहानी ने अपनी फाइलें टेबल पर रखीं। खामोशी से एक नज़र तीनों पर डाली, फिर बोली— “मेरे सपने फैंसी नहीं हैं ये। ये आप के द्वारा कमाए गए, लेकिन ज़मीर से उधार लिए गए पैसे वापस चुकाने की एक कोशिश है।”
कमरे में एक पल को सन्नाटा छा गया। फिर गौरवी गुस्से से अपनी कुर्सी से उठ खड़ी हुई।
“तुम होती कौन हो ये तय करने वाली कि इन पैसों का सही इस्तेमाल क्या है?”
सुहानी (बहुत शांति से) बोली, “वो, जो अब इन पैसों की देखरेख की ज़िम्मेदारी अपने नाम करवा चुकी है। जो ट्रस्ट की को-चेयरपर्सन है। और वो, जो अब सच को छिपाने में आपकी मदद नहीं करेगी।”
तीनों की आँखों में अचानक कुछ और तैर गया—एक डर…कि कहीं ये लड़की कुछ ज़्यादा तो नहीं जानती हमारे धंधों के बारे में? मगर सुहानी ने अभी तक वो पत्ता नहीं खोला था—अब तक उन्होंने नहीं जाना था कि उसे पता है…कि "राठौर एंड संस इंडस्ट्रीज़" के नाम के पीछे छिपी एक काली सच्चाई भी है।
उसके पास सबूत थे—इलेक्ट्रॉनिक वेस्ट की अवैध डंपिंग की रिपोर्ट्स, कंस्ट्रक्शन साइट्स पर बच्चों से कराए गए काम के दस्तावेज़, फर्जी कंपनियों के नाम पर हवाला ट्रांसफर्स, और उन प्रोजेक्ट्स की तस्वीरें—जहाँ लापरवाही की वजह से मासूमों की जानें गई थीं। उसके पास उन हॉस्पिटल के बिल भी थे, जहाँ ज़हर से भरे जल स्रोतों की वजह से गाँव के गाँव बीमार हो गए थे।
उन केस फाइल्स की कॉपियाँ भी हैं, जो कोर्ट तक कभी पहुँच नहीं पाईं, क्योंकि “राठौर एंड संस” ने सबको पैसों से चुप करा दिया। लेकिन आज नहीं…आज सुहानी सिर्फ एक सामाजिक कार्य के लिए नहीं लड़ रही थी। वो उन मासूमों की आवाज़ थी, जिन की चीखें राठौर हवेली की दीवारों से टकरा कर रह गई थीं। पर उस ने वो ट्रम्प कार्ड अभी नहीं फेंका था।
वो जानती थी, वक़्त आने पर एक-एक परत खोली जाएगी।सच का भार बहुत भारी होता है—और जो सालों से झूठ की बुनियाद पर खड़ा हो, वो सच के सामने कब तक टिकेगा?
आगे की कहानी जानने के लिए पढ़ते रहिये, रिश्तों का क़र्ज़।
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