रात घनी और भयावह थी। हवाओं में एक अजीब सी घुटन, जैसे खुद कुदरत भी इस साज़िश से सहमी हुई हो। आकाश में चाँद तो था, मगर बादलों की मोटी चादर में छिपा, बिना रोशनी दिए, बस दूर से सब देखता हुआ — एक मूक गवाह बनकर।
एक संकरे रास्ते पर अचानक एम्बुलेंस की तेज़ लाइटें चमकीं, और एक ज़ोर की आवाज़ के साथ गाड़ी धूल उड़ाते हुए निकल गई। एम्बुलेंस के पहियों ने उस शांत मिट्टी को रौंद डाला, जैसे वक़्त को चीरती हुई भाग रही हो — मौत और ज़िन्दगी के बीच, एक महीन लकीर पर।
अंदर बैठी सुहानी की साँसें इतनी तेज़ थीं, मानो उसका दिल हर धड़कन के साथ टूटता जा रहा हो। उसकी आँखें लगातार सामने देख रही थीं, लेकिन मन कहीं पीछे ही छूट गया था — तहख़ाने की वो सीलन भरी घुटन, दीवारों के भीतर कैद सच, और… आरव।
आरव की छाती पर लगी गोली का दृश्य उसकी आँखों में बस गया था। लेकिन अब वक़्त नहीं था रुकने का, घबराने का, रोने का। अब उसके पास सिर्फ एक उद्देश्य था — प्रणव की सुरक्षा।
गाड़ी की रफ्तार जितनी तेज़ थी, सुहानी की धड़कनों की आवाज़ उससे कहीं ज़्यादा तीव्र थी। अंदर पड़े प्रणव के माथे पर पसीना था, चेहरा पीला पड़ गया था, और उसकी साँसें बस चल रही थीं — कमजोर, लेकिन उम्मीद से भरी।
सुहानी ने कांपते हाथों से उसके बाल हटाए, और उसके होंठों के पास कान लगाकर सुना — “भाई…” वो फुसफुसाया, और फिर बेहोश हो गया।
सुहानी ने उसकी उंगलियाँ कसकर थामीं। उसके होठों से निकला — “कुछ नहीं होगा उन्हें... मैं हूँ ना।”
उसका मन डर से भरा था, लेकिन चेहरा—संयम का प्रतीक। बाहर जंगल की सड़क पर एम्बुलेंस उछलती-कूदती, भागती चली जा रही थी। भीतर सुहानी, हर उछाल के साथ, जैसे अपनी हिम्मत को कसकर थाम रही थी — कि जब तक साँसे हैं, तब तक हार नहीं मानूंगी।
प्रणव उसकी गोद में निश्चल पड़ा था — किसी टूटे हुए खिलौने की तरह, जिसे अभी-अभी जीने की एक उम्मीद ने सहलाया हो। उसके होंठ सूख चुके थे और पलकों पर थकावट की चादर लिपटी हुई थी। मगर उसकी छाती हल्की-हल्की उठ रही थी — एक संकेत कि साँसें अब भी चल रही हैं… ज़िन्दगी अब भी बाकी है।
सुहानी ने धीरे से उसके पसीने को पोंछा, और उंगलियों से बालों को पीछे किया जो बार-बार उसके चेहरे पर आ रहे थे, वो उस पर किसी तरह का साया दोबारा नहीं आने दे सकती थी, इसने बहुत झेला है, अब और नहीं — एक बेहद नर्म स्पर्श, जो ममता से भरा हुआ था। उसकी आँखों में नमी थी, मगर होंठों पर जबरन थमी हुई मुस्कान — जैसे वो प्रणव को बार-बार दिलासा दे रही हो, “सब ठीक होगा... कुछ नहीं होगा तुम्हारे भाई को।”
लेकिन भीतर, वो खुद टूट रही थी। हर सांस, हर पल जैसे समय के खिलाफ़ एक जंग थी।
सामने ड्राइविंग सीट पर रमेश था — वही वॉर्ड बॉय जिसने सुहानी से वादा किया था कि वो आरव को लेकर आएगा, मगर वो जैसे ही राठौर हवेली की तरफ बढ़ा था, किसी ने गोली चलायी थी, जो सीधा जाकर एम्बुलेंस के ड्राइवर को लगी थी, जिसे रमेश ने सुहानी और प्रणव को सुरक्षित ले जाने का आदेश दिया था। लेकिन जैसे ही उस ड्राइवर को गोली लगी, वो वहीं ढेर हो गया। रमेश के पास डरने का वक़्त नहीं था, अब ज़िम्मेदारियाँ उसके कन्धों पर थीं, वो तुरंत दौड़ कर गाड़ी के पास गया, और झुक कर ड्राइवर्स सीट पर बैठ गया, और फिर जल्दी से उसने एम्बुलेंस को वहां से निकाला। पीछे कई गोलियां चलीं लेकिन उसने एम्बुलेंस को रुकने नहीं दिया।
उसकी आँखें सड़क पर गड़ी थीं, मगर उसका चेहरा पसीने से तरबतर था। उंगलियाँ गियर पर कस चुकी थीं और पाँव ब्रेक और एक्सीलेरेटर के बीच हिचकिचा रहे थे।
“जल्दी चलाओ रमेश… वो लोग पीछा कर सकते हैं।” सुहानी की आवाज़, जो अब तक मजबूत बनी हुई थी, पहली बार काँपी — उसमें अब डर खुलकर बोल रहा था।
रमेश ने होंठ भींचते हुए जवाब दिया, “मैडम, मैं पूरी कोशिश कर रहा हूँ… लेकिन ये रास्ता बहुत खराब है… और गाड़ी तेज़ चलाते ही फिसल सकती है…” उसकी आँखों में घबराहट थी, और मन में शायद यह भी कि अगर कहीं एक भी चूक हो गई, तो उन तीनों की कहानी यहीं खत्म हो सकती है।
उसी वक़्त, जैसे डर ने आकार ले लिया — रमेश की नज़र रियर व्यू मिरर में गई। पीछे दूर कहीं धुंध के बीच एक हेडलाइट चमकी। फिर दूसरी… फिर तीसरी। रमेश की साँस अटक गई, “मैडम…” उसने धीमे मगर घबराए स्वर में कहा, “वो लोग आ रहे हैं…”
अब तक जो सिर्फ डर था, वो सच्चाई बन चुका था। पीछे काल की परछाई दौड़ रही थी — और सामने, बस एक ही रास्ता था: भागते रहना… तब तक जब तक उम्मीद की कोई नई किरण न मिले।
“क्या?” सुहानी लगभग फुसफुसाते हुए बोली, लेकिन उसमें घबराहट की लहर साफ़ सुनाई दे रही थी। उसने झटके से खिड़की के पर्दे को हटाया और बाहर झाँका।
रात की धूल भरी सड़क के उस पार, तीन काली SUVs बिल्कुल उनके पीछे थी — उनके पीछे उड़ती हुई धूल में भी नीयत साफ़ थी — ये सिर्फ पीछा नहीं था, ये शिकार था।
रणवीर उन्हें ढूँढ चुका था और अब वो उन्हें हर हाल में रोकना चाहता था।
सुहानी ने गहरी साँस ली, और काँपते हुए स्वर को दृढ़ता में ढालकर कहा — “हमें रुकना नहीं है, रमेश। किसी भी कीमत पर नहीं। आज नहीं…”
सुहानी को पता था कि अगर अब गाड़ी रुकी, तो सब कुछ खत्म हो जाएगा — आरव की कुर्बानी, मीरा का बलिदान, और प्रणव की साँसे।
प्रणव की साँसें अब और भी धीमी हो चुकी थीं। सुहानी ने झुककर उसकी नब्ज़ टटोली — और जैसे ही उसकी उंगलियों ने उसके धीमी धड़कन को महसूस किया, उसका दिल काँप उठा।
“प्रणव… नहीं… आँखें खोलो,” उसने कांपती आवाज़ में कहा। “प्लीज़… आँखें खोले रहो…” उसके होंठ काँप रहे थे, मगर उसका हाथ अब भी मजबूती से प्रणव की उँगलियाँ थामे हुए था — जैसे उस छूटती ज़िंदगी को अपनी हथेली से बाँध रही हो।
“तुमने अपने भाई से वादा किया था ना? सब पीछे छोड़कर एक नई शुरुआत करेंगे… तो अब ऐसे कैसे अधूरा छोड़ सकते हो, प्रणव? ऐसे नहीं जा सकते तुम…”
उसकी आँखों से आँसू चुपचाप टपकने लगे — कुछ प्रणव के चेहरे पर गिरे, कुछ उसके अपने कंधे पर। लेकिन उसकी पकड़ ढीली नहीं पड़ी।
उधर रमेश ने हाईवे की ओर गाड़ी मोड़ ली थी। उसकी आँखें अब दर्पण में नहीं, सामने के मोड़ पर थी — लेकिन दिल में सिर्फ एक डर गूंज रहा था।
“अगर ये गाड़ी अब रुकी…” उसने धीमे से बुदबुदाया, “तो सब खत्म हो जाएगा…”
सड़क अब सीधी नहीं थी — मोड़ आ रहे थे, उबड़-खाबड़ रास्ता था, और पीछे गाड़ियाँ अब बस कुछ मीटर दूर थीं। एम्बुलेंस किसी अंतिम कोशिश की तरह भाग रही थी — और उसके भीतर बैठे लोग, उम्मीदों और हिम्मत की आखिरी डोर थामे हुए थे।
सामने एक तीखा मोड़ था — संकरा, ऊबड़-खाबड़ और ढलान भरा। रास्ते के दोनों ओर झाड़ियाँ इतनी घनी थीं कि मानो रात ने अपनी आँखें मींच ली हों। रमेश ने सामने देखा, फिर पीछे की तरफ। SUVs अब और नज़दीक थीं, और उनकी हेडलाइट्स की रोशनी एम्बुलेंस के शीशों तक पहुँच चुकी थी।
“मैडम, ये मोड़ बहुत रिस्की है,” रमेश ने दाँत भींचते हुए कहा।
“ले लो मोड़,” सुहानी ने कहा, जैसे जानती हो कि अब यही एक रास्ता बचा है। “जो भी हो… हमें यहीं से निकलना है।”
रमेश ने बिना समय गंवाए गाड़ी को उस मोड़ पर घुमा दिया। झटका इतना ज़ोर का था कि एम्बुलेंस एक बार हवा में उछली और फिर ज़ोर से ज़मीन से टकराई।
सुहानी अपनी जगह से फिसलकर साइड की दीवार से टकरा गई। सिर में चोट लगी, लेकिन उसने खुद को संभाला — हाथ अब भी प्रणव की उँगलियों में फंसे हुए थे। दर्द से उसकी आँखें नम थीं, लेकिन होठों से बस एक फुसफुसाहट निकली — “प्रणव… अभी नहीं… बस थोड़ी देर और… हम निकलने ही वाले हैं…।” उसके चेहरे पर खून की एक हल्की धार थी, मगर उसके इरादे उससे कहीं ज़्यादा मजबूत थे।
उधर रणवीर की SUV ने रफ्तार पकड़ ली थी। उसकी आँखों में अब गुस्से की नहीं, बल्कि शिकारी की झुंझलाहट थी — जिसे शिकार दिख रहा हो, मगर हाथ न आ रहा हो। उसके साथ की गाड़ियाँ भी बिखरने लगी थी, लेकिन रणवीर की पकड़ कसती जा रही थी।
उसने अपना मोबाइल उठाया और गुस्से से गुर्राया — “सब रास्ते बंद कर दो… जंगल की एक भी पगडंडी खुली नहीं रहनी चाहिए। आज कोई नहीं बचेगा — न वो लड़की, न वो प्रणव, और ना ही वो ड्राइवर जिसका अभी तक ज़िंदा रहना एक शर्म की बात है… और आरव तो वैसे भी...”
वो वाक्य अधूरा रह गया, लेकिन उसके लहजे से साफ़ था — आज की रात, वो खून से अपने राज़ धोना चाहता है।
और फिर… अचानक सब शांत हो गया।
ना इंजन की दहाड़ थी, ना ब्रेक की चीख, ना पीछा करती लाइटों की चुभन। बस… सन्नाटा। ऐसा सन्नाटा जो तूफान के बाद आता है — भारी, ठहरा हुआ, और डरावना।
घने जंगल के बीच एक टूटी-सी एम्बुलेंस खड़ी थी। उसका इंजन अब बस हिचकी लेकर चुप हो गया था। हेडलाइट्स बुझ चुकी थीं, और आसमान पर अब भी चाँद बादलों की ओट में छिपा था।
भीतर — धूल, खून, थकान और दर्द। और उन सबके बीच — सुहानी। उसके चेहरे पर चोट के निशान थे, होठ सूखे हुए, मगर आँखें… अब भी उम्मीद से भरी थीं। वो अब भी प्रणव का हाथ थामे हुई थी।
एम्बुलेंस के भीतर और बाहर पसरा सन्नाटा उस राख की तरह था — जिसमें चिंगारी अब भी बाकी है… और वो चिंगारी भड़कने वाली है।
स्टीयरिंग पर थमा हुआ खून अब सूखने लगा था, मगर उस पर रखे हाथ अब भी काँप रहे थे — जैसे वो अब भी उस एक गोली की गूंज को महसूस कर रहे हों। रमेश की साँसें बेहद धीमी हो गई थीं। उसकी आँखें बंद थीं, पलकों के नीचे कोई हलचल नहीं थी। चेहरा शांत था — बहुत ज़्यादा शांत। पीछे की सीट पर सुहानी की गोद में प्रणव था — उसका शरीर थकावट से झुक गया था, मगर साँसे चल रही थीं। उसकी आँखें खुली थीं, लेकिन उनमें कोई चेतना नहीं थी। वो एकटक सामने देखे जा रहा था, जैसे अभी तक यकीन नहीं कर पा रहा हो कि उसके चारों ओर जो हो रहा है, वो हकीकत है।
उसकी फूटी-फूटी आवाज़ सुहानी के दिल में तीर की तरह लगी — “भैया… आरव भैया…।” उसके होंठ काँप रहे थे, और शरीर ठंडा हो रहा था।
सुहानी ने एक नज़र सामने बैठे रमेश पर डाली। इस उम्मीद में की शायद उसके पास कोई तो खबर हो, या उसने हवेली से निकलते वक़्त आरव को एक झलक तो देखा होगा। मगर कोई जवाब न आने पर, उसने धीमे से प्रणव को कहा — “वो… ठीक हो जाएंगे…”
मगर उसकी आवाज़ खुद में ही बिखर गई। वो जानती थी कि ये सिर्फ दिलासा था — किसी और के लिए नहीं, खुद के लिए।
गाड़ी एक झटके से रुकी। चारों ओर जंगल का साया था, मगर रास्ता अब खत्म हो चुका था। सामने एक सूखी, कटी-कटी पगडंडी थी जो पहाड़ों की ओर जा रही थी। दूर-दूर तक कोई रोशनी नहीं थी, कोई आवाज़ नहीं, बस पेड़ों की शाखाएँ हवा से हिल रही थीं — जैसे प्रकृति भी सांस रोककर खड़ी हो।
सुहानी ने झटपट अपनी जैकेट की जेब टटोली। उसमें से एक मुड़ा-तुड़ा कागज़ निकला — धूल और खून के दाग से सना हुआ। उसने उसे सीधा किया, उसके कोने पर काँपते हुए हाथों से लिखा था:
“शेरगढ़ की चौकी से दायीं ओर... जहाँ बांस के तीन पेड़ हो…वहीं वो मिलेंगे।”
उसकी उँगलियाँ कागज़ पर कस गईं — ये अब बस एक पता नहीं था, ये एक आखिरी उम्मीद थी। एक ठिकाना… जहाँ शायद जवाब भी मिलें और राहत भी।
एक संकरी पगडंडी से होकर जैसे ही एम्बुलेंस उस ऊबड़-खाबड़ रास्ते के अंत तक पहुँची, सामने एक पुरानी सी झोपड़ी नज़र आई — मिट्टी और लकड़ी से बनी, जिसकी दीवारें वक्त और मौसम की मार से झुकी गई थीं। मगर उस सादगी में एक गहरा रहस्य छिपा था।
झोपड़ी के दरवाज़े पर एक बुजुर्ग खड़ा था — सफ़ेद झबरी दाढ़ी, आंखों के नीचे काले घेरे, और माथे पर उम्र की लकीरें। उसके चेहरे पर थकावट थी, पर वो थकान वक्त से नहीं… शायद वर्षों से छिपे किसी सच के बोझ से थी। वो कोई आम बूढ़ा नहीं लग रहा था — वो किसी राज़ का पहरेदार था।
दरवाज़े पर दस्तक हुई….
उसने लकड़ी का दरवाज़ा खोला, और सामने खड़ी थी एक लड़की — धूल, खून और आँसुओं से सना चेहरा, साँसें टूटी-टूटी, आँखों में बेइंतहा थकावट। उसके पीछे एक दुबला-पतला लड़का था, जो गिरते-संभलते खड़ा था। और थोड़ी दूरी पर एक पुरुष — जिसके अंदर एक वफादार सेवक के सारे लक्षण थे।
सुहानी ने काँपती आवाज़ में पूछा — “आप… आप शमशेर अंकल हैं न?”
उस सवाल ने मानो समय रोक दिया। बूढ़े आदमी की सांस अटक गई। उसकी आँखें लड़की की तरफ नहीं, उस घायल शरीर की तरफ टिक गईं, जो अब भी हिल नहीं रहा था।
कुछ पल के मौन के बाद उसने धीमे से कहा, “उसे अंदर लाओ… जल्दी।”
झोपड़ी के भीतर की हवा ठंडी थी, दीवारों पर पुराने कपड़े टंगे थे, और एक कोने में एक खाट पड़ी थी — प्रणव को उसी खाट पर लिटाया गया। उसका चेहरा अब और पीला लग रहा था, होंठों पर कोई हरकत नहीं थी। उसकी साँसें अब इतनी धीमी थीं कि पहचान पाना मुश्किल था कि वो ज़िंदा है या नहीं।
शमशेर ने झटपट अपनी पुरानी तिजोरी खोली — उसमें शीशियों, जड़ी-बूटियों और चंद मरहमों का एक पुराना बक्सा था। उसने बिना समय गंवाए मरहम तैयार किया और प्रणव के ज़ख़्मों पर लगाना शुरू किया। उसके हाथ काँप रहे थे, लेकिन उसमें एक उम्मीद भी थी।
“आरव नहीं आया तुम लोगों के साथ? उम्मीद करता हूँ वो ठीक होगा।” ये सवाल सुनते ही सुहानी की आँखों से आंसू गिरने लगे, मगर उसकी जुबां से एक लफ्ज़ नहीं निकला।
“उसे कुछ नहीं होगा, वो मेरा बेटा है” उसकी आवाज़ में सिर्फ यकीन था।
“और प्रणव अब अपने बाबा के पास आ गया है, अब मैं इसे खुद से दूर कभी नहीं जाने दूंगा। आरव भी आ जाएगा, मैं जानता हूँ।”
कुछ देर बाद जब प्रणव को होश आया, तब शमशेर झोपड़ी से बाहर गए थे। कुछ और जड़ी बूटीयां ढूंढने।
झोपड़ी के एक कोने में प्रणव चुपचाप सहमा बैठा था — उसकी आँखें हर कोने को देख रही थीं, जैसे अब भी उसे यकीन नहीं हो रहा था कि वो कैद से बाहर है। उसकी उंगलियाँ खुद-ब-खुद सिहर रही थीं।
सुहानी उसके पास गई, धीरे से बैठी और उसका हाथ थामा।
“हम सुरक्षित हैं अब, प्रणव,” उसने कहा — धीमे, मगर पूरी हिम्मत से…“सब ठीक हो जाएगा… अब सब ठीक होगा।”
“भाई के बारे में कोई खबर आई क्या सुहानी? वो ठीक तो है न?” सुहानी उसकी बातों का कोई जवाब नहीं दे पायी, और सिर झुकाकर बैठ गयी।
“क्या हुआ सुहानी? आरव ठीक तो है न? प्लीज बताओ मुझे।” प्रणव ने घबराते हुए पूछा।
“पता नहीं। उसे गोली लगी थी, मगर उसने हमें वहां से सुरक्षित निकालना ज़्यादा ज़रूरी समझा। और अब जब तुम अपने पापा के पास पहुंच चुके हो, मैं जल्द ही वापस हवेली के लिए निकल जाउंगी। बस जो लोग हमारे पीछे आये थे, वो थक हार कर वापस लौट जाएँ, वो लोग अभी भी हमें ढूंढ रहे हैं। आरव ठीक होगा, मैं जानती हूँ। बहुत ज़िद्दी है तुम्हारा भाई, बिलकुल तुम्हारी तरह।” सुहानी ने अपने आंसुओं के बीच मुस्कुराते हुए कहा….“इतना आसान नहीं है उसे मिटाना और वैसे भी तुम्हारे भाई ने मुझसे कई वादे किए हैं। उन्हें पूरा किये बिना तो मैं उसे कहीं नहीं जाने दूंगी।”
प्रणव उसे उम्मीद भरी आँखों से देख रहा था।
“और पापा? वो कहाँ हैं?” प्रणव ने पूछा।
शमशेर दहलीज़ पर खड़ा था — उसका चेहरा थका हुआ था, लेकिन भीतर कहीं एक बेचैनी थी… अपने बेटे के लिए।
तभी प्रणव ने एक धीमी, कांपती आवाज़ में कहा — “पापा…”
शमशेर के सामने था एक दुबला, कमजोर, झुका हुआ लड़का — चेहरा आधा जला हुआ, आँखें भीतर धँसी हुई, और शरीर काँपता हुआ… लेकिन वो एक आवाज़… वो “पापा” कहने का अंदाज़… जिसे सुनने के लिए शमशेर के कान तड़प चुके थे — बरसों से उसे इसका इंतज़ार था।
“प्र…णव?” उसका गला बैठ गया था। आँखों में भय, आश्चर्य, और एक उम्मीद की चिंगारी।
प्रणव आगे बढ़ा, कदम लड़खड़ाते हुए, “मैं उस एक्सीडेंट में बच गया था, पापा… माँ ने बचाया था मुझे, उन्होंने मेरी जान बचाने के लिए खुद को कुर्बान कर दिया… मैं यहीं था… वहीं… तहख़ाने में… रणवीर ने… मुझे…”
उसका वाक्य अधूरा रह गया। शमशेर दौड़ता हुआ उसके पास पहुँचा।
उसने उसे बाँहों में भर लिया — जैसे बरसों की बर्फ अचानक पिघल गई हो, जैसे किसी बंजर धरती पर बारिश की पहली बूँदें गिरी हों।
“नहीं… नहीं… ये सपना है… ये सच नहीं हो सकता…” शमशेर बुदबुदा रहा था। उसकी आँखों से आँसू छलक कर प्रणव के कंधों पर गिर रहे थे।
प्रणव की पीठ पर उसका हाथ धीरे-धीरे थरथराता हुआ चल रहा था। उस अधजले चेहरे को उसने अपने काँपते हाथों से छुआ।
“किसने… ये सब… तेरे साथ…”, लेकिन शमशेर की आवाज़ जवाब नहीं चाहती थी — वो सिर्फ उस खोए हुए वक्त को महसूस करना चाहता था, जब उसका बेटा उससे छीना गया था।
उसने प्रणव के माथे को चूमा। और उस चुम्बन में एक पिता की टूटी आत्मा, अधूरा प्यार और घुटी हुई प्रार्थनाएँ सब समा गईं।
“तू… ज़िंदा है… मेरा बेटा ज़िंदा है…”
झोपड़ी के कोने में सुहानी खड़ी थी — उसकी आँखें भर आई थीं। मगर वो जानती थी… आज शमशेर सिर्फ अपने बेटे से नहीं मिला था — आज एक पिता फिर से ज़िन्दा हो गया था।
इस सालों पुराने मिलन का क्या कभी आरव हिस्सा बन पायेगा?
क्या वो जिंदा है भी या नहीं?
रणवीर कौन सा नया खेल खेलने वाला है?
ये जानने के लिए पढ़ते रहिये, ‘रिश्तों का क़र्ज़।’
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