“तैयार हो?” आरव की आवाज़ धीमी, लेकिन उसमें एक अजीब सी दृढ़ता थी। आज वो किसी को भी उसके अपनों को चोट पहुंचाने नहीं देगा।

सुहानी ने बगल में बैठे प्रणव की तरफ देखा। उसकी हालत अब भी बहुत नाज़ुक थी — चेहरा पीला, होंठ सूखे, शरीर थरथरा रहा था। लेकिन उसकी आँखों में... अब डर नहीं था। बस एक उम्मीद थी, और उस उम्मीद की लौ में कई अधूरी साँसें जल रही थीं।

"हाँ," प्रणव ने बहुत धीमी लेकिन ठोस आवाज़ में कहा, “मैं अब और यहाँ नहीं रुकना चाहता।”

आरव ने सिर हिलाया और तुरंत बालकनी की तरफ बढ़ा। उसने पहले रस्सी को रेलिंग से कसकर बाँधा, और उसके मजबूती से जुड़ने के बाद वो नीचे झाँक कर देखता है। फिर सुहानी की तरफ देखकर उसने आँखों से इशारा किया।

“मैं पहले जाता हूँ। तुम प्रणव को धीरे-धीरे नीचे उतारना….फिर तुम आना।” सुहानी ने उसकी आँखों में देखा, हल्के से सिर हिलाया।

आरव एक झटके में रस्सी से लटकते हुए नीचे उतर गया — उसकी हर हरकत में सावधानी थी। जैसे कोई योद्धा अपने आखिरी युद्ध में उतर रहा हो। नीचे उतरते ही वो एक किनारे में छुप गया, और ऊपर देखकर दो बार हाथ से इशारा किया — “अब भेजो।”

धीरे-धीरे, बहुत सावधानी से सुहानी ने प्रणव को रस्सी से लटकाया। आरव नीचे से उसे थामने को तैयार खड़ा था। जैसे ही प्रणव नीचे पहुँचा, आरव ने उसे संभाल लिया। फिर सुहानी खुद नीचे उतरी — चुपचाप, तेज़ धड़कते दिल के साथ।

 

तीनों अब हवेली के पिछले हिस्से में थे।

चारों ओर गहरा अंधेरा और सन्नाटा पसरा था। दूर से सिर्फ़ एक बूढ़े पंखे की घरघराहट सुनाई दे रही थी। हवेली के उस हिस्से में नौकरों का एक गुप्त रास्ता था, जो अक्सर बंद रहता था — और वही था उनका इकलौता, आज़ादी तक पहुंचने का रास्ता।

आरव आगे-आगे चल रहा था, बीच में सुहानी और उसके सहारे लड़खड़ाते हुए चलता, प्रणव। हर दो कदम पर प्रणव गिरने को होता, और सुहानी उसे संभाल लेती — “संभलो प्रणव... बस थोड़ी दूर और।”

आरव आसपास नज़र रखे हुए था, हर खटका, हर परछाई को पढ़ता हुआ। वो गार्ड्स का ध्यान भटकाने के लिए रास्ते में छोटे-छोटे पत्थर फेंकता, कहीं काँच तोड़ता, कहीं दरवाज़ा धकेलता — ताकि सुरक्षा का फोकस इधर-उधर बंटा रहे।

"जल्दी करो," उसने फुसफुसाते हुए कहा, “हम ज़्यादा देर छुप नहीं पाएँगे।”

सामने एक संकरी गली में घुसते ही अचानक प्रणव का पैर फिसला और वो धड़ाम से गिर पड़ा।

"प्रणव!" सुहानी ने झुक कर उसे सहारा दिया।

"मुझसे नहीं हो रहा अब... तुम लोग जाओ..." उसकी आवाज़ टूटी हुई थी।

"बकवास मत करो," आरव ने उसकी बांह अपने कंधे पर रखी, “हम तीनों साथ निकले हैं, तीनों साथ ही जाएंगे, कोई पीछे नहीं छूटेगा।”

सुहानी की आँखें भर आईं, लेकिन वक्त रोने का नहीं था।

"बस कुछ ही दूर और," उसने प्रणव से कहा — और शायद खुद से भी।

अभी बहुत कुछ होना बाकी था…सामने गली के उस पार वो पुराना दरवाज़ा था — जिससे निकलकर वो उस दुनिया में वापस लौट सकते थे जो राठौर परिवार के धूर्त लोगों की पहुंच से काफ़ी दूर था। मगर उनके पीछे जो राज़, जो ज़ख्म, जो साज़िशें थीं... वो शायद हमेशा उनके साथ चलने वाली थीं, ठीक एक काले साये की तरह।

 

हवेली के भारी गेट खुले नहीं थे… धकेले गए थे और उनके पीछे खड़ा था रणवीर राठौर — उसकी चाल में वही पुराना गुरूर, वही जानलेवा ठंडापन और आँखों में वही आग… जो इस बार किसी को जला देने के लिए काफी थी।

हवेली के अंदर कदम रखते ही उसने अपने काले चमड़े के दस्ताने उतारे और उन्हें अपने कोट की जेब में डाला। उसके चेहरे पर शिकारी वाली मुस्कान थी — जो तब आती जब उसे अपने शिकार की बू मिल चुकी हो।

“कहाँ हैं वो दोनों?” उसने अपने तीखे शब्दों में पूछा। आवाज़ धीमी थी, लेकिन उस खामोशी में भी एक धमाका छुपा था।

गौरवी और दिग्विजय हड़बड़ा गए, "अभी तक पता नहीं चला..." गौरवी ने घबराहट में कहा, “मीरा भी गायब है…उसका फोन भी बंद है।”

रणवीर ने एक झटके में अपना सिर गौरवी की तरफ घुमाया। उसकी आँखें अब सुलगने लगी थीं….“मीरा गायब है? और तुम लोगों को, सिर्फ़ ‘पता नहीं’ कहना आता है?” उसकी आवाज़ में अब लहू उबालने वाला ज़हर था।

फिर वो तेज़ी से आगे बढ़ा, सीधा स्टडी की ओर गया जहाँ दिग्विजय ने CCTV मॉनिटर लगाए थे। एक बटन दबाते ही स्क्रीन पर हवेली के हर कोने की झलक नज़र आने लगी — बालकनी, मुख्य द्वार, पिछला रास्ता, नौकरों की एंट्री... और तहखाना।

रणवीर की नज़रें एक-एक फ्रेम पर घूमती रहीं। फिर उसने गुस्से में एक स्क्रीन की ओर इशारा किया।

“यह दरवाज़ा... यह खुला क्यों है?”

उसका इशारा तहखाने के दरवाज़े की ओर था — जो अब अधखुला था। गौरवी के चेहरे का रंग उड़ गया।

“शायद… शायद मीरा ने—”

"शायद?" रणवीर ने चीखते हुए उसकी बात काट दी, “शायद की वजह से ही तुम आज तक एक मामूली मोहरे से आगे नहीं बढ़ पाई अक्की।”

चारों ओर धुंधली रोशनी थी, कैदख़ाने की दीवारों पर हल्का-हल्का खून और ज़ंजीरों की खन खन आवाज़ गूंज रही थी। मीरा ज़ोर-ज़ोर से चीख रही थी — उसकी आवाज़ में डर, बेचैनी और एक अद्भुत नाटकीयता थी।

“कोई है? कोई मुझे बाहर निकालो! प्लीज़! भगवान के लिए!!”

उसने खुद को ज़मीन पर गिरा लिया था, और अपनी हथेलियाँ ज़ोर से दीवार पर मारने लगी। फिर जैसे कुछ सोचकर, उसने आँखें मूँदीं और सिर घुमाकर, दीवार के कोने पर जाकर अपनी कनपटी से हल्का झटका मारा — ज़रूरत भर की चोट, बस इतनी कि एक छोटी सी खून की लकीर उभर आए।

"ये दर्द… हाँ… अब यकीन करेंगे सब…" उसने बुदबुदाकर अपनी साँसें रोकीं, और फिर और ज़ोर से रोने लगी।

 

उधर—रणवीर, गौरवी और दिग्विजय तेज़ कदमों से तहख़ाने की सीढ़ियाँ उतरते हुए आ रहे थे।

"ये आवाज़… मीरा?" गौरवी चौंकी।

"मैंने कहा था, आरव और सुहानी को जाने मत देना," रणवीर ग़ुस्से में गुरराते हुए आगे बढ़ा।

जैसे ही उन्होंने कैदख़ाने का दरवाज़ा खोला — मीरा ने पूरा शो शुरू कर दिया।

“आंटी!!”

वो चीखती हुई दौड़ी और जाकर गौरवी के गले से लिपट गई। ज़ोर-ज़ोर से सिसकियाँ भरने लगी।

“मुझे लगा आप लोगों ने मुझे मरने के लिए छोड़ दिया है! उन्होंने मुझे यहाँ बंद कर दिया… अंधेरे में… अकेले!”

“किसने बंद किया?” दिग्विजय ने घूरते हुए पूछा।

मीरा ने आँखें फैलाकर कहा — “आरव! और… और सुहानी! उन्होंने किसी अजनबी को यहाँ से ले जाकर भगाने की कोशिश की… उन्होंने कहा कि अगर मैंने किसी को बताया तो… तो वो मुझे भी मार देंगे!”

रणवीर के चेहरे पर ग़ुस्से की लकीरें उभर आईं।

“कौन था वो आदमी?” गौरवी ने पूछा।

मीरा ने रोते-रोते इधर-उधर देखा, फिर थरथराते होंठों से बोली — “मुझे नहीं पता… मगर वो जंजीरों में बंधा हुआ था… और… और उसकी शक्ल…”

वो रुकी, जैसे कुछ सोच रही हो, फिर चौंकने का अभिनय करते हुए बोली — “...वो बिलकुल आरव जैसा दिखता था। उसका चेहरा थोड़ा जला हुआ था… या फिर शायद मैं पागल हो गई हूं। “

तीनों एक पल को सन्न रह गए। रणवीर की मुट्ठियाँ कस गईं…“इसका मतलब… वो हमें चकमा देकर... सब जान गए हैं…”

मीरा ने मौके को पकड़ा, “मैं तो बस… आप लोगों के कहने पर उन्हें रोकने की कोशिश कर रही थी…  मगर सुहानी ने मेरे सर को दिवार में दे मारा… और फिर  उन्होंने मुझे यहीं कैद कर दिया… मुझे वो लोग यहीं बंद कर के चले गए…”

गौरवी ने मीरा के चोट लगे माथे को देखा, और तुरंत विश्वास कर बैठी….“मीरा… वो लोग कहाँ गए हैं? “

रणवीर अब पूरी तरह समझ चुका था — खेल उल्टा पड़ गया है। उसने तेज़ी से वॉकी-टॉकी उठाया और अपनी टीम को हुक्म दिया — “सारे एग्ज़िट पॉइंट्स ब्लॉक कर दो। किसी भी कीमत पर उन्हें हवेली से बाहर निकलने मत देना।"

 

कैदख़ाने के बाहर एक साज़िश का नया दौर शुरू हो चुका था। उसके लहजे में अब कोई इंसानी एहसास नहीं थे। बस एक क्रूर mastermind था, जो अब अपने ही बनाए खेल में इस वक़्त हारता हुआ दिख रहा था। रणवीर की आँखें अब उन भेड़ियों जैसी थीं, जो आखिरी शिकार की गंध से पागल हो चुके हों।

हवेली अब एक बंद पिंजरे जैसी लग रही थी — जहाँ हर कोना किसी खतरे से भरा था, और हर आहट किसी मौत की दस्तक जैसी सुनाई दे रही थी।

 

सुहानी ने एक हाथ से प्रणव को थामा हुआ था, जो चल तो रहा था, पर उसकी थकान हर क़दम पर साफ झलक रही थी। वो उसे सहारा देती हुई पुराने किचन के रास्ते से गुज़रने लगी — वही रास्ता जो कभी नौकरों के आने-जाने के लिए इस्तेमाल होता था। अब वही उनकी एकमात्र उम्मीद थी।

दूसरी तरफ़, आरव सीढ़ियों से होकर स्टडी की तरफ़ बढ़ा — इरादा साफ़ था, गार्ड्स का ध्यान भटकाना। उसने जान-बूझकर कुछ गिराया….आवाज़ गूंजी। दो गार्ड्स दौड़ते हुए उस तरफ़ चले गए। आरव ने फुर्ती से एक और रास्ता चुना — स्टडी से लगा हुआ छोटा स्टोर रूम, जहाँ से वो पीछे की ओर निकल सकता था।

इसी बीच, सुहानी का फोन वाइब्रेट करने लगा। उसने झट से उसे निकाला।

रमेश कॉलिंग…

"हां रमेश?" सुहानी ने फुसफुसाकर कहा।

"मैडम, एम्बुलेंस पीछे वाले सर्वेंट गेट के पास है," रमेश की आवाज़ घबराई हुई थी “लेकिन जल्दी करें, हवेली में सब अलर्ट हो चुके हैं। गार्ड्स अब हर तरफ फैल चुके हैं।”

सुहानी ने एक नज़र प्रणव की ओर डाली, जिसकी साँसे तेज़ चल रही थीं।

"हम आ रहे हैं," उसने संकल्प भरे लहजे में कहा। उसने कॉल काटा और प्रणव का हाथ और कसकर थाम लिया।

"बस थोड़ी देर और... हम निकल जाएंगे," उसने धीरे से कहा — खुद को और प्रणव दोनों को दिलासा देते हुए। 

उसी वक़्त, पीछे से गार्ड्स की कुछ आवाज़ें सुनाई दीं, “उधर गए होंगे… पुरानी रसोई की तरफ़!”

सुहानी का दिल एक पल को थम सा गया।

“तेज़ चलो… जल्दी!” उसने प्रणव को लगभग खींचते हुए कहा।

दूर से किसी के जूतों की आवाज़ तेज़ होती जा रही थी… वो जानती थी — ये एक रेस है… मौत से।

 

स्टडी रूम का भारी दरवाज़ा खोलते ही आरव के कदम जैसे, किसी जाल में पड़ गए थे। सामने रणवीर खड़ा था—काले सूट में, उसके चेहरे पर एक ठंडी मुस्कान और हाथ में चमकती हुई रिवॉल्वर। कमरे में हल्की-सी धूप छनकर आ रही थी, हाँ, सुबह हो चली थी। मगर उस वक़्त, वो रोशनी भी खून से सनी लग रही थी।

"कहाँ जा रहे हो, आरव?" रणवीर की आवाज़ तलवार जैसी चुभी।

“क्या अब तुम भी अपने बाप की राह पर चल पड़े हो? उसी शमशेर राठौर की, जिसे मैं इतने सालों से मिटाना चाहता था?”

आरव की आँखें लाल थीं—गुस्से से नहीं, दुःख और विश्वासघात से।

उसने एक पल को सांस ली और कहा — "तुमने मेरी माँ को मारा, मेरे भाई को मुझसे छीन लिया, मेरे बचपन को झूठ में डुबो दिया। अब और कुछ नहीं छीनने दूँगा, रणवीर…अब नहीं।"

रणवीर की आँखें सिकुड़ गईं। उसने रिवॉल्वर उठाया “तो फिर यहीं मर जाओ।”

धाँय!!

पहली गोली आरव के सिर को छूते हुए निकली — उसकी कनपटी से एक लकीर सी बनाती हुई, खून की धार उभर आई।

दूसरी गोली—

धाँय!!

सीधे उसके सीने में लगी।

आरव पीछे की ओर लड़खड़ाया। कमरे की दीवारें घूमने लगीं। उसकी साँसें भारी हो गईं।

मगर…वो गिरा नहीं।

उसका बदन कांप रहा था, शर्ट खून से भीग चुका था, मगर उसकी आँखें अब भी रणवीर पर जमी हुई थीं।

वो एक कदम पीछे हटा, तभी…दरवाज़े से रमेश अंदर घुसा — हाथ में एक छोटा बैग और चेहरे पर घबराहट।

आरव ने काँपते हाथ से उसे इशारा किया।

“...ले जा इन्हें... अभी।”

रमेश समझ गया, उसने तुरंत मुड़कर बाहर देखा और दौड़ते हुए सुहानी और प्रणव की ओर बढ़ा। आरव वहीं खड़ा रहा, रणवीर की आँखों में आँखें डालकर — ज़मीन पर गिरते हुए भी... एक दीवार बनकर।

रणवीर ने तीसरी गोली चलाई —

धाँय!!

लेकिन इस बार…कमरा खाली हो चुका था।

 

हवेली के पिछले हिस्से में छुपी एम्बुलेंस की हल्की सी आवाज़, जैसे उम्मीद की धीमी दस्तक थी।

रमेश ने बिना एक पल गंवाए गाड़ी का पिछला दरवाज़ा खोला और सुहानी को इशारा किया, “जल्दी बैठिए… जल्दी!”

सुबकती हुई सुहानी ने प्रणव को सहारा देकर अंदर बैठाया। उसकी साँसें काँप रही थीं, दिल अब भी आरव को लगी गोलीयों की आवाज़ में अटका था।

“आरव... आरव को भी लाओ!” उसकी आवाज़ टूट गई, आँखों में डर और बेचैनी थी।

रमेश एक पल के लिए रुका। उसने सुहानी की आँखों में देखा, फिर कड़क आवाज़ में कहा, “मैं उसे ले आऊंगा, अभी आप निकलिए। अगर आपने देर की, तो वो लोग हम सबको मार देंगे। प्लीज़।”

और फिर उसने सुहानी का दरवाज़ा बंद कर दिया।

ठाक!

गाड़ी स्टार्ट हुई और कुछ ही सेकंड में, एम्बुलेंस धूल उड़ाते हुए उस अंधेरी गली में गुम हो गई… पीछे रह गए बस कुछ बिखरे पत्ते, और रणवीर के आदमियों की बौखलाहट।

रणवीर और उसके आदमी दौड़ते हुए गेट तक पहुँचे।

“गाड़ी रोकों!”

“उस एम्बुलेंस को पकड़ो!”

मगर बहुत देर हो चुकी थी, एम्बुलेंस अब उनकी पहुंच से दूर थी।

 

दूसरी तरफ—

हवेली के भीतर, स्टडी से कुछ कदम दूर, तहख़ाने की सीढ़ियों के पास…आरव दीवार के सहारे बैठा था। उसका सिर खून से लथपथ था, और सीने पर लगा ज़ख्म अब बुरी तरह से जल रहा था। लेकिन उसकी आँखों में... एक अजीब सा सुकून था।

हाँ, वो दर्द में था। साँसें भारी थीं। मगर उसके चेहरे पर... एक हल्की मुस्कान तैर रही थी। क्योंकि आज, उसने अपना भाई वापस पाया था। जिसे वो बरसों पहले खो चुका था…वो आज ज़िंदा था। और वो जानता था — चाहे वो आज ज़िंदा रहे या न रहे, सुहानी और रमेश प्रणव को बचा ले जाएंगे।

उसकी पलकें भारी हो रही थीं…लेकिन आखिरी बार उसने आसमान की ओर देखा और बुदबुदाया — “सुन रही हो माँ… तुम्हारे इस बेटे ने आज अपने भाई को बचा लिया...।”

धीरे-धीरे उसकी पलकें बंद हो गईं। 

सिलसिला अभी खत्म नहीं हुआ था… मगर इस जंग का सबसे बड़ा मोड़ पार हो चुका था।

 

क्या आरव की क़ुरबानी सफल साबित होगी? 

रणवीर चाचू अब कौन सा रास्ता अपनाएंगे? 

सुहानी और प्रणव शमशेर तक सही सलामत पहुँच पाएंगे?

जानने के लिए पढ़ते रहिये, ‘रिश्तों का क़र्ज़।’

 

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