“उन्हीं का हाथ है इन सब के पीछे।” ये शब्द सुहानी के मुँह से निकले थे, मगर आरव के कानों में जैसे तूफ़ान की तरह गूंजे।
"क्या...?" उसने फुसफुसाते हुए कहा, "तुम क्या कह रही हो सुहानी?"
"हाँ," सुहानी की आवाज़ में अब डर नहीं, यकीन था, “जिसका नाम वीडियो में नहीं था, पर जिसकी मौजूदगी ने सबको डरा रखा था... वो और कोई नहीं, रणवीर राठौर हैं…तुम्हारे चाचू।”
आरव चुप हो गया, कमरे में घड़ी की टिक-टिक भी अब भारी लग रही थी।
“जिस इंसान ने मुझे बचपन में गोद में उठाया था... जिस पर मैंने माँ के बाद सबसे ज़्यादा भरोसा किया...”
उसने एक कड़वी हँसी के साथ— जो हँसी से ज़्यादा घुटन से भरी चीख़ थी।
“तो मैं क्या था? सिर्फ़ एक मोहरा?”
"हम सब," सुहानी ने धीमे से कहा, “सिर्फ़ मोहरे थे। तुम, मैं... और प्रणव।”
आरव ने उसकी तरफ देखा। उसकी आँखें अब भीगी हुई थीं, लेकिन उनमें नफ़रत की आग सुलग रही थी, "अब और नहीं। अब वक़्त है, उन्हें उसी खेल में मात देने का…हमें आज रात ही उसे निकालना होगा, सुहानी," आरव बोला, उसकी आवाज़ में अब डर नहीं था—बस दृढ़ता थी।
"लेकिन कैसे?" सुहानी बोली, “मुझे उस वॉर्डबॉय को contact करना पड़ेगा।”
“कौन?”
“जिसने मुझे हॉस्पिटल में पेन ड्राइव दी थी। जिस दिन उस आदमी ने मुझ पर हमला किया था... मुझे लगता है, उसे भी रणवीर ने ही भेजा था।”
आरव चौंका, “क्या?”
"हाँ," सुहानी ने कहा, “और उसी वॉर्डबॉय ने मेरी जान बचाई थी। और बाद में उसने बताया था कि उसे तुम्हारे पापा — शमशेर राठौर ने भेजा था।”
"पापा..." आरव की आँखों में एक हल्की सी चमक उभरी, “वो ज़िंदा हैं और हमें बचा रहे हैं, छिप-छिपकर।”
"अब समय है, कि उन्हें सब बताया जाए।"
कुछ मिनट बाद…
सुप्त अंधेरे में, सुहानी ने उस वॉर्डबॉय को कॉल किया। दूसरी तरफ से जब हल्की आवाज़ आई, तो सुहानी ने एक-एक शब्द बहुत संभलकर कहा, "हमें आपको कुछ बताना है। कुछ बहुत जरूरी…"
आरव ने धीरे से फ़ोन लिया और आगे बोला — “प्रणव... मेरा भाई... ज़िंदा है, उसी तहख़ाने में और अब हमें उसे निकालना है।”
वॉर्डबॉय चुप रहा, फिर धीरे से बोला, "मैं शमशेर साहब को बताता हूँ… वो इंतज़ार कर रहे थे इस पल का।"
आधे घंटे बाद…वॉर्डबॉय का कॉल वापस आया।
“शमशेर साहब ने लोकेशन भेज दी है। उन्होंने कहा है — 'प्रणव को वहां ले आओ। उसके बाद मैं संभाल लूंगा। अब कोई उसे नुकसान नहीं पंहुचा पायेगा।'”
आरव और सुहानी एक-दूसरे की ओर देखते हैं — अब उनके पास एक रास्ता था और सिर्फ़ एक मौका।
राठौर हवेली से कुछ मील दूर — एक फार्म हाउस के अंधेरे कमरे में रणवीर राठौर बैठा था। उसके सामने दिग्विजय और गौरवी बैठे थे…माहौल गंभीर था।
रणवीर ने धीमे, मगर सख्त लहजे में कहा, "आरव उसकी मदद कर रहा है"
गौरवी का चेहरा सन्न रह गया…."क्या?"
"हाँ," रणवीर ने गहरी सांस ली, “वो दोनों मिले हुए हैं। आरव बस दिखावा कर रहा था, तुम लोगों का वफादार होने का। लेकिन असल में... वो हमारे खिलाफ जा चुका है।”
"तो अब?" दिग्विजय ने पूछा।
रणवीर की आवाज़ अब बर्फ जैसी थी, “उसे सब पता है और जल्द ही… उन्हें प्रणव के बारे में भी पता चल जाएगा। वो इस लायक नहीं है कि उसे अब कही और शिफ्ट करने में हम अपना वक़्त ज़ाया करें। हमें उसे रास्ते से हटाना होगा, और इस बार सच में….वारना गड़बड़ हो जायेगी।”
"उसे?" दिग्विजय ने पूछा।
“प्रणव को! इससे पहले कि वो उस तक पहुंच जाएँ, हमें उस रास्ते की मंज़िल को ही ध्वस्त करना होगा। हमें अभी के अभी हवेली के लिए निकलना होगा। अक्की, आप उस लड़की को फ़ोन कर के कहिये वो सुहानी और आरव पर नज़र रखे। क्या नाम है उसका? हाँ, मीरा! वो किसी भी हाल में प्रणव तक नहीं पहुंचने चाहिए, और ना ही उन्हें उस घर से बाहर निकलने देना है।”
बिजली चमकी, रणवीर के कदमों की गूंज पूरे फार्महाउस में फ़ैल गयी, और शायद हवेली तक भी पहुंच गयी थी क्योंकि सुहानी और आरव अब सतर्क हो गए थे।
हवेली में अंधेरा और गहरा हो चुका था। हर कोने में अँधेरा था, पर इस अँधेरे के पीछे अब साज़िशें नहीं… एक उम्मीद छुपी हुई थी। राठौर हवेली की ऊँची दीवारों से दो परछाइयाँ सरकती हुई बालकनी की रेलिंग तक पहुंचीं। सुहानी और आरव—अब साथ थे, एक ही मकसद लिए।
नीचे गार्ड्स की आवाजाही जारी थी, लेकिन ये पहली बार नहीं था जब सुहानी ने इन रास्तों पर चुपचाप चलना सीखा था। और इस बार, आरव भी उसके साथ था—अब पूरी तरह उसके इरादों में शामिल।
सुहानी ने इशारे से उसे रुकने को कहा, और अपने हल्के कदमों से आगे बढ़ी। गार्ड की नजरें हटते ही, उसने बालकनी से फुर्ती से छलांग लगाई—आरव ने पीछे से हाथ बढ़ाया, और दोनों लगभग एक ही पल में उस बालकनी तक पहुँच गए जो दिग्विजय राठौर के स्टडी रूम से जुड़ी थी।
दरवाज़ा खुला हुआ था। सुहानी ने ही उसे कुछ देर पहले खोला था, एक पिन से, जब वो अकेली आई थी।
"ये ट्रिक सही वक़्त पर काम आई," उसने हल्के से मुस्कुराते हुए फुसफुसाई।
“क्लिक।”
दोनों एक-दूसरे की आँखों में देखे बगैर ही कमरे में घुस गए। आरव ने तस्वीर को ऊपर उठाया और “घ्र्र्र…” दीवार खिसकी। तहख़ाने की साँकल भरी सीढ़ियाँ नज़र आईं।
नीचे जाकर दीवार पर लगी उस ईंट को दबाया जो छुपा हुआ रास्ता खोलती थी।
दरवाज़ा खुलने पर, "चलो," सुहानी ने धीरे से कहा, और मशाल जलाते हुए वो सीढ़ियाँ उतरने लगी।
आरव एक पल को ठिठक गया।
उसके लिए ये सिर्फ़ कोई तहख़ाना नहीं था—ये उसकी ज़िंदगी की सबसे बड़ी सच्चाई से टकराने का रास्ता था। उसके क़दम धीमे हो गए, पर फिर सुहानी की पीठ को देखते हुए उसने लंबी साँस ली और वो भी उसके पीछे उतर गया।
नीचे अजीब सी नमी थी, दीवारें सीलन से भरी थीं, लेकिन कोई आवाज़ नहीं थी। यानी अब तक किसी ने कोई हरकत नहीं की थी। मगर इसका ये मतलब नहीं था कि उनके पास बहुत वक़्त था।
"हमें जल्दी करना होगा," आरव ने धीमे से कहा।
सुहानी ने हामी में सिर हिलाया और तुरंत दीवारों को टटोलने लगी। हर ईंट को ध्यान से देखा—हाथ रगड़-रगड़ कर देख रही थी, कि कौन सी ईंट ढीली महसूस होती है।
कुछ मिनटों के बाद…
“ये रही…” उसने एक ईंट को दबाया, और एक धीमी आवाज़ के साथ एक छोटा-सा लोहे का दरवाज़ा खुल गया।
"चलो," उसने बिना पल भर रुके कहा और झुक कर उस रास्ते में घुस गई।
आरव ने कुछ सेकंड का वक़्त लिया। उसका दिल बहुत तेज़ धड़क रहा था, उसे नहीं पता था कि वो क्या देखने वाला है। पर फिर भी… वो आगे बढ़ा।
अंदर…अँधेरा और घुटन। पत्थर की दीवारें, पुरानी जंजीरें और एक अजीब सी गंध। सुहानी उसे अंदर ले आई, और धीरे से उसका हाथ पकड़कर रोशनी की सीधी रेखा की तरफ इशारा किया।
“देखो…”
उसने धीरे से टोर्च उठाई—और रोशनी सीधे एक कोने में ले जाकर रोकी।
वहाँ बैठा था… प्रणव।
इस बार वो डरा नहीं था। वो किसी को देखकर दुबका नहीं था। उसकी पीठ दीवार से लगी थी, और वो सुहानी को आते देख चुका था।
मगर जैसे ही उसकी नज़रें आरव पर पड़ीं— उसका चेहरा सख्त हो गया। आँखें फैल गईं, होंठ हल्के से काँपे।
"आरव…?" उसकी आवाज़ आई नहीं, बस उसके होंठ हिले।
वो बिल्कुल वैसे ही दिख रहा था, जैसे सुहानी ने बताया था।
बिखरे हुए बाल, झुलसा हुआ आधा चेहरा, मगर आँखें… अब भी आरव जैसी।
आरव बस देखता रहा….उसकी आँखें भर आई थीं, पर कुछ कहने की हिम्मत नहीं हुई। कई सालों की एक सच्चाई, एक झूठ, एक जहर—आज उस अंधेरे कोने में सामने खड़ा था। वो चुप था और प्रणव भी। बीच में बस सुहानी खड़ी थी—उन दो हिस्सों के बीच पुल बनकर, जो एक ही थे... लेकिन सालों से टूटे हुए थे।
“भाई…?” प्रणव की आवाज़ टूटी हुई थी, पर उसमें जितना यकीन था, उतनी ही सालों की बेचैनी।
आरव बस देखता रहा… जैसे उसकी आँखें अब भी यकीन नहीं कर पा रही थीं कि उसके सामने वही है — जिसे वो सालों पहले खो चुका था।
एक कदम… फिर दूसरा… और फिर अचानक से जैसे सब कुछ भूलकर, वो तेज़ी से आगे बढ़ा और अपने भाई से लिपट गया।
दोनो भाई — आरव और प्रणव — एक दूसरे के गले लगकर फूट-फूट कर रो पड़े। कोई शब्द नहीं था उनके बीच… सिर्फ़ आँसू। सालों की दूरी, गलतफहमियाँ, झूठ, दर्द और साज़िशें — सब उस एक पल में पिघलते चले गए। वो एक ऐसा लम्हा था, जो न आरव ने कभी सोचा था, न प्रणव ने कभी उम्मीद की थी।
“मुझे लगा था तू… भी हम सब को छोड़कर चला गया,” आरव की आवाज़ कांप रही थी।
“और मुझे लगा… तुझे भी इन लोगो ने नुकसान पहुंचाया,” प्रणव की आँखों से बहते आँसू एक टूटी हुई दुनिया की कहानी कह रहे थे।
“मैंने, ना जाने कितनी ही बार ऊपर वाले कमरे में घंटों बिताये, और मेरा भाई यहाँ सालों तक कैद रहा? सहता रहा, मेरा दिल फटा जा रहा है, ये सोच सोच कर मेरे भाई।”
सुहानी थोड़ी दूर खड़ी ये सब देख रही थी। उसकी आँखें भी भर आई थीं। आज वो सिर्फ़ किसी की एक बेटी या बहन नहीं थी…आज वो एक और टूटे हुए परिवार की डोर बन चुकी थी।
लेकिन तभी...
“ये… क्या हो रहा है यहाँ?”
एक सख़्त, घबराई हुई आवाज़ तहख़ाने की दीवारों से टकराई….मीरा।
आरव और सुहानी दोनों ने एक झटके में मुड़कर देखा।
वो वहीं खड़ी थी — कैदखाने के दरवाज़े पर — आँखें चौड़ी, चेहरे पर अविश्वास।
कुछ वक़्त पहले गौरवी का कॉल मीरा के फोन पर आया था।
“ध्यान रखना, आरव और सुहानी किसी भी हाल में तहख़ाने तक नहीं पहुँचने चाहिए। दोनों पर नज़र रखो — और खासकर उस लड़की पर।”
मीरा ने कॉल काटते ही जल्दी से जाकर कमरे के बाहर तैनात गार्ड से पूछा —
“क्या आरव या सुहानी कमरे से बाहर भी निकले हैं?”
गार्ड ने गर्व से कहा —
“नहीं, दोनों अंदर हैं। मैं पूरा ध्यान दे रहा हूँ।”
मीरा ने सर हिलाया और गौरवी को रिपोर्ट दे दी। पर वापस मुड़ते वक़्त उसका दिल मान नहीं रहा था।
“चलो, एक बार खुद ही देख लूँ,” वो बुदबुदाई।
आरव के कमरे में दाखिल होते ही उसे बिस्तर पर कोई लेटा हुआ दिखा — चादर तनी हुई थी… सब कुछ शांत। मगर उसका दिल बेचैन था। धीरे-धीरे उसने चादर हटाई —और उसके नीचे निकले सिर्फ़ तकिए। मीरा की आँखें चौड़ी हो गईं।
“गौरवी आंटी… दोनों कमरों में नहीं हैं!” उसने घबराते हुए कॉल किया।
हवेली के गलियारों से गुज़रते हुए, वो तहख़ाने की तरफ बढ़ी, पर सामने बस एक साधारण सी दीवार थी। कोई दरवाज़ा नहीं, कोई रास्ता नहीं।
“किधर गए होंगे ये लोग...?” वो बुदबुदाई।
क़दम धीरे-धीरे बढ़ते हुए जब वो दिग्विजय की विशाल तस्वीर के पास पहुँची, तो कुछ अनोखा महसूस हुआ। कुछ सेकंड रुकी, और फिर जैसे ही उसने वो फ़ोटो थोड़ा खिसकाया—
"टक!"
एक हल्की सी आवाज़ के साथ सामने की दीवार खिसक गई….तहख़ाने का दरवाज़ा।
मीरा ठिठक गई। दिल की धड़कन और बढ़ गई थी। डर और जिज्ञासा का अजीब सा मिश्रण उसके अंदर हिलोरे मार रहा था। उसने अपने फ़ोन का फ्लैश ऑन किया और साँस थामे वो तहख़ाने की अंधेरी, संकरी सीढ़ियां उतरने लगी। हर कदम के साथ घुटन और ठंडक महसूस होने लगी। नीचे उतर कर उसने चारों ओर नज़रें दौड़ाई। चारों तरफ़ वीरानी थी। बस एक कोना था जहां से हल्की सी रोशनी बाहर आ रही थी—जैसे किसी बंद कमरे का दरवाज़ा आधा खुला हो।
उसी ओर मीरा बढ़ी। जैसे-जैसे पास पहुँची, वैसे-वैसे कुछ अनहोनी की आहट तेज़ होती गई। उसके कानों ने साफ़-साफ़ किसी के रोने की आवाज़ सुनी थी। अब उसके कदम भारी हो गए थे, लेकिन रुकने का सवाल ही नहीं था। वो धीरे-धीरे उस दरवाज़े तक पहुँची—और फिर सामने का दृश्य देख कर उसकी साँसें थम गईं।
कमरे के अंदर, हल्की रोशनी के बीच, सुहानी अपनी पीठ किए खड़ी थी। कुछ कह रही थी, शायद खुद से, शायद किसी और से…और आगे, कुछ दूरी पर…आरव।
वो किसी के सामने झुका हुआ था।
मीरा ने और करीब जाकर देखा—आरव किसी को गले लगाए हुए था... और बुरी तरह रो रहा था।
वो इंसान जंजीरों में जकड़ा हुआ था। कमज़ोर, थका हुआ, और अजीब सी परछाई में डूबा चेहरा।
मीरा की आँखें चौड़ी हो गईं। उसके हाथ कांपने लगे।
"ये... ये हो क्या रहा है?" उसकी आवाज़ कमरे में गूंज उठी।
सभी चौंक गए….सुहानी फौरन पलटी। आरव का चेहरा भी ऊपर उठा। कमरे की ख़ामोशी अब एक अजीब सी बेचैनी में बदल चुकी थी।
“क्या कर रहे हो तुम लोग यहां नीचे?” मीरा ने फिर से पूछा, इस बार उसकी आवाज़ और तीखी थी। लेकिन अब उसमें डर भी घुल चुका था और तभी… उसकी नज़रें सीधे उस आदमी पर गई, जिसे आरव पकड़े बैठा था।
मीरा के पाँव वहीं जम गए, “ये कौन है…?” वो बुदबुदाई।
धीरे-धीरे वो आगे बढ़ी… हाथ अब भी कांप रहे थे। वो उस ज़ंजीर में बंधे इंसान के सामने झुकी। अपने फोन का फ्लैश उसके चेहरे की ओर किया और जैसे ही रोशनी उस झुलसे हुए चेहरे पर पड़ी— मीरा की आँखें फटी रह गईं। उसके होठ खुले रह गए, जैसे वो कुछ कहना चाह रही थी... मगर आवाज़ नहीं निकल रही थी।
“ये... ये तो तुम्हारा जुड़वाँ भाई है...” उसकी आवाज़ काँप रही थी, “…जो बचपन में… मर गया था।” मीरा अब उस सच के सामने खड़ी थी, जिसे इतने सालों तक दबाया गया था। जिसे इस हवेली की दीवारों ने छिपा रखा था।
आरव और सुहानी अब भी एक-दूसरे को देख रहे थे, जैसे दोनों के बीच हज़ार सवाल, हज़ार अनकहे जवाब तैर रहे हों।
मगर प्रणव…उसकी नज़रें अब मीरा पर टिकी हुई थीं। वो लड़की जो उसके सामने खड़ी थी — हाथ में फ़ोन, जिसकी टॉर्च अब भी उसके चेहरे पर सीधी पड़ रही थी।
मीरा भी उस जले हुए, थके हुए चेहरे को देखती रही… जैसे उस चेहरे ने उसे झिंझोड़ दिया हो। वो धीरे से पीछे हटी, अपनी जगह से उठी, और फिर चुपचाप घूमकर आरव की ओर देखने लगी। उसकी आँखों में एक गहरी तकलीफ तैर रही थी।
“उन लोगों ने इसे… इतने सालों तक… यहाँ क़ैद कर के रखा था?” उसकी आवाज़ सिसकियों में डूबी हुई थी।
कोई जवाब नहीं दे सका।
उसकी नज़रें अब चारों ओर घूम रही थीं — उस कमरे की दीवारों पर, ज़ंजीरों पर, और उस अंधेरे पर जिसमें एक इंसान को जानवर बना दिया गया था।
“इन लोगों ने और कितने राज़ दबा रखे हैं, आरव?” वो अब काँपते स्वर में बोल रही थी, “इंसानों की कोई कीमत नहीं रह गई क्या इनकी नज़रों में?”
“ये लोग कुछ भी कर सकते हैं... बस अपने मतलब के लिए…” वो अचानक चिल्ला उठी। उसकी आवाज़ में घुटन थी, घृणा थी… और पछतावा भी।
आरव, सुहानी और प्रणव — तीनों कुछ पल के लिए मीरा को बस देखते रहे। मीरा ने धीरे से अपनी साँसों को संयमित किया। फिर वह बिना किसी और शब्द के आगे बढ़ी। उसने प्रणव के पास जाकर, अपने छोटे बैग से एक चाभी निकाली। चुपचाप, बहुत सावधानी से उसने उसकी ज़ंजीरों में लगे ताले को खोलना शुरू किया।
“इसे जल्दी यहाँ से ले जाओ…” मीरा की आवाज़ अब भारी थी, “वो लोग रास्ते में ही होंगे। ज़्यादा वक़्त नहीं है हमारे पास।”
ताले जैसे ही खुले, प्रणव हौले से हिला। उसकी हड्डियाँ कंपकंपा रही थीं। वो सीधा खड़ा नहीं हो पा रहा था। मीरा ने झुककर उसका हाथ थामा और उसे सहारा दिया। जैसे ही वो लड़खड़ाया, आरव तुरंत आगे बढ़ा। उसने प्रणव को अपने कंधे पर टिका लिया, जैसे एक भाई… अपने बिछड़े जुड़वां को फिर से थाम रहा हो।
मीरा पीछे हट गई, लेकिन उसकी आँखें अब भी नम थीं। उसका दिल अब तकलीफ़ में था — उसे शर्मिंदगी अंदर से खा रही थी।
“मुझे माफ कर दो, आरव…” उसकी आवाज़ कांप रही थी, “मैंने बहुत बुरा किया… तुम्हारे साथ, और तुम्हारे साथ भी, सुहानी…”
उसने सुहानी की तरफ देखा, जो चुपचाप खड़ी थी, मगर उसकी आँखों में भी नरमी थी।
“कुछ पैसों के लिए... मैंने तुमसे प्यार का नाटक किया…” मीरा की आवाज़ टूटती जा रही थी।
“मैं... मैं सोच भी नहीं सकती थी कि बात इतनी दूर चली जाएगी। मुझसे बहुत बड़ा पाप हो गया है…”
आरव ने एक पल को प्रणव की तरफ देखा, फिर मीरा की तरफ।
“हमें इस बात की खबर बहुत पहले ही हो गई थी, मीरा।” उसकी आवाज़ धीमी मगर साफ़ थी।
“हमने तुम्हें उस दिन लाइब्रेरी में… गौरवी से बात करते हुए सुन लिया था।”
मीरा की आँखें चौड़ी हो गईं। उसकी पलकों पर शर्म का साया उतर आया।
“मैं बहुत नाराज़ था तुमसे…” आरव ने कहा, मगर अब उसकी आवाज़ में वो क्रोध नहीं था। उसमें एक थकावट थी… और शायद कुछ राहत भी।
फिर आरव ने हल्के से कहा— “मगर अब तुम्हें अपनी गलती का एहसास है… और शायद बस यही सबसे बड़ा बदलाव है।”
चारों का हाल अब एक जैसा ही हो चुका था — टूटी उम्मीदों के हिस्सेदार, एक ही साज़िश के शिकार... और एक ही सच्चाई से जूझते हुए।
अब अगला कदम था — भागना, बचाना और उस मासूम को उस तहख़ाने से बाहर निकालना… जिसने सालों तक उजाले का चेहरा नहीं देखा था।
मीरा ने धीमे से सिर उठाया, उसकी आँखों में अब आँसू नहीं, सुकून था। आरव की ओर देखते हुए उसने एक हल्की मुस्कान दी, जो कहीं न कहीं अपने अंदर हज़ार अफसोस समेटे हुए थी।
“तुम एक अच्छे इंसान हो, आरव। और सुहानी... तुम भी। ना जाने तुमने मेरे कितने सितम झेले हैं। जितनी बार भी माफ़ी मांग लूं, कम है... पर अभी सबसे ज़रूरी है — तुम लोगों का यहाँ से जल्द निकल जाना।”
उसकी आवाज़ में अब डर नहीं था, बल्कि एक अजीब सा आत्मबल था, जो खुद को मिटाकर दूसरों को बचाने से आता है।
“हाँ, जल्दी चलो।” सुहानी ने फौरन कहा, “हम पीछे वाले रास्ते से जाएंगे, जहाँ से घर के नौकर-चाकर आते-जाते हैं। वहीं रमेश — वही वॉर्डबॉय — एम्बुलेंस लेकर हमारा इंतज़ार कर रहा होगा। शमशेर अंकल ने सब इंतजाम करवा दिए हैं।”
वो आगे बढ़ी और आरव और प्रणव को इशारा किया। मगर जैसे ही वो तीनों कैदख़ाने के दरवाज़े तक पहुँचे, मीरा ठिठक गई। उसने धीरे से प्रणव का हाथ अपने कंधे से हटा कर सुहानी को पकड़ाया, और खुद दो कदम पीछे हट गई।
“मुझे यहीं बंद कर दो।” उसकी आवाज़ शांत थी, लेकिन उस शांति के पीछे एक बड़ा तूफ़ान था।
“क्या? नहीं मीरा, हम ऐसा कुछ नहीं करने वाले!” सुहानी ने कहा।
“सुहानी, समझो... वो लोग बस कुछ ही पल दूर हैं। मेरे पास थोड़ा वक्त है। मैं उन्हें उलझा सकती हूँ, उन्हें लगेगा कि मैं अकेली हूँ। जब तक वो मुझे पकड़ेंगे और सवाल करेंगे, तब तक तुम तीनों बहुत दूर निकल चुके होगे।”
“लेकिन... वो तुम्हें छोड़ेंगे नहीं...” आरव की आवाज़ अब भी कांप रही थी।
मीरा ने उसकी आँखों में देखा, और फिर मुस्कुराई। “आरव... एक बार तो मुझे पछतावे का मौका दो ना। ये मेरी माफी नहीं है, मेरा पश्चाताप है। अगर मैं आज कुछ अच्छा कर सकूं, किसी की जान बचा सकूं — तो शायद मेरा पाप थोड़ा हल्का हो जाएगा और फिर मैं उनसे ये कहूँगी कि तुम लोगों ने मुझे यहाँ बंद किया है, ताकि उनके साथ होने का नाटक करते हुए मैं तुम लोगों की मदद कर सकूँ। ”
वो अब पूरी तरह तैयार थी। उसकी आँखें नम थीं, पर उनमें डर नहीं था... बस सच्चा पश्चाताप था।
“प्लीज़... मुझे ये करने दो। कुछ सही करना चाहती हूँ — शायद पहली बार...”
आरव और सुहानी एक-दूसरे की ओर देखने लगे, जैसे दोनों को समझ नहीं आ रहा था कि दिल की सुने या दिमाग़ की। मगर मीरा की आँखों में जो सच्चाई थी, उसने उन्हें और कुछ सोचने का मौका नहीं दिया।
सुहानी ने काँपते हाथों से फिर से उस दीवार में छुपी ईंट को ढूंढा, और उसे दबाया। कैदखाने का दरवाज़ा फिर से धीरे-धीरे बंद होने लगा…..मीरा उसी जगह खड़ी रही, हल्की सी मुस्कान के साथ।
जब दरवाज़ा आधा बंद हो चुका था, उसने आखिरी बार उन तीनों को देखा — उसकी आँखें अब भी भरी हुई थीं, मगर होंठों पर सुकून था।
“भागो... और प्रणव को एक नई ज़िन्दगी दो।”
दरवाज़ा बंद हुआ, मगर मीरा की वो मुस्कान... और उसकी भीगी आँखें देर तक उन लोगों के ज़ेहन में गूंजती रही।
क्या वो तीनो एम्बुलेंस तक पहुँच पाएंगे या फिर बीच रास्ते में...?
मीरा की क़ुरबानी क्या होगी कामयाब?
रणवीर क्या करेगा आगे?
जानने के लिए पढ़ते रहिये, ‘रिश्तों का क़र्ज़।’
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