सुहानी ने फ़ोन पर अपने भाई विशाल को बताया, “मुझे नहीं मालूम क्यों और कैसे, पर कल रात उस कमरे में मैंने माँ की तस्वीर देखी। भाई, मैं नहीं जानती इस घर में क्या चल रहा है, और मेरा क्या role है इन सब में? मगर एक बात साफ़ है कि हम दोनों से बहुत सारी बातें छुपाई गई हैं। और बातें केवल ये लोग ही नहीं छुपा रहे, हमारे माँ और बाउजी ने भी हमसे कई राज़ छुपा रखे हैं।”

शादी के बाद यह पहली बार था जब वह विशाल से बात कर रही थी। वह पहले उससे नाराज़ थी कि उसने इस मुश्किल समय में उसे अकेला छोड़ दिया, लेकिन वह जानती थी कि विशाल कभी गलत चीज़ों का भागीदार नहीं बनता।

अगर उसे लगता है कि कुछ गलत हो रहा है, तो वह उसे रोकने की कोशिश करता है। लेकिन जब चीज़ें उसके बस से बाहर हो जाती हैं, तो वह चुपचाप खुद को उस situation से दूर कर लेता है। 

लेकिन गलत तो ये भी है ना, बीते दिनों में जो कुछ भी हुआ है, उसका शिकार केवल सुहानी बनी। वजह चाहे जो भी हो, झेलना सब कुछ सुहानी को पड़ा और ऐसे वक़्त में उसका साथ सबने छोड़ दिया, बाउजी और उसके भाई ने भी। बात रही नए रिश्तों की, तो उन लोगों ने तो कभी उसे अपनाया ही नहीं। ऊपर से वो सभी सुहानी से नफरत करते हैं। क्यों? ये तो वो भी नहीं जानती।

“सुहानी, मुझे माफ़ कर दे गुड़िया। मैं बस तेरी बली चढ़ते देख नहीं पा रहा था। मगर मुझे उस वक़्त तुझे अकेला भी नहीं छोड़ना चाहिए था। मुझसे गलती हो गई गुड़िया, बहुत बड़ी गलती।” विशाल ने पछतावे के साथ कहा।

“खुद को दोष देना बंद करिये भाई, आप अभी मेरे साथ हैं, ये ज़्यादा माइने रखता है। आपको मैं बता भी नहीं सकती मैं कितनी अकेली पड़ गई थी।” सुहानी ने बिलखते हुए कहा। 

“सुहानी अब मैं कहीं नहीं जा रहा। तू अब अकेली नहीं है। तुझे किसी भी चीज़ की ज़रूरत हो, मुझे तुरंत बताना।” विशाल ने उसे हिम्मत देते हुए कहा।

“भाई, बाउजी कैसे हैं?” सुहानी के इस सवाल पर विशाल ने कुछ देर चुप्पी साध ली। और कुछ देर गहरी सांस लेने के बाद उसने कहा…

“ठीक ही हैं, तुझे बेच कर जो बिज़नेस बचाया है उन्होंने, उसी मे लगे रहते हैं। वैसे मेरी उनसे अब ज़्यादा बात नहीं होती, मैं उन्हें अभी तक माफ़ नहीं कर पाया और मुझे नहीं पाता कि कभी कर भी पाऊंगा या नहीं।” विशाल ने गुस्से में कहा।

सुहानी चुप रही, उसने विशाल को आरव की कही बातों के बारे में कुछ नहीं बताया, वो अभी उसे परेशान नहीं करना चाहती थी। वैसे भी किसी को ये बातें बताने से पहले उसे इसकी तेह तक जाना ज़रूरी था।

“भाई आप परेशान मत हो। बाउजी से तो नाराज़ मैं भी हूं, और पता नहीं ये नाराज़गी कभी दूर होगी भी या नहीं। उनकी ये गलती भूलने लायक नहीं है। मगर,” उसने थोड़ी देर रूक कर कहा, “मगर वो जैसे भी हैं, हमारे बाउजी हैं और हमारे अलावा उनका है ही कौन?” सुहानी भावुक हो गई।

“तू सही कह रहीं है सुहानी, उन्होंने जो किया, उसके लिए तो वो खुद भी पछता रहे हैं। रोज़ storeroom जाते हैं तेरी बचपन की तस्वीरें और खिलौने देखने…वहां घंटों बिताते हैं। “

सुहानी को तभी कुछ याद आया, बचपन की एक बात, और वो चौंक कर बिलकुल सीधी बैठ जाती है।

सुहानी जब मेहेज़ 9 साल की थी तो, एक दिन खेलते खेलते वो उसी storeroom में चली गई थी, पुराने खिलौने तलाशते हुए उसकी नज़र एक लकड़ी के छोटे से बक्से पर पड़ी, जो पुराने कपड़ों के नीचे दबा हुआ था। उसने उस बक्से को कपड़ो के ढेर के नीचे से धीरे से निकाला और उत्सुक होकर उसे खोलने की कोशिश करने लगी, लेकिन तभी माँ ने उसे देख लिया। उनके चेहरे पर घबराहट और डर साफ़ झलक रही थी।

"सुहानी, ये box कभी मत खोलना, समझी?" माँ ने घबराए हुए कहा और जल्दी से उसके नन्हें हाथों से वो डिब्बा छीन लिया।

लेकिन जैसे ही उन्होंने वो बक्सा छीना, उसके ढक्कन से एक पुरानी black and white तस्वीर नीचे गिर गई। तस्वीर में माँ एक अजनबी आदमी के साथ खड़ी थीं। उनके हाव-भाव में एक अजीब सा अपनापन था। माँ के साथ खड़े आदमी ने उनके कंधों पर हाथ रखा था, और माँ उन्हें सर उठा कर उनकी आँखों में देख रही थीं। इससे पहले कि सुहानी तस्वीर को और ध्यान से देख पाती, माँ ने झट से तस्वीर छीन ली।

"तुमने कुछ नहीं देखा, समझी?" माँ की आवाज़ कांप रही थी।

तब सुहानी ने इसे एक "बड़ों की बात" समझकर टाल दिया था, लेकिन अब इस अजनबी घर में खड़े होकर, उसे महसूस हो रहा था कि शायद वो तस्वीर उसकी जिंदगी के अनदेखे राज़ खोल सकती थी।

“भाई, उस storeroom में माँ के पुराने सामान के बीच एक लकड़ी का छोटा सा बक्सा है। उसे बिना खोले मेरे पास ले आओ प्लीज़, यह बहुत ज़रूरी है और किसी को मत बताना।”

विशाल ने तुरंत जवाब दिया, “बक्सा? उसका तुम्हें क्या काम है सुहानी? क्या है उस बक्से में?”

जवाब देते वक़्त उसके होंठ काँपने लगे।

“शायद इस बक्से में हमारे सारे सवालों के जवाब हो सकते हैं। बस ले आओ, भाई। अभी और कुछ मत पूछो।”

“ठीक है, मैं जल्द ही उसे देने आऊंगा।” विशाल ने कहा।

“नहीं आप यहाँ मत आना, मैं आपको जगह और टाइम बताउंगी। आप उसे तब तक अपने पास संभाल कर रखना…हम जल्द ही मिलेंगे।” सुहानी ने कुछ सोचते हुए कहा। 

 

“तो यही वजह थी तुम्हारी उदासी की?” 

सुहानी ने देखा, तो आरव दरवाज़े पर खड़ा था। उसकी आँखों में गुस्सा भरा हुआ था।

“आप कहना क्या चाहते हैं, आरव?” उसने तुरंत कॉल काटते हुए कहा।

“मुझे लगा था कि तुम इस रिश्ते को मौका देना चाहती हो, लेकिन तुम तो यहाँ बैठकर किसी और से दिल बहला रही हो?”

सुहानी हक्की-बक्की रह गई। “आप क्या कह रहे हो, आरव? ये सब…”

आरव ने उसकी बात बीच में ही काट दी। “कौन था वो?”

"मेरा भाई था।" सुहानी ने गहरी सांस लेते हुए कहा। “जिससे मैं अपने दिल का दर्द बाँट रही थी।”

आरव के चेहरे पर एक पल के लिए संदेह कम हुआ, लेकिन फिर वही गुस्सा लौट आया।

“तुम्हारी बातें सुनकर ऐसा नहीं लगा, सुहानी।”

सुहानी की आँखों में आंसू थे, लेकिन वह खुद को कमजोर नहीं दिखाना चाहती थी। “आप मुझसे चाहते क्या हैं, आरव? मैं इस घर में घुट-घुट कर जीऊं और किसी से भी अपनी तकलीफें न बाँटू?”

आरव ने कोई जवाब नहीं दिया। उसने बस एक गहरी सांस ली और मुट्ठियाँ कस लीं।

“आपको जो सोचना है सोचिये, आरव। मैं अब और सफ़ाई नहीं दूँगी।” इतना कहकर सुहानी कमरे के दूसरे कोने में जाकर खड़ी हो गई, और खुद के गुस्से को शांत करने की कोशिश करने लगी।

कमरे में सन्नाटा छा गया। दोनों के बीच की दूरियाँ और बढ़ गई थी। एक और ग़लतफ़हमी का बीज बो दिया गया, जिसने दोनों के रिश्ते को और उलझा दिया था। लेकिन अब सुहानी के पास एक और बड़ा सवाल था—उस बक्से में ऐसा क्या था, जिसे दुनिया के सामने लाने से उसकी माँ इतना डरती थी? 

कुछ देर जब कमरे में यूँ ही शांति रही, तो सुहानी ने घूम कर पीछे देखा—आरव अभी भी मुट्ठियाँ कसे खड़ा था, उसकी साँसें तेज़ थीं, और उसकी आँखों में ऐसा कुछ था जो सुहानी ने पहले कभी नहीं देखा था—एक अजीब-सा गुस्सा, दर्द और…शायद पश्चाताप।

वो धीरे धीरे आरव की ओर बढ़ी, “आरव, मैं आप लोगों के बदले की आग में अपनी आवाज़ नहीं खो सकती। मैं तकलीफ में हूं, और अगर आप ये नहीं देखना चाहते तो इसका मतलब ये तो नहीं कि मैं अब किसी से बात तक नहीं कर सकती?”

आरव हंस पड़ा, मगर उसकी हँसी कटाक्ष सी थी। वह तीखी थी, जैसे चाकू की तेज़ धार।

“तकलीफें?” उसने तंज कसते हुए कहा। “तुम्हारी तकलीफें? सच बताऊँ, सुहानी…मुझे तुम्हारी तकलीफों में ज़रा भी दिलचस्पी नहीं है। तुम जो सारा दिन ये रोने का नाटक करती रहती हो ना, उससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। दुनिया में अकेले तुम्हें ही सारे दुख नहीं मिले, लेकिन हर कोई तुम्हारी तरह रोता नहीं फिर रहा। तो जितनी जल्दी तुम इन चीज़ों की आदत डाल लो, उतना ही अच्छा होगा।”

सुहानी ने गहरी साँस ली, उसने अपनी पलकों पर आए आँसुओं को झपक कर पीछे धकेल दिया। वह कमज़ोर नहीं पड़ेगी….नहीं अब और नहीं।

“नहीं, आरव। सच ये नहीं है,” उसने साहस जुटा कर कहा। “सच ये है कि आप मुझे अपनाना ही नहीं चाहते। अगर चाहते, तो बताइए, मीरा यहाँ क्या कर रही है?”

आरव का चेहरा ठंडा पड़ गया। उसकी आँखें एक पल को चौंक गईं, मगर फिर वही भावहीन, बेरुखी भरा चेहरा वापस आ गया।

“मीरा का इस सब से कोई लेना-देना नहीं है,” उसने सख्त लहज़े में कहा।

“सच में?” सुहानी ने कड़वे स्वर में पूछा। “अगर ऐसा है, तो फिर क्यों जब भी मीरा आसपास होती है, आपका चेहरा बदल जाता है? क्यों जब वो बोलती है, तो आपकी आँखें चमक उठती हैं? क्यों जब मैं आपके करीब आने की कोशिश करती हूँ, तो आपको तकलीफ होती है?”

आरव ने कोई जवाब नहीं दिया।

“आप मुझे ये जताने की कोशिश कर रहे हैं कि मैं इस रिश्ते के लायक नहीं,” सुहानी ने एक कदम आगे बढ़ते हुए कहा, “मगर सच तो ये है कि आप खुद इस रिश्ते को निभाना नहीं चाहते। आप अभी भी मीरा से प्यार करते हैं, और आपको हमारे इस रिश्ते में फँसा कर रखा गया है।”

“बकवास बंद करो, सुहानी!” आरव का स्वर अब गरज उठा था।

“क्यों? सच सुनने में तकलीफ हो रही है?” सुहानी ने एक ठंडी मुस्कान दी। “आप कौन होते हो मुझे किसी और के बारे में ताने मारने वाले, जब खुद आपका दिल किसी और के लिए धड़कता है? और हाँ, आप भी इस घर की साजिशों का हिस्सा हैं। अगर नहीं होते, तो मुझे धोखे से इस रिश्ते में बाँधने की ज़रूरत नहीं पड़ती।”

आरव का चेहरा अब लाल पड़ चुका था। उसकी साँसें तेज़ हो गई थीं, जैसे वो किसी भी पल आपा खो सकता था।

“धोखा?” उसने गुस्से में कहा। “अगर तुम्हें लगता है कि तुम्हारे साथ अन्याय हुआ है, तो भाग क्यों नहीं जाती? दरवाज़ा खुला…जाओ, अपने भाई के पास, अपने परिवार के पास। मगर नहीं, तुम्हें तो यहाँ रहकर नाटक करना है। ड्रामा क्वीन बनने का शौक है तुम्हें।”

सुहानी के आँसू अब उसकी पलकों तक आ चुके थे, मगर उसने उन्हें गिरने नहीं दिया।

“अगर मैं यहाँ हूँ, तो सिर्फ इसलिए कि मुझे अपने सवालों के जवाब चाहिए,” उसने सख्त लहज़े में कहा। “इस घर ने मुझे कुछ नहीं दिया, सिर्फ फरेब और तकलीफ। मगर मैं इतनी आसानी से हार मानने वालों में से नहीं हूँ, आरव। जब तक मुझे सच का पाता नहीं चल जाता, मैं यहाँ से कहीं नहीं जाऊँगी।”

आरव ने एक कदम आगे बढ़ाया, जैसे कुछ कहना चाहता हो, मगर फिर उसने खुद को रोक लिया।

“तुम्हें कोई जवाब नहीं मिलेंगे, सुहानी,” उसने ठहरी आवाज़ में कहा। “क्योंकि तुम उनके लायक नहीं हो।”

सुहानी ने एक गहरी साँस ली। “देखते हैं, मैं उन सारे राज़ का पर्दाफ़ाश करके रहूँगी, जिसे आप लोग मुझसे छुपाने की कोशिश कर रहे हैं।”

सुहानी की धमकी सुनते ही आरव के पैरों तले ज़मीन खिसक गई। उसका शरीर बेजान-सा हो गया, जैसे आत्मा ने उसका साथ छोड़ दिया हो। आँखें फटी की फटी रह गईं और दिमाग सुन्न पड़ गया। उस पल, बीती रात की भयानक यादें उसके आँखों के सामने किसी भूतिया परछाईं की तरह तैरने लगीं।

वही रात, जब सुहानी ने उस बंद कमरे का रहस्य जानने के लिए हिम्मत जुटाई थी। वही रात, जब महल के अंधेरे गलियारों में उसके चलने की आहट ने उसे चौकन्ना कर दिया था। और फिर... वह भयानक आवाज़—झूमर के ज़ोर से गिरने की। और उसके तुरंत बाद, सुहानी की वह दिल दहला देने वाली चीख, जो अभी भी आरव के कानों में गूंज रही थी।

वह भागकर उस कमरे की ओर बढ़ा था, सुहानी को बचाने के लिए, यह जानने के लिए कि आख़िर वहाँ हुआ क्या था। लेकिन तभी... दिग्विजय राठौर।

महल के मालिक…इस घर के इकलौते राजा। उनकी कठोर आँखें अंधेरे में भी अंगारों की तरह चमक रही थीं। उनके बस एक इशारे ने आरव के कदम वहीं जमा दिए थे, जैसे किसी अदृश्य ज़ंजीर ने उसे जकड़ लिया हो। वह कांप उठा था।

"इस कमरे की ओर दोबारा देखने की हिम्मत भी मत करना!" दिग्विजय राठौर की गूंजती हुई आवाज़ में वो एक ऐसा आदेश था, जिसे टालना मौत को न्योता देने बराबर था।

आरव के होंठ जैसे सिल गए, वह कुछ पूछ भी नहीं पाया। उसके सामने खड़े दिग्विजय की मौजूदगी ही ऐसी थी कि उसकी सांसें थमने लगीं। उसने बस अपनी नज़रें झुका लीं और बेजान खड़ा रहा। लेकिन उसके मन में कई सवाल उठ रहे थे। 

 

क्या सुहानी ठीक होगी? वहीं सुहानी... जिसे उसने पहली बार दो साल पहले चंडीगढ़ के एक मेले में देखा था।

उस कमरे में आख़िर ऐसा क्या था, जो किसी को वहाँ जाने की इजाज़त नहीं थी? 

क्या सुहानी उस बॉक्स से सारा सच जान पायेगी? 

कौन से राज़ दफन हैं उस बक्से में? 

आगे की कहानी जानने के लिए पढ़ते रहिए ‘रिश्तों का क़र्ज़’!

 

 

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