दो साल पहले…
उस रात, जब आरव ऑफिस की तमाम मीटिंग्स और फाइलों की थकान लेकर घर लौटा, और कमरे में पहुंच कर वो अपनी टाई खोल ही रहा था जब घर के एक नौकर ने उसके कमरे में आकर कहा…
“छोटे मालिक, आपको बड़े मालिक ने अपनी स्टडी में बुलाया है।”
दिग्विजय का नाम सुनते ही आरव के हाथ उसकी टाई पर ही ठहर गए और उसका मन एक अनजाने डर से सिहर गया। लेकिन बिना कोई सवाल किए, वो सीधा स्टडी की ओर बढ़ गया।
दरवाज़ा खोलते ही सामने का दृश्य उसकी धड़कनें थमा देने वाला था। स्टडी में दिग्विजय राठौर बैठे थे—अपने वही रौबदार अंदाज़ में। उनके पास गौरवी राठौर, आरव की माँ, और मीरा भी मौज़ूद थी। उन्हें साथ देखकर आरव समझ गया—तूफ़ान आने वाला है। कमरे की हवा भारी महसूस हो रही थी, कमरे की दीवारें जैसे सिमट सी रही थीं।
“आज की सारी डील्स साइन हो गईं?” दिग्विजय ने आरव को देखते ही सवाल किया।
किसी ने उससे ना बैठने को कहा। न हाल पूछा, न थकान की परवाह—ना माँ, ना मीरा।
“जी ताऊजी, सारी डील्स साइन हो गईं,” आरव ने सिर झुकाकर जवाब दिया।
“और खुराना का क्या हुआ? क्या अब वो हमारे प्रस्ताव को अच्छे से समझ गया?”
“जी, खुराना ने भी डील्स साइन कर दी हैं। उन्होंने आपसे माफ़ी माँगने को कहा है…वादा किया है कि अब हमारे ख़िलाफ़ कभी नहीं जाएंगे।”
“शाबाश! तो, तुम जानते हो आज तुम्हें यहाँ क्यों बुलाया गया है?”
आरव ने सिर उठाकर दिग्विजय की आँखों में झाँका—उसे अंदाज़ा था, किस ओर बात जा रही है।
“हाँ! बदला लेने का वक़्त आ गया है, आरव,” दिग्विजय ने गम्भीर लहजे में कहा।
आरव की नज़र अपनी माँ की ओर गई।
“कल वो लड़की अठारह की हो जायेगी। हमने सालों इस दिन का इंतज़ार किया है,” गौरवी बोलीं। उनकी आँखों में पुराने घाव की आग आज भी सुलग रही थी। आरव चुप खड़ा रहा।
“आज भी तुम्हारे पापा की आत्मा बदले की आग में तड़प रही होगी…”
“माँ…आप ये बातें मीरा के सामने कैसे कर सकती हैं? मैं उसे धोखा नहीं दे सकता।”
आरव ने मीरा की ओर देखा—उन नज़रों में वही अपनापन था, जो कभी किताबों और कॉफी के बीच पनपा था। लेकिन कुछ था जो मीरा की आँखों में बदल सा गया था।
“तुम मुझे धोखा नहीं दे रहे, आरव। आंटी ने मुझे सब बता दिया है, और इस लड़ाई में अब मैं तुम्हारे साथ हूं। इसके लिए तुम्हें जितना समय चाहिए लो… मैं तुम्हारा इंतज़ार करूँगी।”
वो उठकर उसके पास आई, और उसका हाथ थाम लिया।
“तुम जानती भी हो क्या कह रही हो? मैं किसी और से शादी करने जा रहा हूं, मीरा… पता नहीं ये सब कब तक चलेगा। और मैं तुम्हारा दिल नहीं तोड़ना चाहता।”
“मैं भी तुमसे प्यार करती हूं,” मीरा बोली, “पर तुम्हारी फैमिली, उनकी तरफ़ तुम्हारी ज़िम्मेदारीयां… मैं समझती हूं। जो शिव प्रताप ने तुम्हारे पिता और इस परिवार के साथ किया, उसके लिए उसे तो मिटा देना चाहिए। लेकिन… अगर हम उसकी नींव हिला दें, उसकी सबसे कीमती चीज़ को हर दिन तड़पता देखें… तो उससे बड़ा बदला कोई हो ही नहीं सकता।”
उसकी आंखों में एक अजीब-सी चमक थी। जुनून से भरी, लेकिन प्यार से खाली। आरव उसे देखता रहा।
ये वो मीरा नहीं थी जो कभी फिल्मों के ट्रेलर पर रो दिया करती थी, या जो लाइब्रेरी में तेज आवाज में बहस करने लगती थी। अब उसकी आँखों में जो चमक थी, वो प्यार की नहीं… वो तो कुछ और ही था।
आरव का दिल घबराने लगा था। एक पल को उसे खुद पर शक हुआ।
क्या मैं… सच में ये कर पाऊंगा?
उसके विचारों को दिग्विजय की आवाज़ ने छलनी कर डाला—
“हमने मार्केट में अपने लोग तैनात कर दिए हैं। शिव प्रताप की कंपनी अब हर दिन गिरेगी। जब वो पूरी तरह टूट जाएगा… तब हम उसके सामने उसकी आख़िरी उम्मीद बनकर खड़े होंगे। और तब… हम माँगेंगे उसकी सबसे कीमती चीज़—उसकी बेटी।”
सुहानी… आरव के मन में उसका नाम गूंज उठा।
दिग्विजय की आँखों में नफ़रत और जीत की चमक थी।
“उसका बिज़नेस! उसकी इज्ज़त! उसका आत्मसम्मान—सब मिट्टी में मिल जाएगा। और फिर उसकी बेटी से तुम्हारी शादी… हमारी जीत का आखिरी मोहर होगी।”
आरव चुप रहा।
मीरा ने फिर उसका हाथ थामा, “मैं जानती हूं, ये सब तुम्हारे लिए कितना मुश्किल हो सकता है। पर तुम अकेले नहीं हो, आरव। मैं हूं ना तुम्हारे साथ।”
उसका स्पर्श अब भी वही था, मगर आरव को अब उसमें सुकून नहीं मिल रहा था। उसका दिल भारी हो चुका था, उसे सांस लेने में भी अब तकलीफ सी हो रही थी।
किसी को सिर्फ इसलिए सज़ा देना… कि वो एक ग़लत घर में पैदा हुई… क्या यही न्याय है? उसकी आत्मा ने पूछा।
मगर वहाँ खड़ा आरव… सिर्फ झुकी निगाहों और बंद होंठों के साथ बोला—
“ठीक है। जैसा आप चाहें… वैसा ही होगा।” क्योंकि वो न्याय और बदले के बीच का अंतर जानता था।
उसके अंदर सब बिखर गया था, पर बाहर से वो वही आज्ञाकारी बेटा था—स्थिर और शांत। कमरे की हवा अब भी भारी थी—मगर अब वो ठंडी पड़ चुकी थी। जैसे किसी युद्ध से पहले की ख़ामोशी।
दिग्विजय ने गौरवी और मीरा की ओर देखा। उनकी आंखों में संतोष था। बस एक आरव था… जिसकी सबसे बड़ी लड़ाई अब शुरू होने जा रही थी—अपने आप से।
उस रात आरव ठीक से सो नहीं पाया। पछतावे की तेज़ लहरों में बहता हुआ, सुबह होते-होते उसने वो फ़ैसला कर लिया, जिसे दिल बहुत पहले ही ले चुका था — उसे सुहानी को देखना था। वो लड़की, जिसकी दुनिया कुछ ही दिनों में एक सालों से तैयार की गई साजिशों की आग में झुलसने वाली थी… उसे आरव अब और अनदेखा नहीं कर सकता था।
अगले दिन, अपने सारे काम किनारे रखकर, आरव चंडीगढ़ की ओर निकल पड़ा।
लेकिन जैसे किस्मत ने पहले से ही सारा मंच सजा दिया था।
चंडीगढ़ पहुंचते ही रास्ते में अचानक एक बड़ा मेला आ गया, जिसकी वजह से ट्रैफिक जाम लग गया। आरव की गाड़ी रेंगते हुए एक मोड़ पर पहुँची, तभी उसकी नज़र भीड़ में किसी पर पड़ी— वो वही थी….सुहानी।
भीड़ के बीच, सुनहरे रंग की कुर्ती पहने, अपने कुछ दोस्तों के साथ हँसती-खिलखिलाती सुहानी। आरव की साँसें जैसे थम सी गईं, उसकी आँखें जैसे पलकें झपकाना तक भूल गई थीं।
वो लड़की जिसकी ज़िंदगी पर वो बदले की कालिख पोतने जा रहा था — इस वक़्त मासूमियत से चहक रही थी। वो गोलगप्पों के ठेले को देखकर ऐसे खुश हुई जैसे उसे कोई खज़ाना दिख गया हो। बच्चों से टकराने पर उनसे बड़े प्यार से माफ़ी मांगती, और हवा में उड़ते गुब्बारों को पकड़ने की कोशिश में, बिना किसी की परवाह किए उछल-उछल कर खिलखिला रही थी।
आज उसका जन्मदिन था, और वो अपने दोस्तों के साथ मेला घूमने आई थी। तो इतनी सादी सी थी सुहानी की ज़िंदगी….आरव ने मन ही मन सोचा।
ये वही लड़की है… जिसकी ज़िंदगी मैं बर्बाद करने जा रहा हूँ?
वो गाड़ी से उतरकर उसके पास जाना चाहता था। उस खिलखिलाते हुए चेहरे के करीब…और बस उसे एक बात कहना चाहता था — “भाग जाओ सुहानी… इस शहर से, आने वाले वक़्त से… मुझसे… कहीं बहुत दूर, जहां तुम्हें दुख और परेशानी ढूंढ़ तक ना पाए।”
पर उसका शरीर पत्थर सा जाम गया था।
किस हक़ से कहूँ?— उसकी अंतरात्मा ने सवाल उठाया।
उसके भीतर दो अलग-अलग आवाजें गूँजने लगीं — दिग्विजय राठौर और गौरवी राठौर। और साथ ही उसे मीरा का त्याग याद आ गया।
मैं इस खेल का मोहरा नहीं हूँ… मैं इसका खिलाड़ी हूँ। पर ये लड़की… क्या वाकई सिर्फ एक मोहरा है?
हवा में उड़ते गुब्बारों में से एक सुहानी के हाथ में आ गया और वो ख़ुशी से उछलने लगी। आरव ने गाड़ी का शीशा थोड़ा नीचे किया। अब उसे साफ़-साफ़ सुहानी की हँसी सुनाई दे रही थी।
उस गुब्बारे के साथ कुछ देर खेलने के बाद, पास खड़े एक छोटे से बच्चे को सुहानी ने वो गुब्बारा दे दिया, जैसे अभी ही उसने 20 मिनट तक उस गुब्बारे को पकड़ने की मशक्कत न की हो।
उस पल आरव को अपनी सारी ताक़त, अपनी योजनाएँ और अपने उद्देश्य बेमानी लगने लगे।
क्या बदला इतना ज़रूरी है… कि मैं इसे भी वैसा ही बना दूँ जैसा मैं बन गया हूं?
कुछ देर उसे देखने के बाद आरव ने अपनी गाड़ी स्टार्ट की और वहाँ से चला गया, पर उसके भीतर कुछ टूट चुका था।
अगले दिन…
आरव ने ऑफिस ना जाने का फैसला किया। सामने लैपटॉप बंद पड़ा था, फोन साइलेंट मोड में और उसकी नज़रें खिड़की के बाहर टिकी हुई थीं। हर चीज़ धुंधली लग रही थी, सिवाय एक के — सुहानी।
उसकी हँसी, उसकी आँखों की चमक, गोलगप्पे को देखकर उसका बच्चों जैसा खुश होना— सब कुछ आरव के ज़हन में बिलकुल एक ताज़ी याद जैसा ही घूम रहा था।
“नहीं… ये नहीं होना चाहिए था," उसने खुद से कहा।
“उसे सिर्फ एक दुश्मन की बेटी समझना था… और अब?”
वो खुद से नफ़रत करने लगा था। तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई।
"आरव, ब्रेकफास्ट किया तुमने?" मीरा ने कमरे के अंदर झाँकते हुए पूछा।
आरव ने आँखें मूँद लीं। फिर धीरे से सिर हिला दिया।
“नहीं… भूख नहीं है।”
मीरा अंदर आई। हाथ में कॉफ़ी का मग लिए। उसने कॉफ़ी आरव के सामने रखी और उसकी आँखों में झाँककर पूछा, “कल तुम सुहानी को देखने गए थे ना?”
आरव चौंक गया। “तुम्हें कैसे पता?”
मीरा हल्की-सी मुस्कुराई — कड़वी मुस्कान।
“क्योंकि जब कोई मासूम रोशनी किसी टूटे हुए इंसान को छूती है… तो या तो वो और टूट जाता है, या फिर बदलने लगता है। और तुम… बदल रहे हो आरव।”
उसने कुछ नहीं कहा, बस चुपचाप सुनता रहा।
मीरा ने आगे कहा —
“अगर तुम कमजोर पड़ रहे हो तो मैं समझ सकती हूँ। पर याद रखना, ये सिर्फ तुम्हारा बदला नहीं है। ये उस वक़्त की लड़ाई है, जब तुम्हारे बाबा की इज़्ज़त सरेआम मिट्टी में मिलाई गई थी… और तुम्हारी माँ का सिंदूर छिन गया था। सुहानी… सिर्फ एक रास्ता है उस शख़्स तक पहुंचने का जिसने तुम लोगों से सब कुछ छीन लिया।”
मीरा की आँखों में कोई नमी नहीं थी, न ही कोई मोह। वो अब सिर्फ राठौर खानदान की एक सिपाही थी। इतना कहकर मीरा कमरे से बाहर चली गई।
मीरा के जाते ही आरव ने कॉफ़ी का एक घूंट पिया, फिर मोबाइल उठाया और इंस्टाग्राम पर टाइप किया — “Suhani.”
उसकी उंगलियाँ रुक-रुक कर स्क्रीन पर चलने लगी, पर जो सामने आया — वो किसी कुसूरवार की नहीं, बल्कि एक आम लड़की की ज़िंदगी थी।
किताबें, stray dogs को बिस्किट खिलाना और अपने सरसों के खेत से ढलते सूरज की तस्वीरें खींचना और उन पर कैप्शन डालना— “आज का सूरज कल फिर उगेगा…”
"इतनी सीधी-सादी ज़िंदगी… और हम इसे तहस-नहस करने जा रहे हैं? मैं चाह के भी इस भोली लड़की को इतनी बड़ी साजिश का मोहरा कैसे बना सकता हूँ। आरव अब खुद से लड़ रहा था। मगर वो जानता था कि उसकी वफादारी किसके लिए थी।
दो साल बाद…अभी का समय…
एक कैफ़े में खिड़की के पास बैठी सुहानी बार-बार दरवाज़े की ओर देख रही थी। चेहरे पर तनाव था, मगर आँखों में उम्मीद की चमक। तभी दरवाज़ा खुला और विशाल अंदर आया — हाथ में वही पुराना लकड़ी का संदूक लिए, जो सुहानी ने मंगवाया था।
"Sorry सुहानी, थोड़ा लेट हो गया," विशाल ने कहा।
"कोई बात नहीं," सुहानी ने कहा, “बस ये बताओ भाई… किसी ने आपको ये लाते देखा तो नहीं?”
“नहीं, पापा के ऑफिस जाते ही मैं पीछे के दरवाज़े से स्टोर रूम में गया और इसे लेकर चुपचाप निकल आया। किसी को शक नहीं हुआ।”
कुछ देर दोनों चुप रहे। फिर चाय का ऑर्डर दिया। साधारण बातों में भी सुहानी ने महसूस किया — विशाल को उसकी बेहद चिंता थी।
“सुहानी, तू ठीक है ना? उस दिन फोन पर जो तूने कहा…”
सुहानी ने उसकी ओर देखा, फिर नजरें झुका लीं।
“सब कुछ उलझा हुआ है, भाई। बहुत कुछ जानना है… और शायद ये संदूक मेरे सारे सवालों का जवाब दे।”
कुछ देर बाद दोनों वहां से विदा हो गए —विशाल वापस चला गया और सुहानी अपने उस सोने के पिंजरे की ओर लौट गई। उस राज़ की ओर, जो उसके ससुराल की दीवारों में कहीं गहराई से छुपा बैठा था।
रात के करीब 11 बजे थे।
सारा घर गहरी नींद में डूबा हुआ था, मगर आरव का कोई नामोनिशान नहीं था। हवाओं की सरसराहट के सिवाय कुछ सुनाई नहीं दे रहा था। हवेली की विशाल दीवारों के बीच, एक कमरा अपनी साँसें थामे शांत बैठा था — सुहानी का कमरा।
कमरे में बस एक टेबल लैंप की मद्धम रोशनी थी, जो दीवार पर हल्की परछाइयाँ बना रही थी। सुहानी ने दरवाज़ा बंद किया, धीरे से कुंडी चढ़ाई और फिर उस संदूक की ओर बढ़ी जो दिन भर उसके दिल और दिमाग के कोने-कोने में दस्तक देता रहा।
लकड़ी का पुराना संदूक ज़माने की धूल ओढ़े उसके सामने रखा हुआ था — मानो बरसों से किसी सच को अपने सीने में दबाए बैठा हो।
उसने काँपते हाथों से ढक्कन खोला। धूल और पुराने काग़ज़ों की मिली-जुली महक उसकी साँसों में समा गई। एक पल के लिए वक़्त जैसे थम सा गया। सबसे ऊपर कुछ पुरानी तस्वीरें थीं, उसने एक-एक कर तस्वीरें बाहर निकालीं।
एक तस्वीर में उसकी माँ मुस्कुरा रही थी — वही चुलबुला पन, वही ममता, जिसे सुहानी ने हमेशा पूजा था। मगर उसके बगल में खड़ा शख्स... वो सुहानी के बाउजी नहीं थे।
“ये कौन है...?”
उसका दिल ज़ोर से धड़कने लगा। तस्वीरें पलटीं — कुछ और चेहरे, कुछ और जगहें, और फिर एक और झटका।
नीचे कुछ दस्तावेज़ थे — पुराने, पीले पड़ चुके कागज़, जिनमें ज़मीन-जायदाद से जुड़ी जानकारियाँ थीं। मगर सबसे चौंकाने वाली बात ये थी कि हर दस्तावेज़ पर उसकी माँ के दस्तख़त थे... और मालिक के नाम में कहीं भी शिव प्रताप सिंह का नाम नहीं था।
नाम किसी और का था — एक अजनबी का।
रणवीर राठौर!
उसके अंदर जैसे कोई तूफ़ान उठ खड़ा हुआ हो।
“ये नाम मैंने पहले कभी नहीं सुना... फिर माँ ने उस पर दस्तख़त क्यों किए? क्या वो शख्स... हमारे परिवार का हिस्सा था?”
उसके हाथ काँप रहे थे, मगर नज़रों में अब पहले जैसी मासूमियत नहीं, बल्कि एक गहरा संकल्प था। उसने धीरे से वो सारे काग़ज़ संभाले, तस्वीरें एक साफ रुमाल में लपेटीं और संदूक को बंद कर दिया।
अब उसकी ज़िंदगी एक नए मोड़ पर खड़ी थी। वो सिर्फ़ एक मजबूर बहू या प्यारी बेटी नहीं रही थी। अब वो एक भक्षक बन चुकी थी — अपनी माँ के अतीत की, अपने पिता के सच की, और उन झूठों की जो उसकी शादी की बुनियाद बने थे।
कमरे की रोशनी अब भी हल्की थी, मगर उसकी आँखों में एक अलग सी चमक थी।
"अब बहुत हुआ..." उसने खुद से कहा, “...सच बाहर आकर रहेगा।
कौन है रणवीर राठौर, क्या है उनका सुहानी की माँ से रिश्ता?
क्या आरव का दिल सुहानी के लिए पिघल रहा है?
कैसे सच तक पहुंचेगी सुहानी?
आगे क्या होने वाला है, जानने के लिए पढ़ते रहिये, !रिश्तों का क़र्ज़!'
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