राठौर हवेली की ऊँची दीवारों और विशाल फाटक के पीछे पसरा सन्नाटा किसी तूफान से पहले की खामोशी जैसा था। जैसे ही हवेली के मुख्य दरवाज़े की चरमराहट गूंजी, वो सन्नाटा टूट गया — एक भारी और घुटन भरा तनाव धीरे-धीरे पूरे माहौल में फैलने लगा।
आरव और सुहानी धीरे-धीरे महल के अंदर आये। आरव का चेहरा शांत था, मगर उसकी आँखों में एक अजीब सी बेचैनी थी। सुहानी के कदम थमे हुए से लगे, जैसे हर कदम उसकी साँसों को और भारी कर रहा हो।
ड्राइंग रूम में बैठी गौरवी, दिग्विजय और मीरा की नज़रें दरवाज़े की ओर मुड़ीं। उनकी आँखों में इंतज़ार नहीं, हैरानी नहीं, बल्कि इलज़ाम से भरे शब्द थे।
गौरवी ने अपनी साड़ी के पल्लू का एक कोना कसकर पकड़ा, जैसे खुद को संभाल रही हो। उसकी आँखें सुहानी पर टिक गईं — निगाहों में वो कटाक्ष थी जो किसी सौतेली माँ की आँखों में अपनी बहू के लिए होती है, जिसे उसने कभी अपनाया ही नहीं।
“ये क्या हो रहा है आरव?” उसकी आवाज़ में वो खामोश गुस्सा था जो अब लावा बन चुका था।
“तुम तो कहते थे कि इसे सबक सिखाना है और अब देखो, इसके साथ ऐसे घूमते फिर रहे हों जैसे… जैसे तुम दोनों कोई लैला मजनू हो।”
गौरवी की बातों को सुनकर मीरा ने धीरे से अपनी आँखों को घुमाया और उसके होंठों पर व्यंग्य भरी मुस्कान आ गई। दिग्विजय की आंखों में जैसे कुछ ठहरा हुआ था, जो कुछ बड़ा सोच रही थीं।
सुहानी ने घबराकर आरव की ओर देखा। उसकी रगों में डर सा दौड़ गया — क्या अब वो सबके सामने सच्चाई उगल देगा? क्या अब वो कहेगा कि उसकी माँ और भाई की मौत के लिए उसका परिवार जिम्मेदार है? क्या अब वो उन पर इल्ज़ामों की बौछार करेगा?
मगर आरव ने जो किया उसके बाद लोगों का भगवान पर से भी विश्वास उठ जाए। वो शांत कदमों से गौरवी के पास गया, उसकी नज़रों में कोई घृणा नहीं थी… बल्कि वो कुछ छिपा रहा था।
गौरवी का चेहरा सख्त था, लेकिन उसकी पलकों में एक हल्की सी बेचैनी झलक रही थी। उसने गौरवी को कस कर गले से लगा लिया।
“मुझे माफ कर दो माँ…” आरव की आवाज़ भर आई।
“मुझे ये सब करना पड़ा, ये… ये घर से भाग गई थी। मुझे किसी भी हालत में इसे वापस लाना था। इसने बहुत कोशिश की मुझे भड़काने की… मुझे आपके खिलाफ करने की…”
वो एक पल रुका, फिर उसकी आँखें गंभीर हो गईं — जैसे सच और झूठ के बीच झूल रही हों।
“…मगर मैं जानता हूँ माँ, आप कैसी हैं। आप कभी गलत नहीं हो सकतीं।”
गौरवी का चेहरा निश्चिंत हो गया, उसकी आँखें सुकून से नम होने लगीं, लेकिन उसने जल्दी से पलकों को झपकाकर उन्हें रोक लिया।
“मैं आपका बेटा हूँ… और बेटे कभी माँ की नज़रों से नहीं गिरते। आपने जो भी किया, जो भी फैसला लिया, मैं उसके पीछे खड़ा हूँ।”
मीरा की मुस्कान अचानक गायब हो गई, दिग्विजय की मुट्ठियाँ भींच गईं।
सुहानी बस चुपचाप खड़ी रही। उसके होंठ काँपे, लेकिन आवाज़ नहीं निकली। उसने आरव की आँखों में झाँकने की कोशिश की, पर वहाँ सिर्फ परछाइयाँ थीं — जो ये बता रही थीं कि जो दिख रहा है, वो सच नहीं… और जो सच है, वो अभी पर्दे के पीछे है।
सुहानी का चेहरा सफेद पड़ गया था। जैसे उसकी रगों में बहता खून अचानक जम गया हो। उसकी आँखों की चमक एक पल में बुझ गई। वह स्तब्ध खड़ी रही, मानो ज़मीन ने उसके पैरों के नीचे से खिसकना शुरू कर दिया हो।
जिस आदमी ने चंद घंटों पहले उसके आँसुओं को अपनी हथेलियों से पोंछा था… वही अब सबके सामने उसी की असलियत को तोड़-मरोड़ कर पेश कर रहा था। उसके जख्मों पर जो मरहम उसने लगाया था, अब वही उन्हें नोंच रहा था — बेरहमी से।
“ये बाहरवालों से मदद ले रही थी माँ,” आरव की आवाज़ में अब वो भावनाएँ नहीं थीं जो सुहानी को पहले दिखाई दी थीं। उसकी बातों में एक जानबूझ कर रचा गया झूठ था — ऐसा झूठ, जो बेहद यकीन के साथ बोला जा रहा था।
“रणवीर चाचू, विक्रम ठाकुर, न जाने कौन-कौन इसे भड़का रहे थे। शायद कुछ सबूत ढूँढने निकली थी ये, जब मैंने इसे रंगे हाथ पकड़ लिया।”
आरव की नज़रें अब भी सुहानी से नहीं मिल रही थीं। उसके चेहरे पर मासूमियत का मुखौटा था, लेकिन सुहानी को अब उसके पीछे छिपे हर धोखे की गंध आ रही थी।
“मगर माँ…”
आरव ने थोड़ा सिर झुकाया, आवाज़ में नाटकीय शर्म और घबराहट घोलते हुए बोला, “आज इसके भाई ने शिव प्रताप के खिलाफ गवाही दी है। न जाने क्यों… लेकिन इससे हमें ही फ़ायदा हुआ है, शायद भगवान भी अब हमारे साथ है।”
गौरवी की आंखों में हल्का संतोष उभरा, लेकिन दिग्विजय अब भी पूरी तरह शांत नहीं हुआ था। उसने गहरी साँस ली और भारी स्वर में कहा,
“नहीं… हमें अब भी सतर्क रहने की ज़रूरत है। ये खुशी की बात तो है, मगर कोई हमें फेवर क्यों करेगा? इसके पीछे कुछ तो ज़रूर है। बहुत ज़्यादा अच्छा हो रहा है… और जब सब कुछ अचानक अच्छा होने लगे, तो खतरा करीब होता है।”
अब तक चुप खड़ी सुहानी की आँखें अब शून्य नहीं थीं — उनमें अब आँसू नहीं, आग थी। उसकी मुट्ठियाँ बँध गईं, होंठ थरथराए, और उसके सब्र का बाँध आखिरकार टूट गया।
“वाह… क्या ड्रामा है!”
उसने एक कड़वा ठहाका लगाया, ऐसा ठहाका जो किसी टूटे दिल की गूँज लिए हुए था।
“कितने अच्छे से निभा लिया तुमने अपना रोल, आरव राठौर! एकदम परफेक्ट एक्टिंग!”
सबकी नज़रें अब सुहानी पर थीं। गौरवी झटके से उठ खड़ी हुई। चेहरा तमतमाया हुआ, आंखें गुस्से से लाल।
“ज़्यादा ज़बान मत चलाओ, वरना—”
“वरना क्या करोगी?”
सुहानी की आवाज़ अब कमज़ोर नहीं थी — वो गूंज रही थी, दीवारों से टकरा रही थी।
“और क्या बाकी रह गया है तुम लोगों की साजिशों में?”
उसने एक-एक शब्द को आग की तरह उगला।
“मेरी माँ की ज़िंदगी बर्बाद की… मेरे पिता को बदनाम किया… अब मेरे भाई तक का इस्तेमाल कर लिया!”
उसके सीने में उठती साँसें बता रही थीं कि वो खुद को काबू में रखने की कोशिश कर रही थी — फूट पड़ने से, बिखरने से। मगर उसके आँसू अब आँखों में नहीं, आवाज़ में थे।
“तुम लोगों के लिए रिश्ते सिर्फ मोहरे हैं न? प्यार, वफ़ा, भरोसा — ये सब तुम्हारे लिए सिर्फ़ दिखावा है!”
आरव ने एक पल के लिए उसकी ओर देखा — वो नज़रों का टकराव बिजली की तरह था। लेकिन अब वो पल भी बीत चुका था।
“बस करो!”
आरव की दहाड़ पूरे कमरे में गूंज उठी। उसकी आँखों में लावा था, चेहरा सख्त, और मुट्ठियाँ कसी हुई थीं। वो एक झटके में सुहानी के पास पहुँचा और उसका हाथ कसकर पकड़ लिया।
“अब बहुत हो गया, सुहानी।”
उसके लहजे में गुस्सा नहीं, कोई उबाल था — जैसे बरसों की थकान, कुछ अधूरे जवाब, और भीतर दबी कोई बेचैनी हो।
“तुम्हें कुछ समझ नहीं आता तो बकवास मत करो।”
सुहानी हकबकाकर उसकी तरफ देखती रही, कुछ पल पहले जिसने उसे सबके सामने बेइज़्ज़त किया, जो झूठ पर झूठ बोलता गया — अब वही उसे चुप करवा रहा था।
“हाथ छोड़ो मेरा!”
उसने चीखकर कहा, उसकी आवाज़ काँप रही थी — मगर डर से नहीं, ग़ुस्से और टूटे हुए विश्वास से।
“आप जैसे धोखेबाज़ इंसान के साथ रहने से तो बेहतर है, मैं अकेले मर जाऊँ!”
आरव का चेहरा एक पल के लिए सख्त हुआ, फिर उसने अपनी पकड़ और कस ली। जवाब दिए बिना, वो सुहानी को जबरन हॉल से बाहर ले गया। सुहानी विरोध करती रही, छूटने की कोशिश करती रही — मगर आरव ने जैसे आज सब कुछ सुनना बंद कर दिया था।
“अब ये मेरे कमरे में ही रहेगी,” उसने नीचे झाँकते हुए कहा, उसकी आवाज़ में एक मजबूरी छुपी हुई थी, “ताकि मैं इस पर हमेशा नज़र रख सकूँ।”
नीचे, हॉल में खड़े लोग — गौरवी, दिग्विजय, मीरा — सब चुप थे। इस बार ना कोई ताली बजी, ना कोई तंज मारा गया।
बस सन्नाटा था… भारी और संदिग्ध। कमरे का दरवाज़ा बंद होते ही एक सन्नाटा पसर गया।
एक पल की चुप्पी। फिर…
चटाक!
थप्पड़ की आवाज़ कमरे की दीवारों से टकराकर, लौट आई।
सुहानी का हाथ आरव के गाल पर पड़ा था — इतनी ताक़त से कि आरव का चेहरा एक ओर झुक गया। उसके गाल पर लाल निशान उभर आया था। उसने अपनी आँखें पल भर के लिए बंद कर लीं, और कुछ गहरी सांसे लीं।
कमरे में सन्नाटा और गहरा हो गया।
आरव ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।
उसने चुपचाप अपनी साँसें रोकीं… जैसे उस थप्पड़ को महसूस करना चाहता हो। जैसे हर वो शब्द, हर वो ज़ख्म जो सुहानी ने अभी तक झेला — सब उसकी हथेली में समेटकर उसके चेहरे पर रख दिया गया हो।
जब उसने धीरे-धीरे अपनी आँखें खोलीं, तो देखा — सुहानी पीछे हटकर पलंग के कोने पर जा बैठी थी।
उसकी साँसें बहुत तेज़ चल रही थीं, जैसे मीलों दौड़कर आई हो। बाल बिखरे हुए, चेहरा लाल और आँखें… आँखें अब भी नम नहीं थी, मगर वो कुछ ही पल में छलक पड़ने को थी।
“क्यों किया ये सब?”
उसके होंठ थरथराए। उसकी आवाज़ बहुत धीमी थी, मगर चुभने वाली।
“क्यों?”
आरव धीरे-धीरे उसके करीब गया और सामने ज़मीन पर घुटनों के बल बैठ गया। अब वो सुहानी की आँखों के बराबर में बैठा था। कोई अहंकार नहीं था उसके चेहरे पर, कोई क्रोध नहीं। बस थकावट थी — वो थकावट जो हर दिन किसी नाटक को जीने के बाद होती है।
उसने धीरे से सुहानी के हाथ थामे।
सुहानी चौंकी।
उसका दिल ज़ोरों से धड़का — “शायद अब ये मुझे भी चोट देंगे…”
"शायद मुझे दाटेंगे, डराएँगे…" उसने मन ही मन खुद से कहा।
……लेकिन नहीं।
आरव की उंगलियाँ काँप रही थीं। उसने धीरे से उसके बाजुओं पर हाथ फेरा — ना कोई ज़ोर था, ना कोई घमंड… बस एक कम्पन… एक पश्चाताप।
“मैं...” आरव की आवाज़ बहुत धीमी हो गई थी।
“मैं ये सब नहीं करना चाहता था, सुहानी। ये जो तुमने देखा… जो सुना… ये में नहीं करना चाहता था, मगर में मजबूर था।”
सुहानी ने उसकी तरफ देखा, गुस्से और दर्द की भावना के बीच उलझते हुए।
“तो फिर क्यों किया?”
उसकी आवाज़ टूट रही थी।
“क्यों मेरी ज़िंदगी के साथ बार बार खेल रहे हो? आपके अंदर क्या थोड़ी भी इंसानियत नहीं बची है?”
आरव ने उसकी आँखों में देखा।
“कभी-कभी इंसान अपने दिल से लड़ते-लड़ते पत्थर बन जाता है, सुहानी…”
“मैं जानता हूँ मैं तुम्हें चोट पहुँचा रहा हूँ, मगर अगर मैं ऐसा ना करता... तो...”
उसकी आवाज़ ठहर गई। आँखें नम होने लगीं।
सुहानी का चेहरा अब भी सख्त था, लेकिन उसकी उँगलियाँ ढीली पड़ने लगी थीं। उसके दिल में एक नया तूफ़ान उमड़ रहा था —
क्या आरव वाक़ई मजबूर है? या ये कोई और चाल है? बाहर जो हुआ वो सब ड्रामा था, या फिर जो अब यहाँ हो रहा है? और उसी क्षण, उसकी आँखों से आँसू बह निकले…
“सॉरी...”
आरव की आवाज़ इतनी धीमी थी जैसे किसी टूटे हुए इंसान की साँसें।
“मुझे तुम्हें ऐसे घसीटना नहीं चाहिए था… लेकिन में मजबूर था सुहानी...”
उसके शब्द सुहानी के लिए एकदम हलके थे।
सुहानी अब भी वहीं बैठी हुई थी — आँखें चौड़ी, चेहरा सफेद, और भीतर से जैसे सब कुछ सुन्न हो गया हो। उसने आरव को घूरा। उसकी आँखों में डर नहीं था…बल्कि एक अजीब सी तलाश थी —
“क्या ये वही आरव है जिसने मेरी ज़िंदगी तबाह की?”
“या ये कोई और है, जो किसी बहुत बड़े जाल में खुद भी फँसा है?”
“क्या कर रहे हो आप?”
उसकी आवाज़ फुसफुसाहट में निकली, लेकिन उसमें हज़ारों सवाल थे।
“बाहर क्या था वो सब? ये... ये सब झूठ था?”
आरव ने गहरी साँस ली, जैसे शब्दों को ढूंढने में वक़्त लग रहा हो।
“अगर तुम्हें लगता है कि उन लोगों से लड़ना आसान होगा, तो तुम ग़लत हो, सुहानी।”
उसकी आँखें अब सीधी सुहानी की आँखों में झाँक रही थीं।
“वो लोग… चालाक नहीं, शातिर हैं। उन्हें सिस्टम का हर पैंतरा, हर रास्ता, हर इंसान… सबकी कीमत पता है।”
वो उठकर खिड़की की ओर गया। बाहर अंधेरा था — लेकिन उसकी आँखें किसी और स्याही को देख रही थीं।
“तुम जब सावित्री अम्मा से मिलने गई थीं… तुम्हारा पीछा किया गया। ऐसा लगता है जैसे कोई चाहता था कि तुम उन्हें ढूंढो। तुम्हारे हर क़दम पर, हर मोड़ पर नज़र रखी गई थी।”
सुहानी की आँखें हैरानी से चौड़ी हो गईं।
“तुम कहना क्या चाह रहे हो?”
आरव धीरे-धीरे उसकी तरफ मुड़ा “मैं ये नहीं कह रहा कि मैं नीचे खड़े उन पापियों का साथ दे रहा हूँ, सुहानी। मैं उनसे उतनी ही नफरत करता हूँ, जितनी शायद तुम भी नहीं कर सकती...”
उसकी आँखों में अभी भी नमी थी, पर कोई आँसू नहीं गिरा।
“लेकिन अगर हम एक भी ग़लती कर बैठे…”
“तो न तुम्हारी माँ बचेगी, न मेरे बाबा, न सावित्री अम्मा… और न ही तुम।”
सुहानी अब भी कुछ नहीं बोल सकी। एक तरफ उसे यकीन करना था कि शायद आरव वाकई मजबूर है…दूसरी तरफ उसका दिल चीख-चीखकर कह रहा था — “इस बार फिर मत टूटना, सुहानी। मत भरोसा करना…”
कमरे में फिर वही सन्नाटा लौट आया — दरवाज़ा बंद हुए कुछ घंटे बीत चुके थे। आरव जा चुका था, कमरे में अब बस सन्नाटा था — गहरा, भारी और तनाव से भरा हुआ।
सुहानी खिड़की के पास बैठी थी। चाँद की हल्की रोशनी उसके चेहरे को छू रही थी, लेकिन उसकी आँखें अंधेरे में कहीं खोई हुई थीं।
उसके हाथ में एक पुराना लिफ़ाफा था — वही, जो माँ की पुरानी किताबों के बीच से मिला था। उसमें एक तस्वीर थी — उसकी माँ काजल। तस्वीर में माँ मुस्कुरा रही थी, पर उस मुस्कान के पीछे अब सुहानी को एक छुपा दर्द नज़र आने लगा था, जो पहले कभी महसूस नहीं हुआ।
“माँ…”
उसने धीरे से तस्वीर पर उंगलियाँ फिराईं, जैसे कोई पुराने ज़ख्मों को सहला रही हो।
“क्या तुमने भी यूँ ही किसी पर भरोसा किया था?”
“क्या वो भी तुम्हें झूठा प्यार देता रहा… और फिर तुम्हें अकेला छोड़ गया?”
उसकी आवाज़ काँप रही थी।
“आरव कहता है कि वो मजबूर है। कहता है कि उसने झूठ बोला ताकि मेरी और तुम्हारी हिफ़ाज़त कर सके… लेकिन माँ, अगर यही प्यार है, तो इसमें इतनी तकलीफ क्यों है?”
उसकी आँखों से चुपचाप आंसू बहने लगे। उसने कोशिश भी नहीं की उन्हें रोकने की।
वो उठी, अलमारी के पास गई, और वहाँ से अपनी माँ की एक पुरानी डायरी निकाली। पन्ने पीले पड़ चुके थे, किनारों पर वक्त की दरारें थीं। वो उसे खोलकर पढ़ने लगी — बेतहाशा, जैसे कोई भूखी आत्मा सच्चाई की एक बूँद खोज रही हो।
"‘शब्दों से छल होता है… लेकिन खामोशी ज़्यादा दर्द देती है।’
डायरी की एक पंक्ति उसके दिल पर हथौड़े की तरह लगी।
उसने सिर उठाकर तस्वीर को देखा।
“माँ, क्या आरव की खामोशी में वही दर्द है जो तुम्हारी आंखों में था? या फिर ये बस एक और मुखौटा है, जिसे वो रोज़ पहनता है?”
वो अब बिस्तर पर बैठ चुकी थी, घुटनों में सिर छुपाए।
“मैं तुमसे वादा करती हूँ, माँ,”
"मैं सच्चाई को सामने लाऊँगी — चाहे वो जितनी भी डरावनी क्यों न हो। अगर आरव सच में झूठा है, तो मैं फिर कभी उसके करीब नहीं जाऊँगी।
लेकिन अगर… अगर उसमें थोड़ा सी भी सच्चाई बची है, तो मैं उसे ढूँढ़ निकालूँगी। तुम्हारे लिए, अपने लिए, और उस बच्ची के लिए, जो आज भी अपने माँ-बाप के प्यार पर यकीन करना चाहती है…"
चाँद की रोशनी अब और भी साफ़ हो गई थी। सुहानी की सिसकियाँ उस कमरे की दीवारों में गूंज रही थीं। लेकिन उसकी आँखों में एक अजीब सी दृढ़ता थी — एक लड़ाई की शुरुआत, जो अब सिर्फ आरव या परिवार के खिलाफ नहीं थी…
बल्कि उस झूठ के खिलाफ थी, जिसने उसकी माँ की ज़िंदगी छीन ली, और अब उसकी साँसों को कैद करने की कोशिश कर रहा था।
क्या आरव सच बोल रहा है?
विशाल का शक़ कहीं यकीन में तो नहीं बदलने वाला?
सुहानी कैसे करेगी इस हाल में सबका सामना?
जानने के लिए पढ़ते रहिए… 'रिश्तों का क़र्ज़'!
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