आरव का मन बेचैन हो उठा था। सुहानी की भीगी आँखें, कांपते होंठ, और वो दर्द भरा चेहरा... सब कुछ जैसे उसके रग-रग में समा गया था। उसकी हर एक बात, उसके चेहरे पर झलक रही हर एक शिकायत—जैसे आरव के दिल की दीवारों को चीरती चली गई। कुछ पल के लिए वह सुन्न हो गया, मगर जैसे ही सुहानी ने दरवाज़ा खोला और कमरे से बाहर चली गई, आरव का संयम टूट गया। उसने खुद को कुछ देर तक समझाने की कोशिश की, फिर हार मान गया।

"नहीं!" उस ने लगभग फुसफुसाते हुए कहा और झटके से उठ खड़ा हुआ। उसकी सांसें तेज़ हो रही थीं, दिल किसी युद्ध के नगाड़ों की तरह धड़क रहा था।

"मैं उसे ऐसे नहीं जाने दे सकता..." उस ने खुद से कहा और तेज़ कदमों से दरवाज़े की ओर बढ़ा। जैसे ही उस ने दरवाज़ा खोला और बाहर कदम रखा, एक जाना-पहचाना चेहरा सामने से आता दिखा—मीरा। आरव के पैर ठिठक गए।

मीरा धीरे-धीरे उसकी ओर आ रही थी, चेहरे पर चिंता की लकीरें, आँखों में सवाल—और उस सवालों से कहीं ज़्यादा, एक मासूम उम्मीद कि आरव अब भी उसी का है, ऐसा आरव को लगा।

आरव के अंदर मानो एक तूफान चल रहा था। एक ओर सुहानी का टूटता विश्वास, उसकी आँखों में बसी पीड़ा... और दूसरी ओर मीरा—जो अब भी अपने इस प्यार की डोर को कस कर थामे खड़ी थी। उस ने एक लंबी साँस ली, अपने चेहरे पर ठंडा भाव चढ़ाया और खुद को संयम में लाया।

"नहीं, मीरा को कुछ पता नहीं चलना चाहिए... नहीं तो वो टूट जाएगी। वैसे ही वो मेरी और सुहानी की शादी से खुश नहीं है," आरव ने मन ही मन कहा।

उसकी आँखों के सामने मीरा का वो धुंधला चेहरा घूम गया जब उस ने शादी की बात सुनी थी—आशाओं से भरा, फिर अचानक निराशा से बुझता हुआ। उस ने बहुत कुछ सहा था। आरव जानता था कि मीरा ने उसके लिए अपने दिल में कितना कुछ दफन किया है। उस ने हमेशा आरव का साथ दिया, हर मुसीबत में, हर अंधेरे में। और अब, वो मीरा के टूटे हुए दिल का एक और कारण नहीं बनना चाहता था।

"मैं उसके साथ और ज़्यादा अन्याय नहीं कर सकता," उस ने ठान लिया।

कमरे के बाहर कदम रख चुका आरव, अब धीरे-धीरे पीछे मुड़ा और फिर कमरे के अंदर चला गया—बिल्कुल शांत, बिल्कुल स्थिर... मगर उसके भीतर का तूफान अब भी ज़िंदा था।

अब आरव को क्या पता था… कि जिस मीरा के दिल टूटने से वह डर रहा था, वही मीरा तो सुहानी को खुद उसके कमरे में रुकने के लिए कह कर गई थी। लेकिन टूटने वाला दिल, मीरा का नहीं था… सुहानी का था—और वो भी बार-बार, हर मोड़ पर, हर साँस के साथ।

जिस दिन से सुहानी ने इस हवेली में कदम रखा था, उस दिन से उसकी आत्मा जैसे रोज़ एक कोने में दम तोड़ती जा रही थी। हर सुबह उसके लिए एक सज़ा थी, हर शाम एक तिरस्कार। उस दिन की पीड़ा जैसे उस की रगों में लहू बन कर दौड़ रही थी, जब उस के बाउजी—शिवप्रताप—ने बिना एक शब्द कहे, बिना उसकी इजाज़त लिए, उसे एक सौदे की तरह राठौर के हवाले कर दिया था।

"ये शादी नहीं, समझौता है," उस ने खुद से उस दिन कहा था, मगर तब भी उसके भीतर एक उम्मीद थी कि शायद ये रिश्ता वक्त के साथ कोई माने रखे। लेकिन नहीं… उसे अपने पिता की नज़रों में कभी अपनी कोई value ही नहीं मिली। फैक्ट्री बचाने के नाम पर, उस ने अपनी बेटी को जैसे एक व्यापारिक वस्तु की तरह किसी ऊँचे दाम पर बेच दिया था। सुहानी के सपनों, उसकी भावनाओं, उसकी इच्छाओं का कोई मूल्य नहीं था।

उससे ना कोई राय ली गई, ना कोई सच्चाई बताई गई। उसे पहले से कुछ भी नहीं बताया गया—बस एक दिन, सज-धज कर उसे एक अनजान, ठंडी, और भयानक हवेली में छोड़ दिया गया। एक ऐसी जगह जहाँ लोगों के चेहरे मुस्कान से नहीं, नकली शानो-शौकत से दमकते हैं। जहाँ हर दूसरा इंसान खुद को किसी ‘राजा’ से कम नहीं समझता—और वो भी ऐसे राजा, जो जंगल के शेर नहीं, छिप कर वार करने वाले चालाक गीदड़ हैं। हर चेहरे पर मुखौटे हैं, हर मुस्कान के पीछे एक साज़िश है, और हर रिश्ते के नीचे दबी है लालच, झूठ, और अतीत की काली स्याही।

सुहानी टूट रही थी… हर दिन, हर पल। पर उसकी आवाज़ किसी तक नहीं पहुँचती थी। क्योंकि इस घर में उसकी तकलीफों का कोई मोल नहीं था, और उसकी चुप्पी को सब उस की सहमति मान बैठे थे।

उसने कभी नहीं सोचा था कि जिस भाई को वह अपने जीवन का सबसे बड़ा सहारा मानती थी, वही एक दिन उसके सबसे बड़े सच से उसे दूर रखेगा। विशाल—उसका भाई, उसका अभिभावक, उसका सब से करीबी… जब वक़्त आया सच्चाई बताने का, तो उसने भी चुप्पी ओढ़ ली। जैसे उसकी बहन का विश्वास, उसकी भावना, उसके लिए कोई मायने नहीं रखती थी।

और उसका वो दोस्त, विक्रम… जिस से उस ने हर राज़ बाँटे थे, जो उसके बचपन की हँसी और आँसू का गवाह था—उसने भी साथ देने के बजाय इस साजिश का हिस्सा बनना बेहतर समझा। क्या दोस्ती का यही मतलब होता है? कि जब तूफान आए, तो दोस्त ही उसे डूबने के लिए अकेला छोड़ दे?

जब सुहानी ने इस हवेली में कदम रखा, तो उसे लगा था शायद वक्त के साथ लोग उसे समझेंगे। लेकिन यहाँ तो जैसे हर कोना, हर दीवार, हर व्यक्ति उसे नोच खाने को तैयार बैठा था। ये घर हवेली नहीं, शिकारी गीदड़ों का अड्डा थी—जहाँ इंसानियत को खामोशी से मार दिया जाता है, और मुस्कुराकर उसके शव पर चाय परोसी जाती है।

और आरव…?

जो कभी उसकी आंखों में नफ़रत की आग लेकर देखा करता था। आरव, जिसकी बातों में ज़हर और नजरों में तिरस्कार होता था। उसे बचपन से ही सुहानी के खिलाफ जहर पिलाया गया था। उसके कानों में सालों तक सिर्फ एक ही कहानी गूंजती रही—कि सुहानी और उसका परिवार गुनहगार हैं… विश्वासघाती हैं।

मगर जब शादी के बाद वो सुहानी के करीब आया, जब उसने उसकी खामोशी में चीखें सुनीं, उसकी आंखों में सालों की थकी हुई पीड़ा को देखा… तब जाकर उसे समझ आया कि उसे जो सिखाया गया था, वो सच नहीं था।

सुहानी वो नहीं थी जो उसे बताया गया था। वो तो बस एक मोहरा थी, उस खेल का हिस्सा, जिस में वो भी एक प्यादा बन चुका था। वो धीरे-धीरे समझने लगा था…कि नफ़रत सिखाई जाती है, मगर इंसानियत महसूस की जाती है। और फिर… सच की तलाश में, झूठ की परतों को एक-एक कर खोलते हुए, कब वे एक-दूसरे के इतने करीब आ गए—उन्हें खुद भी नहीं पता चला।

वो लम्हे जब आरव ने सुहानी की आंखों में दर्द के सागर को देखा, और बिना शब्दों के ही उसे समझने लगा…वो पल जब सुहानी ने आरव के रूखेपन के पीछे छुपे अधूरे बचपन और अधजले सच्च को महसूस किया—तब कहीं न कहीं दोनों के भीतर कुछ पिघलने लगा था।

ना वो कोई इज़हार था, ना वादे, ना कविताएँ, ना चाँद-तारे… बस एक खामोश जुड़ाव था। एक ऐसा रिश्ता जो धीरे-धीरे दिल की मिट्टी में बीज की तरह बोया गया था—जिसे नफ़रत के तूफान ने नहीं उखाड़ा, बल्कि सच्चाई की बारिश ने सींचा। वक़्त के साथ दोनों इस रिश्ते की अहमियत समझने लगे। अब बात केवल साथ चलने की नहीं रही, अब वो एक-दूसरे के लिए लड़ने और मर-मिटने को तैयार थे।

मगर तभी…एक झटका सा लगा। जैसे किसी ने उन दोनों की बनी बनाई दुनिया को अचानक झकझोर दिया था। ख़बर आई—प्रणव जिंदा है। आरव का जुड़वाँ भाई… वो जिसे सालों पहले मरा हुआ मान लिया गया था… असल में तैखाने में बंद था।

आरव की रगों में बर्फ दौड़ गई। उसने खुद को कभी माफ़ नहीं किया था कि वो अपने भाई की जान न बचा सका… और अब ये सच्चाई सामने आना कि प्रणव जिंदा है—उसे भीतर तक तोड़ गया।

सुहानी के लिए ये ख़बर जितनी चौंकाने वाली थी, उतनी ही डरावनी भी। जिस तहखाने का नाम सुनकर ही रूह काँप जाए, वहाँ कोई इतने सालों तक कैसे ज़िंदा रह सकता है? और ये किस की साजिश थी? कौन था जो आरव को उसके सगे भाई से इतने सालों तक दूर रखे बैठा था?

अब उनके सामने फिर से एक चौराहा आ गया था—एक ओर उनका प्यार, दूसरी ओर सच की वो परत, जो शायद उनके रिश्ते की नींव को हिला सकती थी।

मगर इस बार…अब वे डरने वालों में से नहीं थे। अब वे बिखरने नहीं, लड़ने को तैयार थे, साथ… और हमेशा के लिए। और फिर…जब आरव और सुहानी ने मिल कर सच्चाई की परतें उधेड़नी शुरू कीं, तो उन्हें हर जवाब के पीछे एक नया सवाल मिला। मगर उन्होंने हार नहीं मानी। वे रुकने वाले नहीं थे।

प्रणव को दिग्विजय और गौरवी ने, रणवीर के कहने पर सालों से अपने शिकंजे में कैद कर रखा था—उसे ज़िंदा लाश बना दिया था। ना रोशनी, ना इंसानियत, बस दीवारें, ज़ंजीरें और साजिशें थीं उस के इर्द-गिर्द।

जब आरव ने उसे उस नरक से निकालने की ठानी, तब वो खुद को रोक नहीं सका। ना अपनी जान की परवाह की, ना दर्द की। उसकी आँखों में सिर्फ एक मक़सद था—अपने भाई को आज़ाद कराना। और फिर वही हुआ, जो अक्सर सच्चाई की राह में होता है—गोलियाँ चलीं। एक गोली आरव के सीने को चीरती हुई निकल गई, और एक गोली उसके सिर को छूकर निकल गई और जब वह मुड़ा, तो किसी भारी चीज़ की चोट उसके सिर पर लगी।

सब कुछ धुंधला पड़ गया…उसके कानों में सुहानी की चीखें गूंजती रहीं… फिर सब शून्य। आरव कई दिनों तक बेहोशी की हालत में रहा। उसकी साँसें चलती रहीं, मगर चेतना जैसे उसे छोड़ चुकी थी। उधर सुहानी…जिसका प्यार अभी-अभी पनपा था, वो अब उस प्यार को टूटते हुए नहीं देख सकती थी।

उस ने प्रणव को सुरक्षित स्थान पर पहुंचा दिया। और फिर अकेले ही, उस तख़्त की नींव को हिलाने निकल पड़ी, जिस पर राठौरों ने सालों से झूठ का साम्राज्य खड़ा किया हुआ था।

सुहानी ने हर वह राज़ पता किया, जिसे सालों से दफन कर दिया गया था। गुप्त दस्तावेज़, खोए हुए वसीयतनामे, खून से सने इतिहास के पन्ने—सब कुछ उस ने खोज निकाला। उसने वो सारे सबूत इकट्ठा कर लिए, जिस से राठौरों की हुकूमत छिन सकती थी। और फिर… उस ने वही किया। सारी मलकियत, सारी जायदाद, सारे अधिकार—राठौरों से छीन लिए।

एक-एक कर के उसने उन गीदड़ों को उनके सिंहासन से धकेल दिया। अब बस एक इंतज़ार था—आरव के होश में आने का। वो हर रोज़ उसके पास आ कर बैठती, उसके हाथ को पकड़ती, और फुसफुसा कर कहती— “उठो आरव… देखो, जो तुम ने सोचा भी नहीं था, वो मैं कर चुकी हूँ। अब बस तुम लौट आओ… मैं टूट रही हूँ।”

उसके आँसू हर रोज़ उसके हाथ पर गिरते, उम्मीद की तरह। और फिर… एक दिन… आरव की उंगलियाँ हिलीं। जब आरव ने धीरे-धीरे आँखें खोलीं, तो सुहानी की दुनिया जैसे एक पल में थम सी गई। वो भाग कर उसके पास आयी थी, जैसे कोई टूटी हुई उम्मीद को फिर से जी उठाने आई हो।

मगर सच… उससे ठीक बिल्कुल उल्टा था। आरव की नजरें सुहानी पर पड़ीं… मगर उन में कोई अपनापन नहीं था, कोई पहचान नहीं थी। वो चौंका, जैसे किसी अजनबी को देख रहा हो। "तुम यहां क्या कर रही हो?"—उसकी आवाज़ में उलझन थी, सख्ती थी। सुहानी की मुस्कान जम गई।

“आरव… मैं सुहानी हूँ… तुम्हारी पत्नी।”

मगर आरव की भौंहें सिकुड़ गईं, “पत्नी?” उसने जैसे उस शब्द को पहली बार सुना हो। “मुझे तो याद है, मैं तुम से नफरत करता हूँ… तुम्हारी जैसी लड़की से दूर रहना ही बेहतर समझता हूँ।”

सुहानी के भीतर जैसे कोई कांच का महल टूट कर बिखर गया। जिन लम्हों को उसने अपने खून, आंसुओं और प्यार से सींचा था… वो लम्हें अब उसे ही पराए लगने लगे थे।

उधर, जैसे ही दिग्विजय, गौरवी और रणवीर को पता चला कि आरव की याददाश्त वापस आयी है—मगर अधूरी—उन्होंने फिर से वही खेल शुरू कर दिया। वो झूठ, वही ज़हर, जो सालों पहले आरव के ज़हन में भरा गया था… अब फिर से उसकी नसों में घोला जाने लगा।

“वो लड़की तुम्हें बर्बाद करने आयी थी, आरव… उसे तुम्हारे परिवार से बदला लेना था…”

“तू भूल गया, उसके बाप ने क्या किया था हमारे साथ?”

“और तू देख, वो अकेली कैसे सब की जायदाद छीन ले गई—यही थी उसकी चाल… प्यार तो बस दिखावा था।”

आरव सुनता रहा। उसकी आँखों में शक उतरने लगा। अब वो हर उस पल को, हर उस एहसास को—जो सुहानी ने उस के लिए जिया था—झूठ समझने लगा। मगर एक चीज़… जो उसका मन, उसकी धड़कन, कभी भी नहीं भूल सकी… वो था—सुहानी की मौजूदगी में उसके दिल का तेज़ धड़कना।

जब भी वो उसे देखता… उसका दिल वही एहसास दोहराने लगता, जो कभी उसकी जान बन चुका था। मगर दिमाग… अब फिर से ज़हर से भरा हुआ था।

सुहानी सब कुछ देख रही थी—उसकी आँखों का बदल जाना, उसके लहजे में लौटती सख्ती, उसके कदमों में बढ़ती दूरी। मगर फिर भी… वो हर रोज़ कहती—

“तुम मुझ से फिर से नफरत कर सकते हो, आरव… पर मैं तुम्हें फिर से प्यार करना सिखाऊँगी।”

 

आगे की कहानी जानने के लिए पढ़ते रहिये, रिश्तों का क़र्ज़।

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