आरव की नज़रें सुहानी के चेहरे पर टिकी थीं, मगर अब उन में नर्माहट नहीं, बल्कि कड़वाहट और गुस्से की एक चुभन थी। कुछ पल की ख़ामोशी के बाद उसने बेहद ठंडी, लेकिन चुभती हुई आवाज़ में कहा — “तुम्हें शर्म नहीं आई?”
सुहानी का सिर झुक गया। उसकी उंगलियाँ बेतहाशा आपस में उलझने लगीं।
“तुम जानती हो ना, सुहानी… कि ये शादी एक समझौता है। एक झूठ... एक मजबूरी है।”
उसकी आवाज़ अब तीखी हो चुकी थी, शब्दों में मानो जहर घुला हुआ था।
“ना मैं तुम से कोई रिश्ता निभाना चाहता हूँ... ना ही मुझे कोई उम्मीद है इस रिश्ते से। और तुम हो कि इस तरह...इस तरह मेरे पास आकर सो गई? क्यों? क्या दिखाना चाहती हो? कि तुम मेरी पत्नी हो, तो तुम्हारा कोई हक़ बनता है मुझ पर?”
सुहानी की आँखें भर आईं, मगर उस ने अब भी चुप्पी नहीं तोड़ी।
“मैंने पहले भी कहा था — मैं तुम्हें अपनी पत्नी नहीं मानता और बहुत जल्द ये झूठा रिश्ता भी खत्म हो जाएगा। और एक बात साफ़-साफ़ सुन लो — मैं मीरा से शादी करने वाला हूँ। वो मेरी पसंद है, मेरी ज़िन्दगी है। और तुम... तुम सिर्फ एक बाधा हो, जिसे मैं जल्द ही हटा दूँगा।”
अब सुहानी की आँखों से आँसू छलक चुके थे, मगर वो फिर भी चुप रही।
आरव के शब्दों की तल्ख़ी अब और भी बढ़ चुकी थी। वो सुहानी की ओर देख कर एक कदम आगे बढ़ा — उसकी आँखों में अब अविश्वास, ग़ुस्सा और आहत भावनाओं की चिंगारियाँ थीं।
“तुम्हारा यहाँ इस कमरे में रुकना... वो भी मेरे बिस्तर पर मेरे पास सोना — ये सब कुछ बिलकुल गलत था, सुहानी!”
उसने तीखे स्वर में कहा, सुहानी सहम गई। उसकी पलकों से अभी-अभी गिरे आँसू उसके गालों पर निशान छोड़ चुके थे। मगर आरव नहीं रुका।
“अगर मीरा ये सब देख लेती तो? उसका क्या होता? तुम जानती हो ना वो मुझसे कितना प्यार करती है? पर यही तो तुम चाहती हो, है ना सुहानी?”
उसने आँखें चौड़ी करते हुए कहा, “तुम चाहती थी कि मीरा हमें साथ देखे... उसका दिल टूटे... और वो मुझ से दूर हो जाए — ताकि तुम्हें वो मिल जाए, जो तुम हमेशा से चाहती हो...”
सुहानी ने हैरानी और दुःख के मिले-जुले भाव से उसकी ओर देखा। मगर आरव अब रुकने वाला नहीं था।
“राठौर परिवार की प्रॉपर्टी में अपना हिस्सा!”
उस ने ज़ोर से कहा, “बस यही तो चाहिए तुम्हें। और तुम्हें क्या करना है ये हासिल करने के लिए — वो तुम अच्छी तरह से जानती हो। है ना? मीरा से मेरी होने वाली शादी टूट जाए, मैं मजबूरी में तुम्हारे साथ इस शादी को आगे झेलता रहूं, और फिर तुम धीरे-धीरे इस परिवार की दौलत की मालकिन बन जाओ — है ना?”
सुहानी अब टूट चुकी थी। उसकी साँसें तेज़ हो गई थीं, मगर उसने अब भी चुप्पी नहीं तोड़ी। क्योंकि उसकी नज़र में, आरव ने जो कहा था — वो सिर्फ़ इल्ज़ाम नहीं थे, बल्कि उसका अपमान था... उस निःस्वार्थ भावना का, जो उसने शायद खुद भी महसूस किए बिना, आरव के लिए कहीं अपने भीतर पाल ली थी।
आरव की आवाज़ में अब भी वो ही सख्ती थी — “तुम्हारा खेल अब ज़्यादा देर तक नहीं चलने वाला, सुहानी। तुम्हारे इरादों की सच्चाई अब मुझे दिखने लगी है। और यक़ीन मानो... मैं तुम्हें वो कभी हासिल नहीं करने दूँगा, जिसकी तुम ख्वाहिश रखती हो।”
इतना कहकर वो गहरी साँस लेकर पीछे मुड़ गया। सुहानी वहीं खड़ी रही — आंखों से बहते आँसुओं के साथ... चुप... बिलकुल चुप। आरव का चेहरा गुस्से से तप रहा था। उसकी आँखों में अब किसी तरह की नरमी नहीं थी — बस कटाक्ष और घृणा थी।
“मेरी माँ सही कहती थी तुम्हारे बारे में, सुहानी...” उसने तीखे स्वर में कहा। “तुम एक चालाक और लालची औरत हो, तुम्हें किसी की भावनाओं से कोई फर्क नहीं पड़ता — तुम्हें सिर्फ मतलब है तो केवल अपने फ़ायदे से।”
“अब से... तुम मुझ से दूर ही रहना,” आरव की आवाज़ और भी कठोर हो गई, “तुम्हारे ये सब पैंतरे... ये नाटक... ये झूठा अपनापन — ये मुझ पर असर नहीं करने वाले।”
सुहानी ने एक पल को हिम्मत जुटाई, और भर्राई आवाज़ में कहा — “आरव... आप जो समझ रहे हैं, वो सब ग़लत है। मैं कभी—”
“बस!” आरव ने उस का वाक्य बीच में ही काट दिया।
“मुझे और कुछ नहीं सुनना, सुहानी। मुझे अब तुम्हारे किसी भी स्पष्टीकरण की जरूरत नहीं है। जो मुझे जानना था, मैं जान चुका हूँ।”
अब उसने अपनी नज़रें भी उस से हटा लीं। आरव ने अपनी उंगली दरवाज़े की ओर उठाते हुए कहा — “अब जाओ यहाँ से। अभी के अभी।”
उसकी आवाज़ में अब आदेश था, अपमान नहीं और हर उस भावना का घातक रूप था जो किसी मासूम दिल को तोड़ सकता है। सुहानी ने एक बार उसकी आँखों में देखा — शायद ये जानने के लिए कि क्या उसमें सच में कोई भावना नहीं बची... कोई भी नहीं। मगर वहाँ सिर्फ सख्ती और उसके लिए नफ़रत थी।
वो पल... सुहानी के लिए मानो सांस रोक देने जैसा था। उसके होंठ काँपे, मगर वो कुछ कह नहीं सकी। आँखों में उतरते आँसू अब ठहरने को तैयार नहीं थे। उसने नज़रें झुकाई... और बिना एक शब्द कहे, चुपचाप कमरे से बाहर निकल गई।
पीछे बस आरव की तेज़ साँसें और उस कमरे की सर्द ख़ामोशी रह गई — जो अब किसी तूफ़ान से कम नहीं थी। हर कदम पर सुहानी की रफ्तार धीमी होती गई... और दिल भारी।
आरव पीछे नहीं मुड़ा। वो वहीं खड़ा रहा, मगर उसकी आँखें कहीं दूर शून्य में टिकी थीं — मानो वो भी खुद से लड़ रहा हो... या शायद उस दर्द से जिसे उस ने खुद पैदा किया था। सुहानी के कमरे से जाते ही, वहाँ कुछ पल के लिए अजीब सी शांति छा गई।
आरव ने एक लंबी साँस ली। अभी कुछ पल पहले तक उसके भीतर जो ज्वालामुखी फूट रहा था, वह अब धीरे-धीरे ठंडा पड़ने लगा था। उसकी मुट्ठियाँ जो गुस्से से भींची हुई थीं, अब ढीली पड़ गईं थी। शरीर ढहता हुआ-सा पलंग पर बैठ गया। मगर जैसे ही उसका मन थोड़ा शांत हुआ, एक ही छवि उसके ज़हन में बार-बार कौंधने लगी — सुहानी की।
वो दृश्य... जब सुहानी चुपचाप उसकी बातों को सुनती रही, बिना कोई सफाई दिए, बिना किसी प्रतिरोध के... सिर्फ नम आँखों से, टूटे हुए क़दमों से, बस कमरे से बाहर निकल गई थी।
“उस ने कुछ नहीं कहा...” आरव के भीतर से एक आवाज़ आई।
“न लड़ी, न मुझे कुछ समझाने की कोशिश तक की, न कोई इल्ज़ाम लगाया...”
“उस ने मुझ से कुछ कहा क्यों नहीं?”
उस के मन में एक अजीब-सी कसक घर करने लगी थी। उसे अपने ही शब्द चुभने लगे थे — वो कठोर बातें, वो आरोप... जो शायद उस ने गुस्से में कहे, मगर उस के दिल ने नहीं। उस ने अपने सिर को पकड़ा और धीरे से आँखें बंद कर लीं।
“क्या मैंने हद पार कर दी?”
उस का अंतर्मन फुसफुसाया। अब उस कमरे में सन्नाटा नहीं था — वहाँ आरव के भीतर चलती एक उथल-पुथल की चीख थी। एक बेचैनी, जो अब खुद उसकी आत्मा को कचोटने लगी थी। आरव की आँखें अब भी उस दरवाज़े पर टिकी थीं, जहाँ से कुछ ही पल पहले सुहानी निकली थी। मगर उस का शरीर अब शिथिल था, और मन... भीतर से टूटा हुआ। उसकी आँखों में कुछ मरा हुआ-सा देखा था उसने।
वो नज़रिया, वो ख़ामोशी... जैसे किसी उम्मीद ने उसी पल दम तोड़ दिया हो। जैसे किसी ने भीतर ही भीतर हार मान ली हो — बिना कोई शोर किए, बिना आँसू के, बस एक खामोश विदाई। आरव का मन अब उस एक पल की कैद में था, वही चुप्पी, वही नज़र... अब उसे अंदर से निचोड़ने लगी थी।
“क्या सच में मैंने बहुत ज़्यादा सुना दिया उसे?” उसके अपने शब्द अब उसे ही जहर जैसे लगने लगे थे।
हर वो लफ़्ज़ जो उसने ग़ुस्से में कह डाला था —
‘लालची’, ‘चालाक’, ‘मीरा से शादी तुड़वाना चाहती हो’, ‘माँ ठीक कहती है’ — अब वही शब्द बाण बन कर उसके भीतर धँसने लगे थे। अंदर कहीं गहराई से एक पछतावा सिर उठाने लगा था। वो पछतावा जो किसी और के आँसू से नहीं, बल्कि उस ख़ामोश दर्द से जन्मा था जो सुहानी की आँखों में साफ़ झलक रहा था। पर जितना पछतावा आरव को हो रहा था, उतनी ही शिद्दत से वो अपने भीतर उठते भावों को दबाने की कोशिश भी कर रहा था।
“नहीं... नहीं आरव!” उस ने खुद से कहा, जैसे खुद को मनाने की ज़िद पर अड़ा हो।
“माँ ग़लत नहीं हो सकतीं... ताऊजी, चाचू… वो सब भी तो यही कहते हैं... सुहानी जैसी दिखती है, वैसी है नहीं...”
वो बार-बार खुद को यही यक़ीन दिलाने की कोशिश करता रहा — “सुहानी एक अच्छी इंसान नहीं है। वो चालाक है, लालची है... किसी मक़सद से आई है हमारी ज़िंदगी में।”
मगर दिल…वो तो कुछ और ही कह रहा था। दिल उस पल में अटक गया था, जब सुहानी ने बिना कुछ कहे सब कुछ सह लिया था। जब उसकी आँखों में टूटी हुई उम्मीद का सन्नाटा था।
आरव ने करवट बदली, पर चैन नहीं मिला। वो मानना चाहता था कि सुहानी जैसी दिखती है, वैसी नहीं है — मगर उसका मन… बार-बार यही पूछ रहा था — “अगर वो वैसी नहीं है, तो फिर वो इतनी चुप क्यों थी? उसने लड़ाई क्यों नहीं की मुझ से? मुझे क्यों नहीं कहा कि, मैं वो सब कुछ जो कह रहा था, वो सब एक ग़लतफहमी है।”
उस के मन और तर्क के बीच का युद्ध अब और तेज़ होता जा रहा था — एक ओर ग़ुस्से में कहे शब्द, परिवार के दिए हुए शक और आरोप, और दूसरी ओर… सुहानी की ख़ामोश, डरी हुई पर सच्ची आँखें।
मगर सवाल अब भी वही था— “अगर सुहानी सच में वैसी ही है जैसी सब कहते हैं… तो फिर उसे ठेस पहुंचाकर मेरा मन इतना बेचैन क्यों हो रहा है?”
आरव ने अपनी आँखें बंद कर लीं, जैसे उन दृश्यों को मिटा देना चाहता हो जो उसकी आँखों में बार-बार घूम रहे थे। पर वो चुपचाप जाती हुई सुहानी की छवि… उसकी बुझी हुई आँखें, झुका सिर और थरथराते होंठ… बार-बार सामने आ खड़ी हो जाती।
दिल में एक अजीब सी टीस उठ रही थी। एक ऐसा दर्द…जो किसी अपने को खुद से दूर करने के बाद उठता है। जिसका कोई तर्क नहीं होता, कोई ठोस कारण नहीं…बस एक खालीपन, एक कसक जो भीतर तक चुभ जाती है।
आरव के लिए ये भावना नई थी— “मैंने तो सिर्फ सच कहा… फिर ये दर्द क्यों हो रहा है मुझे?”
पर दिल ने धीरे से फुसफुसाया— “कभी-कभी सच भी तीर बन जाता है, अगर वो दिल को चीर कर निकले।”
और तभी, आरव का मन फिर एक और पल में उलझ गया— “वो एक रात पहले सुनी गई रिकॉर्डिंग…”
वो जो उसने गलती से सुन ली थी— जिस में उसके ताऊजी की आवाज़ थी…उसकी माँ गौरवी और चाचू की भी।
धीरे-धीरे, दबे लहजे में कह रहे थे— “हमें आरव से सब कुछ छुपा कर करना होगा… नहीं तो सब बर्बाद हो जाएगा।”
आरव की रूह तक काँप उठी थी उस वाक्य को सुन कर। उस वक्त तो वह इस सोच में ही डूब गया था कि शायद वह सुहानी से जुड़ा कोई षड्यंत्र है। लेकिन अब… अब वो खुद से सवाल करने लगा था— “क्या वो सच में सुहानी के ख़िलाफ़ कोई चाल चल रहे थे? या फिर… मुझ से ही कोई बड़ा राज छुपाया जा रहा है? क्या मैं अब तक अपने ही लोगों से छल खा रहा था?”
आरव की आँखों में असमंजस और अनिश्चितता का अंधेरा उतरने लगा। जो बातें अब तक पत्थर की लकीर लगती थीं… अब वो दरकने लगी थीं।
“क्या मेरी माँ, ताऊजी और चाचू… मुझे सब सच बता रहे हैं? या फिर… जो सुहानी के बारे में उन्होंने कहा… वो भी एक झूठ था?”
उसकी सांसें भारी होने लगीं थी। सवालों का ये सैलाब अब उसे भीतर तक डुबोने लगा था। क्योंकि जब अपनों पर ही शक होने लगे…तो इंसान की नींव हिलने लगती है।
क्या आरव कभी सच की सतह तक पहुँच पायेगा?
इस दर्द का मतलब समझ पायेगा?
इतना अपमान सहने के बाद सुहानी क्या सब सही होने से पहले आरव को छोड़ देगी?
जानने के लिए पढ़ते रहिये, रिश्तों का क़र्ज़।
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