कमरे की दीवारों पर सन्नाटा पसरा हुआ था, जैसे हर चीज़ सुहानी की सिसकियों को चुपचाप सुन रही हो। वो अब भी ज़मीन पर बैठी थी, आरव का सिर उस की गोद में था। मीरा उसके ठीक पास बैठी थी, उसके काँपते कंधों को सहारा दे रही थी। कई मिनट तक कोई कुछ नहीं बोला। सिर्फ घड़ी की टिक-टिक और सुहानी की धीमी सिसकियाँ। और फिर, जैसे भीतर बहुत देर से दबी कोई आवाज़ अचानक बाहर निकल आई, सुहानी फूट पड़ी।

“मुझे तुम्हें वहां नहीं बुलाना चाहिए था…” उसकी आवाज़ टूटी हुई थी, भीगी हुई, जैसे हर लफ़्ज़ एक पछतावे से जन्म ले रहा हो।

मीरा ने चौंक कर उसकी ओर देखा।

“तुम कम से कम आरव के पास रहती, मीरा,” सुहानी की आँखों से फिर से आँसू टपकने लगे। “इतने डॉक्टर्स, इतनी निगरानी, और फिर भी वो इस हालत में अकेले जूझ रहे थे। कोई भी नहीं आया... कोई भी नहीं।”

वो अब अपनी ही कही बातों से हिल चुकी थी, “मैं ये भूल कैसे गई... कि वो लोग... सिर्फ़ उनकी भूली हुई यादों का फायदा उठा रहे हैं। किसी को उन की हालत से कोई फर्क ही नहीं पड़ता... किसी को कोई मतलब ही नहीं है कि वो दर्द में हैं, और तड़प रहे हैं!”

मीरा को कुछ समझ नहीं आया कि क्या जवाब दे। सुहानी की आवाज़ में जो पीड़ा थी, वो शायद अब तक मीरा ने कभी नहीं सुनी थी।

“अगर हम नहीं आते… तो इस दर्द से वो अकेले जूझते रहते, मीरा। अकेले…” उसकी आवाज़ टूट गई।

वो थरथराती हुई मीरा की तरफ़ मुड़ी और बोली, “मुझे तुम्हें साथ नहीं ले जाना चाहिए था। ये मेरी ग़लती थी। मैं उन्हें फिर से अकेला छोड़ कर चली गई, वो भी इन लोगों के बीच। मैं… मैं कैसे इतनी लापरवाह हो गई?”

मीरा के आँखों में नमी आ चुकी थी। उसने सुहानी के हाथ थाम लिए। कुछ नहीं कहा—बस अपनी हथेलियों की गर्मी से उसके दर्द को बाँटने की कोशिश की। वो पल ऐसा था जहाँ न कोई बहस थी, न कोई तर्क। बस पछतावा था, मोह था, और एक टूटा हुआ इंसान — जिसे अब समझ आ रहा था कि जिसको वो नज़रअंदाज़ कर आई थी, वो दरअसल उसे सबसे ज़्यादा प्यारा था।

कमरे में फिर से सन्नाटा छा गया। मगर इस बार वो ख़ामोशी सज़ा नहीं, एक ठहराव थी — जहां आंसू अपनी भाषा बोल रहे थे, और पछतावा एक अनकहा वादा बन गया था।

मीरा अब भी सुहानी के पास बैठी थी, थोड़ी देर तक सिर्फ़ सुहानी के आंसू बहते रहे, फिर मीरा ने धीमे, लेकिन दृढ़ स्वर में कहा, “तुम्हारी गलती नहीं है, सुहानी… इस में तुम्हारा कोई दोष नहीं है। सच कहूं तो… भगवान का शुक्र है कि हम वक़्त रहते वापस आ गए। वरना...”

उसकी आवाज़ थरथरा गई, लेकिन उस ने खुद को संभालते हुए सुहानी का काँपता कंधा सहलाया।

सुहानी ने एक लंबी साँस ली, जैसे भीतर उमड़ता तूफ़ान अब थोड़ा शांत हो गया हो। आँसुओं के बीच उसकी आँखों में एक नया संकल्प झलकने लगा। कुछ पल चुप्पी के बाद उस ने मीरा की ओर देखा, फिर आरव की तरफ़, जो अब भी उसकी गोद में शांति से सोया था, दर्द से कुछ थका हुआ, मगर अब उम्मीद से ज़्यादा स्थिर।

“हमें इन्हें बिस्तर पर लेटा देना चाहिए,” सुहानी ने धीमे स्वर में कहा, “यहाँ फर्श पर पड़े रहना उनकी सेहत के लिए सही नहीं है।”

मीरा ने सहमति में सिर हिलाया और फ़ौरन उठ खड़ी हुई। सुहानी ने भी धीरे से आरव का सिर अपनी गोद से हटाया, बहुत प्यार और एहतियात से, जैसे कहीं उसे फिर से तकलीफ़ न हो।

दोनों ने मिलकर आरव को सहारा देना शुरू किया। मीरा ने उसके कंधे थामे, सुहानी ने उसकी पीठ और कमर को पकड़ा। आरव बेसुध था, मगर उन का स्पर्श पाकर उसके चेहरे की कुछ मांसपेशियाँ ढीली पड़ गईं, जैसे अब उसे थोड़ी राहत महसूस हो रही हो।

थोड़ा लड़खड़ाते हुए, लेकिन बेहद सहेज कर, दोनों ने उसे धीरे-धीरे उठाया और बिस्तर तक पहुँचाया। चादरें एक तरफ खिसका दी गईं और बड़ी नरमी से उसे बिस्तर पर लेटा दिया गया। सुहानी ने आगे बढ़ कर तकिये को एडजस्ट किया ताकि उसका सिर सही स्थिति में रहे। मीरा ने जाकर रजाई ठीक से ओढ़ा दी।

अब आरव बिस्तर पर था—थोड़ा थका, थोड़ा टूटा, लेकिन महफूज़।

दोनों लड़कियाँ कुछ देर खामोशी में उसे देखती रहीं। कमरे की हल्की रोशनी में उनकी आँखों में चिंता के साथ एक नाज़ुक राहत की झलक थी। जैसे दर्द के बीच भी, एक उम्मीद का कोना अभी बाकी था।

सुहानी ने एक नज़र आरव की ओर डाली, जो अब भी गहरी नींद में था, फिर मीरा की तरफ़ मुड़ते हुए गंभीर लहजे में कहा, “मीरा, तुम आरव के पास ही रुको प्लीज़। इनके पास किसी का हमेशा रहना बहुत ज़रूरी है… हर पल।”

मीरा ने चौंक कर उस की ओर देखा, फिर उस की आँखों में छिपी थकान और चिंता को महसूस करते हुए पूछा, “तो तुम क्यों नहीं रुकती यहाँ, सुहानी?”

उस सवाल ने कुछ पल के लिए सुहानी को जड़ कर दिया। वो कुछ क्षण चुप रही, फिर धीरे से मीरा की ओर मुड़ी। उसकी आँखों में साफ़ दर्द और उलझन झलक रही थी।

“तुम जानती हो मीरा… मैं ऐसा नहीं कर सकती,” उस ने धीमे स्वर में कहा, जैसे खुद को समझा रही हो,

“अगर किसी ने मुझे यहाँ देख लिया… तो बहुत बड़ी प्रॉब्लम हो जाएगी। और अगर आरव की नींद खुल गई… और उन्होंने मुझे यहाँ देख लिया तो… वो भी अपना आपा खो देंगे। वो अभी बहुत fragile हैं, मीरा। मैं उन्हें और तकलीफ नहीं देना चाहती।”

मीरा उसकी बात सुनती रही। सुहानी की आवाज़ मजबूती का दिखावा कर रही थी, लेकिन उसकी आँखों में साफ़ था—वो रुकना चाहती थी। बहुत चाहती थी।

मगर हालात, मजबूरियाँ, रिश्तों की उलझनें—सब ने जैसे उसे बाँध रखा था। उसकी आँखों की उदासी गवाही दे रही थी कि ये दूर जाना उसके लिए सिर्फ़ एक ज़रूरत नहीं, बल्कि एक तकलीफदेह त्याग था।

मीरा ने चुपचाप सिर हिलाया। सुहानी एक आखिरी बार आरव की ओर मुड़ी, उस के माथे पर एक नज़र डाली, और फिर खुद को जबरन पीछे हटाया।

मीरा के चेहरे पर एक हल्की सी मुस्कान फैल गई। वो मुस्कान सीधी-सादी नहीं थी—उसके पीछे एक चालाकी थी, एक योजना… और ढेर सारी समझदारी।

“तुम्हें मालूम है ना,” उस ने अपनी आँखें टेढ़ी करते हुए कहा, “जो दवाइयाँ तुम ने अभी आरव को दी हैं, वो न सिर्फ़ उसे सुलाती हैं… बल्कि उसे इतनी गहरी नींद में सुला देती हैं कि अगले छह घंटे तक उसे दुनिया का होश तक नहीं रहता। यानी तुम्हारे यहाँ रहने या न रहने का उसे कोई अंदाज़ा भी नहीं लगेगा।”

सुहानी ने हल्के से साँस खींची, कुछ बोलने ही वाली थी कि मीरा ने हाथ उठा कर उसे बीच में ही रोक दिया। उसकी आँखों में अब शरारत चमक रही थी।

“और रही बात बाकी लोगों की… तो मैं तुम्हारे कमरे में जा रही हूँ। अंदर से कमरा लॉक कर लूँगी। तुम भी यही करो—इस कमरे को अंदर से लॉक कर लो। कोई शक तक नहीं करेगा।”

सुहानी ने हल्का सा विरोध करने की कोशिश की, मगर मीरा ने तुरंत बात को संभालते हुए कहा, “और अगर कोई अनहोनी हो भी जाए… तो तुम्हें तो बालकनी से कमरे बदलना आता ही है। और अब तो तुम ने मुझे भी ये कला सिखा दी है।” वो मुस्कुराई, “अब चुपचाप यहीं रुको, अपने आरव के पास। बाकी सब मुझ पर छोड़ दो।”

सुहानी ने कुछ पल उसे देखा—मीरा के चेहरे पर जो संजीदगी और समझदारी थी, वो उसे भावुक कर गई। वो कुछ कह नहीं पाई, बस सिर झुका लिया। उसका दिल तो यहीं रुकने को तैयार था ही—बस अब उसे एक बहाना मिल गया था।

मीरा ने मुस्कुराकर उस का कंधा थपथपाया, और धीरे से उठ कर कमरे से बाहर जाने लगी। सुहानी ने उसे फुर से रोकने की कोशिश की।

“ना, ना! मैं अब एक भी शब्द नहीं सुनने वाली, सुहानी।” मीरा ने आंखें तरेरते हुए उसे बीच में ही रोकते हुए कहा, “तुम यहीं रुक रही हो। बात ख़त्म। बाय!”

उसकी आवाज़ में मज़ाकिया सख्ती थी, मगर आँखों में साफ़ देखा जा सकता था कि ये फैसला वो सोच-समझकर ले रही है। इस से पहले कि सुहानी कुछ और कहती, मीरा झटपट दरवाज़े की तरफ बढ़ गई।

“मीरा—” सुहानी ने धीमी आवाज़ में उसे फिर से पुकारा, मगर मीरा ने पीछे मुड़कर बस एक हल्की मुस्कान दी और फुसफुसा कर कहा, “अब ज़्यादा मत सोचो। अंदर से दरवाज़ा लॉक कर लो। मैं भी तुम्हारा कमरा अंदर से लॉक कर लूंगी।”

सुहानी वहीं ठिठकी खड़ी रह गई, उसकी आँखें मीरा के जाते हुए कदमों को देखती रहीं। मीरा ने दरवाज़ा धीरे से बंद कर दिया। 

कुछ पल तक सुहानी वहीं खड़ी रही, हाथ अभी भी दरवाज़े पर थे — जैसे उसके मन की दुविधा अभी भी उसके मन में समाई हुई हो। मगर बाहर अब कोई आवाज़ नहीं आई। मीरा जा चुकी थी।

सुहानी ने एक गहरी साँस ली, फिर धीरे से दरवाज़ा बंद किया… और अंदर से लॉक कर दिया। कमरे में फिर से वही सन्नाटा पसर गया… मगर अब उस में हल्की सी नर्मी थी, एक ठहराव… और एक अघोषित स्वीकृति कि शायद इस रात—उसे कहीं नहीं जाना था… सिवाय आरव के पास।

कमरे में गहरी रात की ख़ामोशी पसरी हुई थी। हल्की-हल्की चाँदनी खिड़की से छनकर कमरे के एक कोने में गिर रही थी। सब कुछ स्थिर था — जैसे समय कुछ पलों के लिए थम गया हो। तभी पलंग पर लेटे हुए आरव की पलकें धीरे-धीरे काँपीं, और उसका माथा सिकुड़ा।

एक झटके में उसने अपनी आँखें खोलीं, उसकी साँसें थोड़ी तेज़ थीं, और माथे पर पसीने की नमी अब भी थी। उसने आँखें झपकाईं और इधर-उधर देखने लगा — छत, कोना, कमरे की दीवारें, धीमी रोशनी — सब कुछ उसे थोड़ा धुंधला-सा लग रहा था। कुछ पल बीते... तभी उसका ध्यान अपने सीने की ओर गया।

वहाँ एक लड़की का सिर टिका हुआ था।

काले घने बाल उसके कुर्ते पर बिखरे हुए थे। साँसों की गर्माहट उसके सीने पर महसूस हो रही थी। उसके हाथ खुद-ब-खुद उस लड़की की पीठ पर टिके हुए थे — जैसे अनजाने में ही उसने उसे थाम लिया हो।

"सुहानी..." — उसके मन ने बिना आवाज़ के कहा।

उसे देखकर आरव के भीतर एक अजीब सी शांति उतर आई। जैसे कुछ भी गलत नहीं है... जैसे यही सब कुछ 'सही' है। दिल ने एक पल के लिए मान लिया कि ये पल हमेशा के लिए ठहर जाए। उस ख़ामोशी में एक अनकही अपनेपन की मिठास थी।

मगर तभी—उसके भीतर कोई पुरानी आवाज़ गूंज उठी।

"याद रखना, आरव... वो लड़की तुम्हारी बर्बादी की वजह बन सकती है।" — माँ की सख्त हिदायतें।

"उसकी मासूमियत एक मुखौटा है... वो शिव प्रताप की बेटी है, उसी की चाल है ये..." — दिग्विजय का ज़हर भरा निर्देश।

और फिर... "वो तुम से कुछ छुपा रही है, आरव। जो तुम जानोगे, तो खुद को संभाल नहीं पाओगे।" — रणवीर की कही वो रहस्यमयी बात।

इन सब के बीच भी, जो बात आरव के दिल को सबसे ज़्यादा उलझा रही थी, वो यह थी कि... उसे अच्छा लग रहा था।

सामने लेटी हुई सुहानी को देख कर उसके मन में उथल-पुथल थी — मगर शांति भी थी। उसकी साँसें तेज़ हो रही थीं, जैसे कोई तूफ़ान भीतर ही भीतर उठ रहा हो।

वो अपनी भावनाओं से लड़ रहा था — “क्यों है ये यहाँ? क्यों अच्छा लग रहा है इस का पास होना? क्यों नहीं मेरा दिल चाह रहा है कि ये हटे?”

इन्हीं सवालों से जूझते हुए, उसने देखा कि सुहानी की पलकों में भी हरकत होने लगी है। वो धीरे-धीरे जाग रही थी।

आरव का चेहरा सख्त हो गया। उसने झटके से सुहानी का सिर अपने सीने पर से हटा दिया। तब अपने सिर के नीचे की गर्माहट और सहारे के हटते ही सुहानी की आँखें खुल गईं। उसकी नज़रें आरव से मिलीं — और अगले ही पल उस ने खुद को थोड़ा दूर खींच लिया।

आरव उठ कर बैठ गया, उसकी आँखों में अब उलझन की जगह कठोरता थी।

"तुम यहाँ क्या कर रही हो?" — उसकी आवाज़ नर्म नहीं थी।

सुहानी चुप रही। कुछ पल तक नज़रें झुकाए बैठी रही — जैसे अपने ही अंदर कुछ ढूंढ रही हो। फिर धीमे स्वर में बोली — “रात को... आपकी तबीयत बहुत बिगड़ गई थी। आप कमरे में अकेले दर्द से कराह रहे थे। डॉक्टर को बुलाने का समय नहीं था... तो आपको कुछ दवाइयाँ दी थीं मैंने, जो doctor ने बताई थीं आप को। यहाँ कोई था नहीं… तो मैं आपके पास ही बैठी रही…फिर... शायद आँख लग गई। और फिर गलती से मैं यहीं सो गई...”

उसकी आवाज़ में संकोच था। पछतावा था। और कहीं न कहीं — खुद से शर्मिंदगी भी। भीतर ही भीतर वो खुद को कोस रही थी।

“मैं यहाँ क्यों सो गई...”

“ये क्या सोचेंगे...”

“कहीं उन्हें कुछ गलत ना लगे...”

आरव कुछ पल तक उसे घूरता रहा। फिर उसकी नज़रें सुहानी के चेहरे पर ठहर गईं — उसकी झुकी हुई पलकों पर, कांपती हुई उंगलियों पर, और उस अपराधबोध पर जो उसने कभी सुहानी से उम्मीद नहीं की थी…मगर वो कुछ नहीं बोला। कमरे में फिर वही ख़ामोशी उतर आई — पर इस बार वो शांति वाली नहीं थी। ये वो ख़ामोशी थी, जो कुछ कहती तो थी... मगर कोई सुन नहीं पाता।

 

क्या आरव उठते ही शोर मचाएगा? 

इस ख़ामोशी सुकून के बाद भी आरव सुहानी पर भरोसा नहीं करेगा? 

जानने के लिए पढ़ते रहिये, रिश्तों का क़र्ज़।

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