सुहानी की आँखों में आत्मविश्वास की चमक थी, और चाल में वो ठहराव जो किसी जंग के लिए तैयार योद्धा में होता है। उसका चेहरा शांत था, मगर नज़रें इतनी तीखी कि किसी भी झूठ को चीर सकती थी।

दिग्विजय के चेहरे पर गुस्सा और घबराहट दोनों साथ उभरे।

"सुहानी!" उसकी आवाज़ गूंज उठी।

सुहानी उनकी ओर आगे बढ़ती रही, वो अब पीछे नहीं हटने वाली थी….रणवीर ने पहली बार उसकी तरफ गौर से देखा। उसकी आंखों में अब आक्रोश का हल्का सा भाव था—जैसे वो इस विद्रोह की उम्मीद कर रहा था।

गौरवी ने चीखते हुए कहा, “तू अपने कमरे में थी? इतने सारे गार्ड्स और सुरक्षा के बावजूद भी तू… तू हवेली में घुसी कैसे?”

"वो कहानी फिर कभी सुनाऊंगी," सुहानी ने ठहर कर कहा….“अभी वक्त है असली कहानी शुरू करने का।”

 

उसके इन शब्दों के साथ ही हवेली के शांत हॉल में बिजली सी दौड़ गई। आज का दिन सिर्फ एक टकराव नहीं था—ये आरंभ था एक क्रांति का। सुहानी अब सीढ़ियों से नीचे उतर चुकी थी। उसके चेहरे पर एक तेज़, स्थिर मुस्कान थी—ना व्यंग्यात्मक, ना डरपोक—बल्कि एक ऐसी मुस्कान जो जीत के विश्वास से उपजी थी। उसकी आँखें गौरवी, दिग्विजय और रणवीर को इस तरह देख रही थीं, जैसे कोई शिकारी अपने जाल में फँसे शिकार को देखता है।

गौरवी की रूह काँप गई….उसने तुरंत दिग्विजय की ओर देखा, मगर दिग्विजय खुद पत्थर-सा खड़ा था। उसकी आँखें खुली की खुली रह गई थीं।

"ये... ये सपना है," गौरवी बड़बड़ाई

“तू... तू तो...”

"भाग गई थी? कहीं छुप कर बैठी थी? या बस तुम्हारे बुने हुए किसी जाल में फंसी हुई थी?" सुहानी की आवाज़ में चिंगारी थी, “माफ कीजिए, लेकिन वो सुहानी अब नहीं रही, जो तुम लोगों से डरा करती थी।”

 

रणवीर अब भी अपनी जगह पर बैठा था, मगर उसकी आँखें हर पल और तीखी होती जा रही थी। उसके अंदर कुछ उबल रहा था—या तो आक्रोश का ज्वाला, या कोई नया डर। उसने धीरे से अपनी उंगलियां आपस में मरोड़ीं, मगर उसका चेहरा भावशून्य बना रहा।

सुहानी अब उनके ठीक सामने खड़ी थी। उसने गौर से हर एक को देखा—गौरवी की काँपती पलके, दिग्विजय की गुमसुम आँखें, और रणवीर की शांत मगर जलती नज़रें।

हॉल के बीचोंबीच खड़ी सुहानी, बिल्कुल शांत थी — लेकिन उसकी आँखों में एक अजीब ठहराव और दृढ़ता थी, जो वहां मौजूद हर शख्स को बेचैन कर रही थी। उसकी चाल, उसकी मुद्रा, उसका आत्मविश्वास… सब कुछ किसी योद्धा जैसा था जो युद्धभूमि में बिना डरे अपने शत्रुओं के सामने आकर खड़ा हो गया था।

दिग्विजय उसकी ओर बढ़ा, उसकी आँखों में हैरानी और गुस्सा एक साथ तैर रहे थे।

“तुम?” उसकी आवाज़ में अविश्वास था, “तुम… यहाँ कर क्या रही हो?”

गौरवी, जो अब तक शॉक की हालत में खड़ी थी, अचानक चीखी, “अपनी जान की परवाह है भी या नहीं तुझे?

 

“तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई यहाँ आने की?”

ये आवाज़ उस कोने से आई जहाँ मीरा खड़ी थी, हाथ में चाय का कप और चेहरा गुस्से से लाल दिखाने की कोशिश में। मीरा की आँखें पलभर को सुहानी से मिलीं, और उसी एक पल में, सुहानी ने देख लिया—उसकी अपनी एक साजिशकर्ता की आँखों में वही भरोसा, वही वादा, जो बीती रात में किया गया था।

मीरा को यह नाटक करना ही था।

वो जानती थी, अगर वो सुहानी के पक्ष में खुलकर खड़ी हो गई, तो दिग्विजय, गौरवी और रणवीर को संदेह हो जाएगा। और संदेह का मतलब था — उनके बीच पल रहे खेल तक पहुंचने का दरवाज़ा बंद हो जाना, जिनकी जरूरत उन्हें राठौर को गिराने के लिए थी।

दिग्विजय ने एक कदम और बढ़ाया, उसकी आँखों में अब क्रोध का सैलाब था।

“तू भूल गई है कि ये हवेली किसकी है?”

“तू अगर अपने आप चली जाए तो अच्छा है…वरना हम जबरन उठा कर फेंक देंगे।”

सुहानी अब भी मुस्कुरा रही थी, एक ऐसी मुस्कान जो दिग्विजय के घमंड को चीर रही थी।

“नहीं दिग्विजय राठौर, अब यहाँ से कोई नहीं जाएगा…और किसी को भी उठाकर बाहर फेंकने वाला समय चला गया।”

 

उसने धीरे से आगे बढ़ कर अपने फ़ोन का स्क्रीन खोल कर उनके सामने मेज़ पर रख दिया, जिसे वो ऊपर से लाई थी। कमरे में एक अजीब सन्नाटा छा गया, सिर्फ़ रणवीर की उँगलियाँ अब भी उसकी घड़ी की चेन से खेल रही थीं।

गौरवी ने फुसफुसाते हुए कहा, “क्या है इसमें?”

“वो सब,” सुहानी ने कहा, “जिससे तुम सबने भागने की कोशिश की। जिसे तुमने इतने सालों तक, आरव और बाकी सब से छुपा कर रखा। वक़्त आ गया है, कि अब उस पर एक्शन लिया जाये।”

मीरा ने थोड़ी ज़ोर से कप रखा, मानो गुस्से में हो, मगर अन्दर ही अन्दर वो राहत महसूस कर रही थी कि सुहानी ने पहला वार सही जगह किया।

“आज की तारीख़ से तुम्हारी उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है,” सुहानी ने कहा…और इसकी शुरुआत तुम्हारी खुद की हवेली से होगी। जहाँ तुमने अपनी सारी साज़िशें रचीं।”

रणवीर अब भी कुछ नहीं बोला था, लेकिन पहली बार, उसके माथे पर पसीने की एक बूँद चमकी। अभी तो ये शुरुआत थी… इस कहानी का असली तूफान तो आना बाकी था।

 

हॉल में एक पल को साँसें थम-सी गईं। सुहानी की यह बात, जैसे पूरे माहौल पर बिजली बनकर गिरी थी। दिग्विजय, गौरवी और मीरा तक – सबके चेहरे पर एक पल को अविश्वास छा गया। मगर रणवीर राठौर…उसकी आँखों में अब ज्वालामुखी फूट रहा था।

रणवीर ने अपनी कुर्सी के हत्थे को ज़ोर से पकड़ा और खड़ा हो गया, उसके चेहरे पर गुस्सा और अपमान दोनों की लहर दौड़ गई।

“सुहानी प्रताप…” उसने गरजते हुए कहा, उसकी आवाज़ हॉल की दीवारों से टकराई।

लेकिन सुहानी शांत रही, और उसी आत्मविश्वास के साथ अपनी उंगली से ना ना करती, अपनी जीभ से शशश….की आवाज़ निकालते हुए बोली।

"…इतनी जल्दी भूल गए?" उसने हल्की हँसी के साथ कहा।

फिर वो एक कदम और आगे बढ़ी, उसके चेहरे पर अब एक कटाक्ष भरी मुस्कान थी, आँखें सीधे रणवीर की आँखों में गड़ी हुईं।

“सुहानी राठौर, चाचा जी।”

उसने "चाचा जी" पर ज़ोर दिया, ताकि हर शब्द रणवीर को चुभे।

"आप शायद भूल रहे हैं… मैं अब इस घर की बहू हूँ। आपके भतीजे की पत्नी और इस रिश्ते का मान, आपने नहीं… मैंने निभाना चुना है। वरना आप लोगों ने तो इसे कब का व्यापार बना दिया था।”

रणवीर का चेहरा तमतमा उठा। दिग्विजय ने भी एक गहरी साँस ली, जैसे वो अब इस बहस को हाथ से फिसलता देख रहा था। गौरवी कुछ कहने ही वाली थी, मगर सुहानी ने हाथ उठाकर उसे रोक दिया — “अभी आपकी बारी नहीं है, मम्मी जी। पहले चाचा जी से कुछ पुराने हिसाब निपटाने हैं।”

उसकी आवाज़ में ऐसा नियंत्रण और साहस था, कि अब पूरा हॉल उसकी मौजूदगी के असर में था।

ये सुहानी, वो नहीं थी जो कुछ समय पहले डरकर चुप हो जाती थी…अब ये वह थी जो राठौर की साज़िशों की जड़ हिला देने आई थी। मगर अब तक डर से किसी ने भी आगे बढ़ कर मेज़ पर पड़े फ़ोन को चेक नहीं किया था।

 

रणवीर राठौर, जो अब तक अपनी आवाज़ और रुतबे से सबको दबाता आया था, पहली बार चुप रह गया। उसकी आँखें फटी रह गईं — उसे यकीन ही नहीं हुआ कि सामने खड़ी वही सुहानी है, जिसे वो कभी बहलाने फुसलाने की कोशिश कर रहा था।

“सुहानी…” उसने फिर से गुर्राकर कहा, इस बार गुस्से में थोड़ा और आगे बढ़ते हुए।

“रणवीर राठौर!” सुहानी ने एक कदम आगे बढ़ते हुए इतनी तेज़ आवाज़ में ललकारा कि मानो वो अब सच का खुलासा कर के ही रहेगी।

“बस! बहुत सुन लिया… बहुत सह लिया! आज के बाद आप, और आप जैसे किसी भी राठौर को मुझ पर चिल्लाने का कोई हक़ नहीं है! इस घर की बहू हूँ, कोई गुलाम नहीं और अगर अपनी इज़्ज़त की परवाह है, तो अपनी आवाज़ नीची रखिए।”

गौरवी का चेहरा सफेद पड़ गया, मीरा ने आंखें झुका लीं और दिग्विजय के हाथ से चाय का प्याला कांप कर नीचे गिरते-गिरते बचा। रणवीर को जैसे एक ज़ोर का तमाचा पड़ा हो — और वो भी भीड़ के सामने, बिना हाथ उठाए।

सुहानी का चेहरा आत्मविश्वास से चमक रहा था। उसकी आँखों में अब कोई डर नहीं था, सिर्फ़ प्रतिशोध और साहस की ज्वाला थी। उसने सबके सामने ऐलान कर दिया था — अब वो वह सुहानी नहीं रही। अब वो अपने नाम का मतलब समझ चुकी थी — आग।

“क्या बकवास कर रही हो, ये सब तुम?” 

रणवीर की गूंजती हुई आवाज़, अभी तक हवेली के हॉल में फैल रही थी, लेकिन सुहानी के चेहरे पर अब डर या हैरानी की कोई लकीर नहीं थी। उसकी चाल में आत्मविश्वास था, आँखों में चमक थी और होठों पर एक हलकी सी मुस्कान—जो इस बात का संकेत थी कि अब वह सिर्फ एक मोहरा नहीं, बल्कि इस खेल की शतरंज की रानी बनने जा रही थी।

धीरे-धीरे उसने टेबल की ओर कदम बढ़ाए, जहाँ उसका फ़ोन रखा था। उसने सधे हुए अंदाज़ में फ़ोन उठाया, और फिर रणवीर के बिल्कुल करीब आकर, फ़ोन की स्क्रीन उसकी आँखों के सामने पलट दी। उसने साज़िश का पर्दा एक झटके में उठा दिया।

रणवीर की नज़रों ने स्क्रीन को उलझन में देखा, लेकिन जैसे-जैसे जानकारी उसके ज़हन में उतरती गई, उसकी आँखें चौड़ी होती चली गईं। चेहरा सफेद पड़ने लगा—साफ़ दिख रहा था कि जो उसने सोचा भी नहीं था, वो अब सच बनकर उसके सामने आ गया था।

“नहीं” रणवीर की आवाज़ कठोर थी, जैसे किसी तूफान को रोकने की आख़िरी कोशिश कर रहा हो।

 

पर सुहानी ने कोई जवाब नहीं दिया, सिर्फ हल्का सा सिर झुकाया और फिर उसी आत्मविश्वास से एक कदम पीछे हटकर पूरे हॉल का सामना किया। अब उसकी आवाज़ में वो तीखापन था, जो सच को हथियार बना देता है।

“अरे, पर क्यों नहीं, चाचाजी?” उसकी आवाज़ में व्यंग्य छिपा था, “ज़माना अब बदल चुका है। और वैसे भी, लगता है मेरे दादा ससुर साहब को आप लोगों पर कुछ ख़ास भरोसा नहीं था। तभी तो उन्होंने अपनी सारी प्रॉपर्टी एक ख़ास नाम पर कर दी थी—हमारे नाम पर।”

उसने ‘हमारे’ शब्द पर ज़ोर देते हुए कमरे में मौजूद हर चेहरे को देखा—हर आंख, हर शक, हर साजिश को चुनौती देते हुए।

“हम यानी—आरव और उसकी पत्नी। और एक मिनट…” उसने नाटकीय अंदाज़ में एक मोड़ लिया, अपने घने बालों को कंधे से पीछे एक झटके से करते हुए एक गहरी सांस ली, और फिर अपनी आवाज़ को और ऊँचा कर दिया, मानो पूरी हवेली के पत्थरों में अपनी बात दर्ज कर देना चाहती हो।

“...वो पत्नी तो मैं ही हूँ। Mrs. SUHANI AARAV RATHORE!” उसने अपने दोनों हाथों को हवा में हिलाते हुए अपना नाम ऐसे ऐलान किया, जैसे कोई बड़े से संगीत समारोह में instructer हो, और कोई बहुत ही ख़ूबसूरत धुन सुना रही हो।

उसके होंठों पर अब मुस्कान नहीं, बल्कि एक जंग जीतने का सुकून था।

“और आज से… ये हवेली, ये कारोबार, ये विरासत—सब मेरा हुआ।”

उसने एक पल के लिए भी पीछे मुड़कर नहीं देखा। सीधा दरवाज़े की ओर बढ़ी, और पूरे हॉल में सन्नाटा छा गया, जब उसने भारी लकड़ी का दरवाज़ा ठोकर से खोला। दरवाज़े की चरमराहट में एक नई सुबह की आहट थी—क्रांति की सुबह।

 

दरवाज़ा खुलते ही बाहर की ठंडी हवा भीतर आई, लेकिन उससे कहीं ज़्यादा ठंडक हवेली के भीतर खड़े लोगों के चेहरों पर उतर आई जब उन्होंने देखा—दो वकील काले कोट में, फ़ाइलें हाथ में लिए, गंभीर मुद्रा में खड़े थे।

सुहानी ने दरवाज़े से ही उन्हें मुस्कुराकर देखा और सम्मान से एक ओर हटते हुए कहा, “आइए… आप ही का इंतज़ार था।”

दोनों वकील बिना किसी झिझक के भीतर चले आए, और पूरे हॉल में एक सन्नाटा पसर गया, मानो हवेली की दीवारें भी अचानक अपनी साँसें रोक चुकी हों।

दिग्विजय राठौर, जिसकी अब तक हर कमरे में सबसे ऊँची आवाज़ हुआ करती थी, अचानक खुद को असहाय महसूस करने लगे। उनकी आवाज़ थोड़ी कड़वाहट लिए फूट पड़ी, “ये सब क्या है, सुहानी?”

सुहानी ने उनकी ओर देखा, उसकी आँखों में अब मासूमियत नहीं, बल्कि ताव था—एक जवाबदेही, एक हक़दारी। “अरे ताऊजी,” उसने नज़रों में थोड़ी चुभन के साथ कहा, “काला कोट देख कर भी नहीं पहचान पाए क्या? ये वकील हैं... मेरे वकील!”

उसके शब्दों ने हवा को चीर दिया। कमरे में खड़े हर सदस्य ने एक-दूसरे की ओर देखा, जैसे कुछ समझने की कोशिश कर रहे हों। सुहानी ने तब एक कदम आगे बढ़ाया, और अपनी साड़ी के पल्लू को बड़े सलीके से कंधे पर जमाते हुए पूरे आत्मविश्वास से हॉल के बीचों-बीच आकर खड़ी हो गई।

“अब ये सब मेरा है... तो किसी से डरने की कोई ज़रूरत नहीं,” उसने हल्के-से मुस्कराते हुए कहा….“अब यहाँ सब अपने ही हैं, है ना?”

फिर उसने वकीलों की ओर मुड़कर कहा, “अरे आप लोग खड़े क्यों हैं? बैठ जाइए।”

सुहानी की आवाज़ अब गूंज बनकर हवेली की दीवारों से टकरा रही थी। वो हवेली जो कभी उसकी परछाईं से भी अपरिचित थी, आज उसी की आवाज़ से थरथरा रही थी।

उसके इस साहसिक और निर्णायक स्वरूप को देखकर मानो वक़्त थम गया हो। जिस लड़की को कुछ हफ्तों पहले तक इस हवेली में लोग बाहरी समझते थे, आज वो इस घर की नई मालकिन बनकर खड़ी थी।

 

 

सुहानी का अगला पड़ाव क्या होगा? 

हवेली से क्या वो सबको बेघर कर देगी या घर रहकर ही बदला लेगी? 

नयी मालकिन कैसे करेंगी सच का पर्दाफाश? 

जानने के लिए पढ़ते रहिये, रिश्तों का क़र्ज़।

 

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