अगले दिन की सुबह धूप के हल्के सुनहरे उजाले के साथ दस्तक दे चुकी थी। हवेली के गलियारे अब तक शांत थे, मगर एक-एक कर लोग अपने-अपने कमरों से उठने लगे थे। लेकिन इस सामान्य सी लगती सुबह के पीछे बीती रात भर की एक साज़िश पल रही थी, जो किसी तूफ़ान से कम नहीं थी।
विशाल, जो रात भर राठौर हवेली के अंधेरे गलियारों से होते हुए सुहानी, विक्रम और मीरा के साथ उस पुराने स्टोर रूम तक पहुंचा था—अब तक एक गुप्त रास्ते से हवेली से निकल चुका था। वह वही रास्ता था जो पुराने नौकरों के लिए इस्तेमाल होता था, एक पतला और संकरा रास्ता जो हवेली की पिछली दीवार से बाहर खेतों की ओर खुलता था। विशाल को अभी बहुत काम करना था—टूटे हुए कैमरे को मीरा के उस जानकार तक पहुंचाना था, और वो डॉक्यूमेंट्स जो रात को मिले थे, उन्हें आगे की रणनीति के लिए सुरक्षित करना था।
विक्रम और मीरा, दोनों अपने-अपने कमरों में लौट चुके थे। उन्होंने सावधानी से ये तय किया था कि सुबह होते ही कोई भी एक साथ नहीं दिखेगा, ताकि किसी को शक ना हो कि उन्होंने रात भर साथ समय बिताया।
इधर सुहानी, जो अब भी अपने कमरे में थी, खिड़की से बाहर हल्के से झांक रही थी। उसकी आंखों में थकावट जरूर थी, मगर उसके अंदर एक नई ऊर्जा थी। उसकी सांसें अब तेज़ नहीं थीं, बल्कि एक शांत युद्ध की तैयारी जैसी स्थिर थीं।
कमरे के बाहर वही गार्ड फिर से खड़ा था—जिसे मीरा ने रात को बड़ी चालाकी से बेहोश किया था। उसने गार्ड की चाय में नींद की गोलियां मिला दी थीं ताकि रात को कमरे के अंदर वो लोग आ-जा सके। गार्ड को सुबह-सुबह होश आया तो उसकी हालत थोड़ी चकराई हुई थी, मगर जैसे-तैसे उसने खुद को संभाला और फिर से वही अपनी ड्यूटी पर वापस आ गया—बिलकुल उसी तरह जैसे कुछ हुआ ही न हो।
सुहानी ने एक लंबी सांस ली और खुद से कहा, “अब अगला कदम उठाना है… अब वक़्त है सामने आने का” कमरे में अब भी सन्नाटा था, मगर उस सन्नाटे में एक तूफान की आहट छुपी थी।
यह सुबह सिर्फ एक दिन की शुरुआत नहीं थी, ये एक क्रांति की शुरुआत थी—जिसमें सुहानी सिर्फ एक मोहरा नहीं, बल्कि चाल चलने वाली खिलाड़ी बन चुकी थी।
गार्ड जैसे ही उठकर अपनी जगह पर वापस लौटा, उसने अपनी आंखों को मसलते हुए इधर-उधर देखा। कुछ पल के लिए उसे अजीब सा महसूस हुआ, मगर फिर उसने खुद को ये कहकर तसल्ली दी कि शायद उसकी बस थोड़ी देर के लिए आंख लग गई होगी।
वो नहीं जानता था कि उसकी उसी "आंख लगने" ने एक पूरी रात की रणनीति को सफल बना दिया था।
उसने दरवाज़े की तरफ देखा—कमरा बिल्कुल वैसा ही था जैसे उसने छोड़ा था, कोई हलचल नहीं, कोई शोर नहीं और दरवाज़ा बंद। कमरे की खिड़की पर पड़े परदे भी जस के तस थे, सब कुछ इतना शांत और सामान्य लग रहा था कि उसे एक पल के लिए भी शक नहीं हुआ।
"शायद नींद ज़्यादा चढ़ गई थी... लेकिन कोई बात नहीं," उसने खुद से बड़बड़ाते हुए फिर से अपनी जगह ले ली।
उसके मन में यह बात कभी नहीं आई कि उसी कमरे के भीतर बीती रात को राठौर परिवार की जड़ों को हिला देने वाला सच सामने आया था। कई बार असली खतरा सादगी में छुपा होता है… और गार्ड इस खतरनाक सादगी को पहचान ही नहीं पाया।
उन चारों को इस बात का पूरा एहसास था कि उन्होंने जिन रहस्यों से पर्दा उठाया है, वे राठौर खानदान की जड़ें हिला सकता है—और ऐसे में अगर ये सबूत एक ही जगह पर रखे रहे, तो ज़रा सी चूक सब कुछ मिटा सकती थी।
इसलिए जैसे ही दस्तावेज़ों की छानबीन पूरी हुई, सभी ने मिलकर उनके डिजिटल बैकअप तैयार किए। विशाल ने उन्हें स्कैन कर के सुरक्षित ड्राइव में सेव किया, मीरा ने अपने हैकर दोस्त की मदद से एन्क्रिप्टेड क्लाउड पर अपलोड किया, और सुहानी ने एक पेन ड्राइव में पूरा डाटा रखा, जो हमेशा वो अपने साथ रखने वाली थी।
विक्रम ने तो एक कदम आगे बढ़ते हुए दस्तावेज़ों की फोटोज़ को पासवर्ड-प्रोटेक्टेड फोल्डर में सेव कर के दो अलग-अलग लोकेशनों पर मेल कर दिया—एक अपने भरोसेमंद साथी को, और दूसरा सुहानी के कहने पर शमशेर सिंह को।
शमशेर, जो अब तक अपने ही परिवार के साज़िशों से टूटा हुआ था, इन सबूतों को देख कर पूरी तरह से सन्न रह गया। उसने तुरंत जवाब भेजा—
“अब ये जंग अकेली तुम लोगो की नहीं रही। मैं तुम्हारे साथ हूँ, वक्त आने पर यह सबूत सबसे बड़े हथियार बनेंगे।”
हर किसी ने इन फाइलों की कॉपियां अपने पास रखी। अब अगर कोई एक पकड़ा भी जाता, तो बाकी तीनों के पास सच की आग को बचाए रखने की पूरी तैयारी थी। इस जंग में अब सिर्फ हिम्मत नहीं, तैयारी भी बराबर की थी।
उस सुबह की ठंडी हवा में एक अजीब सी ऊर्जा घुली हुई थी। हवेली की ऊपरी छत पर, जहां हल्की-हल्की धूप फैल रही थी, सुहानी अकेली खड़ी थी। उसने अपनी आँखें बंद कीं और गहरी सांस ली। सामने उगते सूरज की लालिमा उसके चेहरे को छू रही थी — ठीक वैसे ही जैसे उसकी आत्मा को फिर से जीवन मिल रहा हो।
अपने योगा के वस्त्र में लिपटी, सुहानी ने धीरे-धीरे अपने कदम आगे बढ़ाए। उसने दोनों हाथ जोड़कर सूर्य को प्रणाम किया और अपने योग की शुरुआत की—सूर्य नमस्कार से। वो वही सुहानी थी जो कभी सुबह-सुबह अपने घर की छत पर योग करती थी, पेड़ों के पत्तों की सरसराहट सुनती थी और अपनी माँ से कहती थी, “माँ, आज तो बहुत पॉजिटिव एनर्जी फील हो रही है।”
मगर शादी, धोखा, साज़िशें, और ज़िम्मेदारियों ने उस मासूम आदत को कहीं पीछे धकेल दिया था। लेकिन आज, आज का दिन सिर्फ़ उसके नाम था। ये बदले की शुरुआत थी, मगर उस रास्ते पर पहला क़दम खुद को फिर से पाना था।
सुहानी के चेहरे पर आज एक अलग ही तेज था—शांत, मगर मजबूत। आँखों में वही पुरानी चमक लौट आई थी, जो कभी हर मुश्किल को मुस्कुरा कर स्वीकार कर लेती थी। वो जानती थी, आज का दिन इतिहास बनने वाला है और इसके लिए खुद को तैयार करना, खुद पर विश्वास करना—सबसे पहला हथियार था।
सुहानी ने योग समाप्त करने के बाद ठंडे पानी से स्नान किया। पानी की हर एक बूँद जैसे उसके भीतर की सारी थकान, डर और कमज़ोरी को बहाकर ले जा रही थी। उसने आईने के सामने खड़े होकर खुद को गौर से देखा—आँखों में आत्मविश्वास था, चेहरे पर शांति, और मन में तूफान।
अलमारी खोली तो उसमें कई कपड़े थे, मगर उसकी नज़र सीधी उस शाही सिल्क की साड़ी पर पड़ी, जिसे उसने बहुत संभाल कर रखा था। गहरे मरून रंग की साड़ी, जिसके बॉर्डर पर सुनहरी ज़री की बारीक कढ़ाई थी। उसके साथ था एक कंट्रास्ट, गहरे हरे रंग का फुल स्लीव्स ब्लाउज—साधारण नहीं, मगर भड़कीला भी नहीं। गरिमा से भरा हुआ।
कपड़े पहनने के बाद उसने अपनी माँ की दी हुई पुरानी गोल्डन वॉच निकाली—वो घड़ी जो उसे हमेशा उसके आत्मबल की याद दिलाती थी। उसने उसे अपनी कलाई पर बाँधा, जैसे अपनी माँ की उपस्थिति को महसूस कर रही हो।
फिर कमरे के कोने में सजाये एक छोटे से मंदिर में जाकर भगवान को प्रणाम किया, आँखें बंद कीं और मन ही मन बोली, “आज मेरा युद्ध है। मेरी सच्चाई का, मेरे अस्तित्व का। मेरे साथ रहिएगा।”
उसने एक गहरी सांस ली और अपने कमरे का दरवाज़ा खोला।
बाहर खड़ा गार्ड जैसे कुछ देर के लिए पत्थर बन गया। सामने जो खड़ी थी, वो कोई डरी-सहमी दुल्हन नहीं थी—वो एक रानी लग रही थी। उसकी चाल, उसकी आँखों की धार, उसकी उपस्थिति—सबमें ऐसा आत्मविश्वास था कि उस गार्ड को कुछ समझ नहीं आया।
उसने अकबका कर कहा, “मैडम… आप…?”
सुहानी ने हल्की सी मुस्कान दी और गरिमामय स्वर में बोली, “हाँ, मैं। क्यों क्या हुआ?”
गार्ड—गौरांग—उसके सवाल पर घबरा गया। उसके माथे पर पसीने की बूंदें उभर आईं, भले ही हवेली की गलियों में ठंडी सुबह की हवा बह रही थी। उसकी आँखें बार-बार नीचे झुक रही थीं, और फिर डरते हुए वह बोला,
“मैडम... मुझे नहीं पता आप…आप अंदर कैसे... मतलब... मुझे होश ही नहीं रहा।”
सुहानी उसकी तरफ कुछ कदम और बढ़ी। उसके चेहरे पर अब पूरी तरह से आत्मविश्वास की एक परत थी, “यही तो दिक्कत है, गौरांग। तुम्हें होश नहीं रहा…या फिर तुम बहुत लापरवाह हो। वैसे, एक बात बताओ...”
उसने एक पल को रुक कर उसकी आँखों में देखा, “तुम क्या जवाब दोगे अपने मालिक को? जिनके इशारों पर तुम नाचते हो।”
गौरांग की नज़रें झुक गईं। उसने कोई जवाब नहीं दिया….उसकी चुप्पी ही उसकी स्वीकृति बन गई।
“चुप रहो, यही बेहतर होगा। मगर याद रखना, बहुत जल्द ये हवेली बदलने वाली है... और तब तुम्हारे जैसे लोगों के लिए या तो नई नीतियाँ होंगी... या नया काम।”
सुहानी का लहजा अब गंभीर हो चुका था।
गार्ड ने अपना सर झुकाया, और सर हिलाते हुए, हामी भरी। लेकिन फिर उसने एक टर्न लिया, तेज़ी से नीचे की ओर भागा, जहां उसके मालिक बैठे हुए थे।
सुहानी के कदम धीमे लेकिन ठोस थे। हर कदम जैसे धरती पर अपनी छाप छोड़ रहा था। हवेली की ऊँची दीवारों और भव्य दरबार हॉल की ओर जाते हुए उसकी आँखों में न कोई घबराहट थी, न ही कोई संशय—बस एक दृढ़ निश्चय था।
नीचे हॉल में—जहाँ हवेली के रथचक्र घूमते थे—दिग्विजय राठौर एक रेशमी कुर्ता पहने, हाथ में चाय का प्याला लिए बैठा था। उसकी आँखों में हमेशा की तरह सत्ता की चमक थी। गौरवी, अब भी उसी रौब और दिखावे में लिपटी, अपने नाखूनों को देखते हुए, जैसे हवेली की रानी कोई नई चाल सोच रही हो। और रणवीर राठौर, शांत चेहरे के पीछे एक रहस्यमयी मुस्कान छुपाए, जैसे वो सब कुछ जानते हुए भी अभी पूरी तरीके से अपने असली रंग में नहीं आया हो।
और फिर गार्ड के हरबड़ाते काफीमों की आवाज़ सुनाई दी।
“वो आ रही है! वो आ रही है” कहता हुआ वो उनके पास दौड़ा हुआ आया।
दिग्विजय की भौहें तन गईं, गौरवी ने हैरानी और गुस्से से उसकी ओर देखा।
"कौन आ रही है, बेवकूफ?" दिग्विजय ने दहाड़ते हुए पूछा।
गौरांग ने काँपते हुए जवाब दिया, “वो… मैडम… वो कमरे में थीं… मैं नहीं जानता था…मुझसे गलती हो गई मालिक, मैंने अपना काम ठीक तरीके से नहीं किया, और… वो सीधा इसी तरफ आ रही हैं…”
रणवीर ने चुपचाप अपनी चाय का प्याला मेज़ पर रख दिया, लेकिन उसकी आँखें अब पूरे ध्यान से सीढ़ियों की ओर टिक चुकी थीं। दिग्विजय के चेहरे पर पहले हैरानी की लकीरें आईं, फिर संदेह और अंत में गुस्से की परछाई।
गौरवी ने चीखते हुए कहा, "क्या बक रहा है ये? कौन है कमरे में? कौन आ रहा है? सीधे सीधे बताओ।”
“क्या किया तूने, मुर्ख?” इस बार रणवीर की आवाज़ ने दहाड़ की।
तभी हवेली के ऊँचे हॉल में सुहानी की पदचाप गूंजने लगी—धीमी लेकिन भारी। उसके आने की आहट जैसे हवेली के हर पत्थर से टकराकर उनके कानों में एक चेतावनी बनकर घुल रही थी।
हॉल की सीढ़ियों पर सुहानी के कदमों की आहट गूँजी। तीनों के चेहरे थोड़ी देर को स्तब्ध हो गए—सुबह की इस ख़ामोशी में जब सुहानी की झलक दिखाई दी।
वो किसी महारानी की तरह सीधी खड़ी थी—रेशमी सिल्क की साड़ी में, माँ की घड़ी बाँधकर, आँखों में तेज और चेहरे पर संजीदगी की चमक। जैसे वर्षों का अन्याय आज उसके चेहरे पर न्याय बनकर उभरा हो।
दिग्विजय ने पहले तो हल्का सा हँसने की कोशिश की, “सुहानी? यहाँ क्या कर रही हो तुम? अपनी जान की परवाह नहीं है क्या?”
गौरवी की चाय का प्याला हाथ से छूटते-छूटते बचा। रणवीर ने सिर घुमा कर ध्यान से उसे देखा, जैसे उसकी पुरानी कहानी के अंतिम अध्याय में नया मोड़ आ गया हो।
सुहानी ने वहीं रुक कर ठहराव से कहा, “क्या हुआ आप सब को? साँप सूंघ गया क्या?”
कमरे में एक पल को सन्नाटा छा गया, हॉल में मौजूद हर चेहरा स्याह पड़ने लगा। हवेली के भीतर एक नई सुबह की शुरुआत हो चुकी थी—पर वो सुबह उजाले के साथ-साथ तूफान भी लेकर आई थी।
क्या है वो राज़, जो उन लोगों पर भारी पड़ने वाला था?
सुहानी का अगला कदम क्या होने वाला है, जिससे राठौर की बत्ती गुल हो जाएगी?
दिग्विजय, गौरवी क्या बर्दाश्त कर पाएंगे, की उनकी दुश्मन फिर से लौट आईं है?
रणवीर राठौर क्या करेगा, अब? अब क्या होगा उसका मास्टर प्लान?
ये जानने के लिए पढ़ते रहिये, रिश्तों का क़र्ज़।
No reviews available for this chapter.