नीना गेस्ट रूम में राइटिंग डेस्क पर जागी। आज वह बिस्तर की जगह यहीं कुर्सी पर ही सो गई थी। शायद मेडिसिन का असर था, या वसुंधरा शांत थी, लेकिन आज उसे कोई सपना नहीं आया। सुबह की हल्की रोशनी कमरे में फैल रही थी। उसने अपनी आँखें मलते हुए अपने हाथ देखे तो पाया कि उन पर गहरा हरा रंग लगा हुआ था। वह रंग चमकदार था, मानो ताजगी से भरा हुआ। इस बार वह उसे साफ करने के लिए बाथरूम की ओर भागी नहीं। लेकिन वह सोच मे पड़ गई  क्योंकि उसे याद नहीं आ रहा था कि  इस रंग से कब उसके हाथ कब सन गए ।

 

वसुंधरा उसे अपने आस-पास कहीं नज़र नहीं आ रही थी। आज उसे नज़र आ रहा था तो अपने हाथ पर यह गाढ़ा हरा रंग। लेकिन उसने इस रंग का इस्तेमाल कहाँ किया, यह उसकी याददाश्त से पूरी तरह मिट चुका था।

वह धीरे-धीरे अपने स्टूडियो की ओर बढ़ी। उसके कदम जैसे खुद-ब-खुद उसकी दिशा तय कर रहे थे। दरवाज़ा खोलने से पहले उसके दिल की धड़कन तेज हो गई। उसने सांस रोकी और हल्के से दरवाज़े का हैंडल घुमाया। दरवाज़े का हल्का सा चरमराना उसके कानों में गूंजा, और जैसे ही उसने दरवाज़े को थोड़ा और खोला, उसकी नज़र सीधा सामने वसुंधरा के पोर्ट्रेट पर पड़ी।

 

वसुंधरा का गाउन एमराल्ड ग्रीन पिगमेंट से रंगा हुआ था, वही रंग उसके हाथों पर लगा था। नीना ने यह कल रात खुद से किया था, लेकिन उसे याद क्यों नहीं आ रहा था? 

उसने अपने हाथों को देखा, मानो उस गाढ़े हरे रंग से नुकीले काँटे निकल आए हों और वे नीना के नरम, मुलायम हाथ पर अपनी मज़बूत पकड़ बनाते, उसके पूरे हाथ पर चढ़ने लगे।
वो पिगमेंट शायद उसे रात को लगा होगा , लेकिन अभी वो और भी ज्यादा गीला, संजीदा और चिपचिपा लग रहा था।

वह हक्का-बक्का सी अपनी उंगलियों को देखती रही। पिगमेंट उसकी त्वचा में पूरी तरह से समा चुका था। नीना ने धीरे-धीरे अपने हाथ को ऊपर उठाया; उसने महसूस किया कि पिगमेंट उसके हाथों पर इधर-उधर चल सकता है। उसका हाथ अजीब ढंग से हिल रहा था, मानो वह अपने काबू में नहीं था। उंगलियाँ इधर-उधर हिलने लगीं, और हाथ का मूवमेंट अपने आप होने लगा। नीना को यकीन नहीं हुआ कि वह खुद ऐसा कर रही थी।

उसने हाथ छिटका; पिगमेंट का हिस्सा फ़र्श से टकराकर वापस उसके हाथ से चिपक गया। उसकी कलाई से लेकर उसकी उंगलियों तक, हर हिस्सा हल्के झटकों के साथ हिल रहा था, जैसे वह अपने आप में स्वतंत्र हो गया हो। नीना की आँखों में डर साफ झलकने लगा। नीना ने कोशिश की कि वह अपने हाथ को रोक सके, लेकिन उसकी कोशिश बेकार थी। उसका हाथ उसकी बात मानने को तैयार ही नहीं था।

नीना का हाथ अब उसकी तंत्रिका तंत्र या नर्वस सिस्टम के सामान्य इंस्ट्रक्शन्स का पालन नहीं कर रहा था। ऐसा लग रहा था कि कोई और शक्ति उसके हाथ को नियंत्रित कर रही थी। उसका ब्रेन आदेश तो दे रहा था, लेकिन मजाल है कि हाथ उसकी बात मान ले। हाथ की हरकतें अब स्वाभाविक नहीं थीं; वे मानो किसी और शक्ति के कंट्रोल में था। नीना को एहसास हो गया था कि उसका हाथ अब सिर्फ़ उसका नहीं रह गया था, बल्कि किसी और का नियंत्रण उस पर हावी हो चुका था।

शंभू जब स्टूडियो में आया, तो उसने देखा कि नीना पोर्ट्रेट के सामने सीधी खड़ी थी और उसका हाथ कैनवास पर बिना ब्रश के काम कर रहा था। उसकी आँखें खाली थीं, जैसे किसी गहरे ध्यान में हो। शंभू ने ओ.आर.एस का घोल लाकर पास की टेबल पर रखा और धीरे से नीना को आवाज दी, लेकिन उसकी आवाज नीना तक नहीं पहुँची। उसने दोबारा पुकारा, पर नीना अपनी पेंटिंग में पूरी तरह खोई हुई थी। उसे इस अजीब माहौल से घबराहट होने लगी और वह डर के मारे वहाँ से चुपचाप चला गया।

शंभू घबराते हुए नाश्ते की मेज के सामने खड़ा था। सत्यजीत ने उसकी बेचैनी को भांप लिया और पूछा, 
"क्या हुआ, शंभू?"
 

शंभू ने हिचकिचाते हुए बताया, साहब, मैंने अभी-अभी नीना मैडम को पेंट करते देखा। दो बार आवाज भी लगाई, पर उन्होंने सुनी ही नहीं। उनकी तबीयत खराब थी, फिर भी वो काम कर रही हैं। कहीं ज़्यादा बीमार न पड़ जाएं। आज उन्हें देख कर बौउदी की याद आ गई। वो भी इसी तरह सारा-सारा दिन पेंट करती रहती थी।

सत्यजीत को यह सुनकर चिंता होने लगी। 
"आइए, देखते हैं," कहते हुए सत्यजीत तेजी से स्टूडियो की ओर बढ़े। वहाँ पहुँचकर, उन्होंने देखा कि नीना पोर्ट्रेट के सामने बिल्कुल सीधी खड़ी थी। उसकी आँखें पोर्ट्रेट पर टिकी थीं, और बिना ब्रश के हाथों से पेंट करने की कोशिश कर रही थी। लेकिन उसके हाथ में न तो ब्रश था, न ही कोई रंग। उसकी साँसें धीमी थीं, और चेहरा भावहीन था।
सत्यजीत कुछ क्षण तक उसे देखता रहा, यह समझने की कोशिश करता हुआ कि आखिर नीना किस स्थिति में है। उसने धीरे से उसका नाम लिया, 
सत्यजीत: "नीना?"

नीना के चेहरे पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। सत्यजीत ने दोबारा उसका नाम पुकारा, 

सत्यजीत: “नीना...”

इस बार नीना चौंक गई, जैसे वह किसी गहरे सदमे से बाहर आई हो। उसकी आँखों में एक पल के लिए हैरानी और असमंजस झलक उठी। उसने अपने हरे रंग से सने हाथ को सत्यजीत की ओर बढ़ाते हुए कहा, 

नीना: "देखिए, ये रंग मेरे हाथ से उतर ही नहीं रहा!"
जब उसने खुद अपने हाथ की ओर देखा, तो उसकी आँखें चौंधिया गईं। वहाँ कोई हरा रंग नहीं था, हाथ पर पहले दिन का ही रंग लगा हुआ था।

यह देखकर नीना के चेहरे पर घबराहट फैल गई।
नीना : "ये कैसे हो सकता है? "अभी तो... मैंने देखा था... हरा रंग था यहाँ!"

सत्यजीत ने उसकी घबराई आँखों में देखा और धीरे से बोला, 
सत्यजीत: "नीना, शायद तुम बहुत थक गई हो, इसीलिए ये सब तुम्हें महसूस हो रहा है।"
नीना ने कोई जवाब नहीं दिया, बस खाली निगाहों से अपने हाथों को घूरती रही, जैसे कुछ समझने की कोशिश कर रही हो। उसका मन उलझनों से भरा हुआ था। क्या ये सब उसकी थकान का परिणाम था, या कोई और रहस्य उसके आसपास मंडरा रहा था?
सत्यजीत ने उसे बाहर की तरफ़ आने का इशारा करते हुए कहा, "चलो, थोड़ी देर आराम करो। फिर तुम्हें पोर्ट्रेट भी पूरा करना है..." नीना ने सोचा, इसे पोर्ट्रेट को पूरा करवाने की कितनी जल्दी है। एक पल तो ये कितना ख्याल रखता है, और अगले ही पल अजनबी की तरह व्यवहार करता है।
वो चुपचाप स्टूडियो से बाहर निकलने लगी, लेकिन उसके दिमाग में अभी भी वो हरा रंग गहराई से छाया हुआ था।

**


नीना अपने बिस्तर पर चुपचाप बैठी थी, उसकी आँखों में गहरी उदासी झलक रही थी। उसके मन में कई सवाल उमड़ रहे थे—जो कुछ भी उसके साथ हो रहा था, वह नॉर्मल तो बिल्कुल नहीं था। क्या वह भी वसुंधरा की तरह पागल हो जाएगी? क्या उसकी भी मौत करीब है? ये सवाल उसके दिमाग में बार-बार घूम रहे थे, और हर बार उनका बोझ और बढ़ जाता। उसका दम घुटने लगा, जैसे वह अपनी ही सोच के जाल में उलझकर रह गई हो।

नीना ने एक गहरी साँस ली, खुद को थोड़ा संभालने की कोशिश की, और अपने पास रखा फोन उठाया। इंसान जब मुसीबत में होता है, तो उसे अपनों की याद आने लगती है। उसने फोन की स्क्रीन पर पापा की तस्वीर देखी, जो उसने अपने व्हाट्सएप्प पर डाली थी। वह अपनी दूसरी पत्नी और बच्चों के साथ कितने खुश नज़र आ रहे थे। उनके चेहरे पर मुस्कान थी, लेकिन नीना की आँखों में आँसू छलक आए।
"क्यों, पापा?" उसने मन ही मन सवाल किया। 
नीना: "आपने मुझे यूँ ही छोड़ दिया। माँ के जाने के बाद क्या हम दोनों मिलकर एक-दूसरे का सहारा नहीं बन सकते थे? आपने किसी और को हमारे घर में जगह कैसे दे दी? शायद माँ के जाने के बाद आप भी बहुत अकेले हो गए थे, मैं तब छोटी थी, समझ ही नहीं पाई।" 

उसकी सोच में कन्फ्यूज़न साफ-साफ देखा जा सकता था।
उसके दिल में दर्द की लहर दौड़ गई। माँ के जाने के बाद उसके लिए पापा ही सब कुछ थे। पर पापा ने दूसरी शादी कर ली, और अचानक ही नीना से माँ के साथ-साथ पापा का प्यार भी छिन गया। उसका घर, उसका परिवार, उसकी दुनिया सब बदल गए थे। एक समय जो घर उसका अपना था, अब उसे पराया महसूस होने लगा था। पापा की नई पत्नी और बच्चों के बीच वह खुद को अजनबी महसूस करने लगी थी। हालाँकि उन्होंने कभी नीना को कुछ नहीं कहा, लेकिन नीना को खुद से उनके बीच परायों जैसी फीलिंग आने लगी थी।

नीना की आँखों से आँसू बहने लगे। उसने फोन की स्क्रीन पर अपने पापा की तस्वीर को और गौर से देखा। 
नीना: "आप खुश अच्छे लगते हैं, पापा... आप हमेशा खुश ही रहिएगा।" उसकी आवाज़ काँपने लगी।
 

नीना की भावनाएँ अब काबू से बाहर हो रही थीं। उसने अपने आँसू पोंछने की कोशिश की, लेकिन वे रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। उसका दिल भारी हो रहा था, और स्क्रीन की तस्वीर आँसुओं की वजह से धुंधली हो गई थी। उसे अपने अंदर का दर्द सहन करना मुश्किल हो रहा था।

 

नीना: "मुझे आपसे कोई शिकायत नहीं है। बस, आज मैं बहुत अकेला फील कर रही हूँ। कोई नहीं है जिसे मैं अपना दर्द बाँट सकूँ। कोई नहीं है जिसे मैं अपना कह सकूँ। आपको पता है, इस अकेलेपन ने मुझे घेर लिया है, जैसे ये धीरे-धीरे मुझे खा रहा हो।"
उसकी आवाज़ अब टूटने लगी थी। उसने फोन को अपने सीने से लगाते हुए कहा, 
नीना: "आपसे बात करने का मन होता है, पापा। पर कोई बात नहीं... आप शायद मेरी ऐसी आवाज़ सुनकर परेशान हो जाएंगे..."

नीना अपने आँसुओं को रोकने की कोशिश कर रही थी, लेकिन उसकी सिसकियाँ और तेज हो गईं। बिस्तर पर बैठे-बैठे, उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे वह धीरे-धीरे खुद से दूर जा रही है। उसका मन पूरी तरह से टूट चुका था। वह अब समझ नहीं पा रही थी कि उसे किस दिशा में जाना चाहिए। 


नीना ने बिस्तर पर सिर रखकर रोना शुरू कर दिया। उसे ऐसा लग रहा था कि यह अकेलापन अब उसकी ज़िंदगी का हिस्सा बन चुका है, और इससे निकलने का कोई रास्ता नहीं है।
नीना: "क्या मेरा अकेलापन कभी खत्म होगा?" उसने बड़बड़ाते हुए कहा। 
नीना: "या ये मुझे हमेशा के लिए निगल लेगा?"


नीना की सिसकियाँ अब धीमी पड़ने लगी थीं, लेकिन उसका दिल अभी भी दर्द से भरा हुआ था। वह बस वहाँ बिस्तर पर लेटी रही, खुद को समेटने की कोशिश करती रही। पर, अब उससे नहीं हो रहा था। उसे ऐसा महसूस हो रहा था कि इस दर्द से निकलने का कोई रास्ता नहीं है, और वह शायद हमेशा के लिए इसी अंधेरे में फँस गई थी।


 

नीना को रोते हुए नींद लग गई, और जब रोते हुए नींद आती है, तो वह नींद बहुत सुकून भरी और गहरी होती है। लेकिन नीना के साथ ऐसा नहीं था। अचानक उसे महसूस हुआ कि उसके हाथ पर ग्रीन पिगमेंट दोबारा आ गया है और वह उसके हाथ पर अठखेलियाँ कर रहा है।


वो पिगमेंट अपनी पकड़ बनाते हुए उसके हाथ पर काबू पाते हुए उसे बाहर की तरफ़ खींचने लगा। और वह खींचती हुई बाहर निकल गई। 

कुछ ही सेकंड में वह पेंटिंग के सामने थी और उसे बनाने में लगी थी। इस बार उसके हाथ में ब्रश था और वह वसुंधरा के हाथ को आउटलाइन दे रही थी। उसकी आँखों के आगे अंधेरा छाने लगा, उसे लगा कि वह बेहोश हो जाएगी। वह कुछ पल के लिए रुकी, तभी उसे अपने पीछे से आवाज़ आई, जिससे स्टूडियो गूँज उठा: "अमाए दुटो हात दे!" 
मुझे मेरे दोनों हाथ दे!

Continue to next

No reviews available for this chapter.