“दिग्विजय राठौर कहाँ है?”

सुहानी के मन में यह सवाल एक कांटे की तरह चुभ रहा था। उसकी नजरें चारों ओर भटक रही थीं, पर चेहरे पर संयम की परत चढ़ी हुई थी। हर कोना जैसे उसे टटोल रहा था, और हर आहट पर उसका दिल एक पल के लिए रुक जा रहा था।

गौरवी के ऑफिस की ओर बढ़ते हुए, आरव और सुहानी दोनों एक अजीब सी चुप्पी में बंधे थे। रणवीर उनके पीछे-पीछे चल रहा था, लेकिन उसका चेहरा निर्विकार था — जैसे उसके भीतर तूफान हो, मगर बाहर केवल सन्नाटा।

जब चारों लोग गौरवी के ऑफिस पहुंचे, तो कमरे में बिछी महंगी कालीन पर उनके कदमों की आहट तक दब गई। दीवारों पर जड़े चित्रों और मेज़ पर सजे क्रिस्टल शोपीस के बीच, गौरवी का व्यक्तित्व और भी प्रभावशाली लग रहा था — एक रानी की तरह, जो सब कुछ नियंत्रित करना जानती है।

गौरवी अपनी कुर्सी से उठी और बेहद सौम्यता से, जैसे बरसों से इंतजार कर रही हो, आगे बढ़ी। उसकी चाल धीमी थी, लेकिन हर कदम में शक्ति और राजनीति झलक रही थी। वो सीधे आरव के सामने जाकर खड़ी हुई और एक क्षण के लिए उसे बस देखती रही। फिर उसने बेहद स्नेहिल अंदाज़ में अपने हाथ आरव के गाल पर रख दिए। उसका स्पर्श ठंडा था — जैसे बर्फ की परत में लिपटा हुआ एक पुराना वादा।

“बेटा,” उसकी आवाज़ धीमी, लेकिन नियंत्रणपूर्ण थी, “माँ को सुहानी से अकेले में बात करनी है।”

सुहानी का दिल एकदम से कस गया। वो जानती थी कि इस ‘प्यार’ में छिपा हुआ हर शब्द एक जाल था। और आरव… वो अब भी चुप था, जैसे कुछ समझ नहीं पा रहा हो, या शायद… समझकर भी खुद को अनजान दिखा रहा हो।

“तुम रणवीर चाचू के साथ जाओ,” गौरवी ने आगे कहा, “उन्हें भी तुम से कुछ पूछना है। तुम्हारे हाथों में फ़ाइल देख कर, ये तो मान सकती हूं कि मेरे बेटे ने अपनी ज़िम्मेदारी बखूबी निभाई है।”

गौरवी की आंखों में चमक थी, जैसे उसे पहले से मालूम हो कि आरव क्या करने गया था।

फिर एक ठहराव के साथ उसने सीधा सवाल दागा — “तुम टेंडर कैंसिल कर आये ना?”

उसके होंठों पर मुस्कान थी, पर आंखों में एक तीखा इशारा था — एक संकेत, जो सिर्फ आरव समझ सकता था। सुहानी उस मुस्कान को देख रही थी, आरव ने हल्का सा सिर झुकाया। पर उसके मन में क्या चल रहा था — वह केवल उसी को मालूम था।

कमरे का तापमान अचानक कुछ डिग्री और नीचे चला गया। आरव का दिल, उसके सीने में हथौड़े की तरह धड़क रहा था।

धड़… धड़… धड़… हर धड़कन जैसे उसकी चेतना को झिंझोड़ रही थी। उसकी हथेलियां पसीने से भीग चुकी थीं, और उसके गले में सूखा कांटा सा अटक गया था। गौरवी की मीठी आवाज़ अब उसे किसी मधुर माँ की नहीं, एक योजनाकार शिकारी की प्रतीत हो रही थी।

“माँ को सुहानी से अकेले में बात करनी है…” — ये शब्द उसके कानों में गूंज रहे थे, बार-बार। उसके अंदर एक बेचैनी कुलबुला रही थी। वो बेचैनी, जो तब जन्मी थी जब सुहानी ने पहली बार उसके सामने वो बात कही थी — “तुम्हारी माँ… पूरी तरह ठीक नहीं हैं, आरव। तुम्हें समझ नहीं आता, पर वो… खतरनाक हैं। बहुत खतरनाक।”

अब वही बात, उसके मन में गूंज रही थी। गौरवी का वह स्नेहिल हाथ जो अभी कुछ पल पहले उसके गाल पर था, अब उसे एक शिकंजे जैसा महसूस हो रहा था — ऐसा शिकंजा जो पहले गले लगाता है, फिर गला घोंट देता है।

आरव की नजरें सुहानी पर टिक गईं। वो अब भी शांत दिखने की कोशिश कर रही थी, लेकिन उसकी आंखों में झलकता डर आरव से छिपा नहीं था।उसने एक पैर आगे बढ़ाया, जैसे सुहानी को रोकना चाहता हो… लेकिन उसके कदम वहीं थम गए। गौरवी की उपस्थिति किसी दीवार की तरह बीच में खड़ी थी — एक दीवार, जो रिश्तों से नहीं, सत्ता और डर से बनी थी।

“मुझे उसे इस घर में लेकर नहीं आना चाहिए था…” आरव ने मन ही मन खुद को कोसा।

उसकी आत्मा एक भयानक अपराधबोध से भरने लगी थी। उसने सोचा था कि सच सामने लाने से चीज़ें सुलझेंगी, पर अब ऐसा लग रहा था कि उसने सुहानी को उस आग में धकेल दिया है, जिसे बुझाने की बजाय वो और भड़का बैठा है।

रणवीर की मौजूदगी कमरे में अभी बाकी थी, लेकिन अब आरव को लग रहा था जैसे उसके आसपास सब कुछ धुंधला हो रहा है — सिर्फ दो चीज़ें साफ थीं, गौरवी की मुस्कान, और सुहानी की आंखों का डर। और इन दोनों के बीच खड़ा था आरव…

अपने निर्णय पर पछताता, और खुद से एक ही सवाल करता हुआ — “क्या मैं फिर से किसी अपने को खो दूंगा?”

“है ना बेटा?”

गौरवी की आवाज़ में मिठास तो थी, पर उसके पीछे एक अजीब-सी तीखी तपिश भी छिपी हुई थी — जैसे किसी कांच के प्याले में ज़हर घोल दिया गया हो।

आरव ने चौंक कर उसकी ओर देखा। उसकी आंखें हल्के संदेह से सिकुड़ी हुई थीं।

“क्या?” उसका स्वर धीमा था, लेकिन भीतर से बुरी तरह अस्थिर। वो समझ नहीं पा रहा था कि गौरवी किस ओर इशारा कर रही है।

गौरवी मुस्कराई — वही सौम्य, सजीली मुस्कान, जिसमें एक अजीब किस्म की ममता और शिकारीपन साथ-साथ चलते थे। वो एक कदम और आगे आई, और आरव के ठीक सामने खड़ी होकर बोली, “तुम टेंडर कैंसिल कर के आये हो ना, जो सुहानी ने पास कराया था?”

उस वक़्त सब कुछ रुक गया था। आरव को ऐसा महसूस हुआ जैसे किसी ने उसके सीने पर बर्फ का पत्थर रख दिया हो। उसकी आंखें धीमे-धीमे सुहानी की ओर गईं, जो थोड़ी पीछे खड़ी थी — उसका चेहरा थमता हुआ, सांसें हल्की तेज़। गौरवी का सवाल जितना साधारण था, उसके पीछे का मतलब उतना ही घातक।

“म्म्म… जी माँ…” आरव ने धीरे से कहा, आवाज़ उसके गले में ही फंस गई।

उसे "माँ" कहना — न जाने कितनी बार कहा था उसने ज़िन्दगी में, लेकिन आज पहली बार ऐसा लगा…जैसे ये एक शब्द नहीं, कोई भारी पत्थर है जिसे ज़बान पर रखने से आत्मा तक घायल हो गई हो। उसने गौरवी को माँ कह दिया, उस औरत को — जो उसकी मां नहीं थी, जिसने उसे पाला जरूर था, लेकिन सच्चाई, ममता और इंसाफ से हमेशा परे रखा था।

आज उसे पहली बार महसूस हुआ कि 'माँ' शब्द का असली अर्थ क्या होता है — और कैसे इस औरत के लिए वो शब्द हर बार सिर्फ एक मुखौटा बना रहा है। गौरवी की आंखों में एक संतोष की चमक थी। वो जानती थी, आरव का “हाँ” उसके लिए एक जीत थी — क्योंकि उसने वही किया था, जो वो चाहती थी…और अब उसे इसका एहसास दिलाना बाकी था कि वो चाहे जितना भी विरोध करे, अंत में हमेशा उसके ही आदेश मानेगा।

एक फ़्लैश बैक—बीती शाम बाकी शामों से अलग थी।

सूरज डूब चुका था, लेकिन आरव की आंखों में आज भी एक लौ जल रही थी। उसने रमेश को फोन मिलाया — संक्षिप्त बातें, तेज़ चाल… और एक ही दिशा — सच को उजागर करना।

“सब तैयार है?”

“हाँ सर, पर हमें बहुत संभलकर चलना होगा… दिग्विजय साहब की नज़रें हर तरफ हैं।”

आरव ने बस एक गहरी सांस ली। अब उसकी आँखों में डर नहीं था, बस हिसाब बाकी था। कार शहर के एक पुराने हिस्से की ओर बढ़ रही थी — जहाँ एक भूरे, जर्जर से गोदाम में उन्हें दो चीजें मिलनी थीं।

पहली — एक बेहद चालाकी से गढ़े गए नकली कागज़, जो एक टेंडर कैंसलेशन की रिपोर्ट दिखाते थे। ये वही टेंडर था, जिसे सुहानी ने पास कराया था, उन ज़रूरत मंद लोगों के लिए जिनके हक़ का पैसा, दिग्विजय ने फ़र्ज़ी कंपनियों के ज़रिये पास करवा कर करोड़ों की अवैध कमाई की थी। इन पेपर्स की जरूरत उस दिन के लिए थी — जब आरव के पास उसे सबके सामने बेनकाब करने का समय और मंच होगा।

दूसरी चीज़ उससे भी खतरनाक थी— एक फ़ाइल, जिसके अंदर थे वो सारे रिकॉर्ड्स, जो दशकों से दबे हुए थे, फ़र्ज़ी NGOs के नाम पर मिली सरकारी फंडिंग, ज़मीन हथियाने के लिए की गई मनगढ़ंत FIRs, और सबसे चौंकाने वाला— दिग्विजय और गौरवी द्वारा अब तक की गई कुल अवैध कमाई का लेखा-जोखा।

जब वो फ़ाइल आरव के हाथ में आई, तो कुछ देर के लिए उसका गला सूख गया। वो पन्ने सिर्फ नंबर नहीं थे—वो चीखते हुए सबूत थे। हर रजिस्ट्रेशन नंबर, हर ट्रांजैक्शन, हर गुप्त खाता… जैसे जैसे आरव पढ़ता गया, उसकी आँखों में ग़ुस्सा और लक्ष्य, दोनों गहराते गए।

“इतना सब…”

रमेश बुदबुदाया, "इतने सालों से ये खेल चल रहा है, और कोई जान ही नहीं पाया? किसी ने आज तक कुछ कहा क्यों नहीं, सर?”

आरव ने बहुत ही धीमी आवाज़ में जवाब दिया, “जानते तो सब थे रमेश… लेकिन कोई बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। क्योंकि जो बोलता, वो या तो गायब हो जाता… या खामोश कर दिया जाता।”

आरव ने फिर फ़ाइल बंद की, और धीरे से कहा, “अब जानेंगे। और हर वो चेहरा जो इस खेल में शामिल था—अब सामने आएगा।”

उसकी उंगलियाँ उस फाइल के किनारों पर सख्ती से जमी थीं — जैसे अगर उसने ढीला छोड़ा, तो ये सच फिर से किसी अंधेरे में समा जाएगा। गोदाम से निकलते वक़्त, रात की हवा में एक अजीब सा सन्नाटा था। शहर सो रहा था, लेकिन आरव जाग रहा था — सच के लिए, न्याय के लिए… और सुहानी के उस संघर्ष के लिए, जिसे उसने अब तक अकेले झेला था।

कार में बैठते ही उसने फोन निकाला — और उस कागज़ का एक फोटो खींचकर, एक सुरक्षित ड्राइव में अपलोड कर दिया। अब खेल शुरू हो चुका था। आरव कार की खामोश ड्राइविंग के बाद, सुहानी के ऑफिस तक पहुंच चुका था।

जब उसे ऑफिस के कांफ्रेंस रूम में सुहानी सोइ हुई मिली थी। वो सुहानी को वैसे ही देखता रहा — जैसे कोई खोया हुआ इंसान अपनी दुनिया को फिर से पा ले। वो उसके पास बैठ गया… धीरे से। हाथ उसकी ओर बढ़ा… पर छूने से पहले ही ठिठक गया — कहीं ये पल टूट न जाए।

तभी… सुहानी की आँखों की पलकें हिलीं। धीरे से खुलीं… और सबसे पहले जो चेहरा उन्होंने देखा, वो था — आरव का। कुछ क्षणों तक दोनों की आंखें एक-दूसरे से जुड़ी रहीं।

कोई डर नहीं… कोई हिचक नहीं… सुहानी ने बस एक कोमल मुस्कान के साथ कहा, “आप आ गए…”

और वो मुस्कान… वही मुस्कान जिसमें दो सुकून छिपे थे — एक, 2500 से ज़्यादा मासूम ज़िंदगियों को बचा पाने का सुकून…और दूसरा, आरव को फिर से अपने पास पाने का सुकून।

सुहानी ने धीमे से पूछा, “आप… कब आये?”

उसका स्वर जैसे नींद की देहरी पर खड़ा था, मगर उस सवाल में जो अपनापन था, वो आरव के दिल को छू गया।

आरव ने मुस्कुराते हुए बेहद धीमी और नर्म आवाज़ में जवाब दिया, “बस अभी ही।”

“आपने मुझे उठाया क्यों नहीं?”

आरव ने एक पल के लिए उसका चेहरा देखा — थकावट भरा, मगर सुकून से भरा हुआ। और फिर जैसे जवाब उसके दिल से खुद-ब-खुद निकला…

“क्योंकि तुम सुकून से सो रही थी…” आरव की आवाज़ में एक हल्की सी कम्पन थी — “…और मैं तुम्हें परेशान नहीं करना चाहता था।”

आरव ने अपनी नज़रें नीची कीं, और सुहानी ने पहली बार — बिना कहे — उसे महसूस किया। इस बार किसी सवाल, किसी जवाब, किसी सफाई की ज़रूरत नहीं थी। इस बार, बस समझना काफी था।

उसने हल्के से सिर हिलाया — “चलें घर?”

सुहानी ने अपनी आंखें मूंदी — मानो उसकी बात ही नींद से प्यारी हो… और उसने बस धीरे से सिर उसकी ओर टिका दिया।

आरव ने उसके कंधों के चारों ओर अपनी बाहें फैलाईं — अब कुछ कहने की ज़रूरत नहीं थी। अब जो था… वो सिर्फ साथ था। वो रात आरव के लिए केवल एक योजना की रात नहीं थी, वो एक वादा था — खुद से, सुहानी से, और उस मासूम सच्चाई से जिसे सालों से कुचल दिया गया था।

अब जब गौरवी उसे उसी मीठी मुस्कान के साथ घेरे हुए खड़ी थी, जब उसकी आंखों में मातृत्व नहीं, बल्कि सत्ता की भूख झलक रही थी, तो आरव को समझ आ चुका था कि यह लड़ाई अब व्यक्तिगत नहीं रही।

ये एक युद्ध था — सत्य बनाम छल का, प्रेम बनाम स्वार्थ का, और आरव बनाम बाकी राठौरों का। अब पीछे हटने का कोई विकल्प नहीं था। उसने एक बार फिर सुहानी की ओर देखा। उसकी आंखों में अब डर नहीं था — बल्कि एक ठहरी हुई उम्मीद थी।

जैसे वो जानती हो कि ये लड़ाई मुश्किल है, लेकिन अधूरी नहीं रहेगी। आरव ने खुद को संभाला, कंधे चौड़े किए, उसकी साँसें गहरी थीं। और तभी… कमरे के कोने में पड़ा इंटरकॉम बज उठा।

गौरवी की भौंहें हल्की सी तनीं। उसने रिसीवर उठाया।

"मैडम," दूसरी ओर से आवाज़ आई, “दिग्विजय साहब… लापता हैं।”

कमरे में एक क्षण को मौन छा गया। सुहानी की रुकती सांसें, रणवीर की तीखी नज़रें, गौरवी की मंद मुस्कान, और आरव का जज़्बा — अब एक ही दिशा की ओर बढ़ने लगे थे।

क्योंकि सच्चाई का तूफ़ान अब दरवाज़े पर दस्तक दे रहा था… और अगले अध्याय में, या तो कोई टूटेगा — या कोई बचेगा।

 

आगे की कहानी जानने के लिए, पढ़ते रहिये, रिश्तों का क़र्ज़।

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