दूसरी ओर, राठौर एंड संस के कॉर्पोरेट ऑफिस की उस ऊँची इमारत में, आरव अपनी केबिन की खिड़की के पास खड़ा था। उसकी नज़र बार-बार सामने वाली बिल्डिंग के उस ऑफिस पर जा टिकती थी, जहाँ सुहानी को आज सुबह आना था। फिर नज़र अपनी कलाई पर बंधी घड़ी पर जाती है। सुइयाँ जैसे उसे चिढ़ा रही थीं — हर मिनट के साथ उस के सब्र का इम्तिहान ले रही थीं।

आरव की उंगलियाँ टेबल पर धीमी-धीमी थपथपाहट के साथ बेचैनी का इज़हार कर रही थीं, और उसका चेहरा…उस पर उलझन साफ़ झलक रही थी।

“क्यों नहीं आये अभी तक वो लोग?” उस ने खुद से सवाल किया, लेकिन जवाब न उसके पास था, न उसके दिल ने दिया। ग़ुस्सा — हाँ, उसे अब ग़ुस्सा आने लगा था। मगर इस बार ग़ुस्से की वजह कोई और नहीं, बल्कि उस की खुद की ये अनजानी बेचैनी थी।

“क्या फर्क पड़ता है अगर वो नहीं आई? मुझे क्यों परवाह हो रही है?” उसने खुद को समझाने की कोशिश की। लेकिन जितना वो खुद से भागता, उतना ही सुहानी का चेहरा उस की आंखों के सामने घूमने लगता। याददाश्त भले ही चली गई थी, मगर बदन की हर नस, हर धड़कन, हर अजीब सी बेचैनी आज भी सुहानी की मौजूदगी या ग़ैरमौजूदगी को पहचानती थी।

आरव ने खिड़की से हटकर कुर्सी खींची, मगर बैठते ही फिर से उठ खड़ा हुआ — जैसे किसी ने उस के भीतर चैन की मिट्टी को भी उड़ा दिया हो। उसे खुद समझ नहीं आ रहा था कि वो क्या महसूस कर रहा है, और शायद यही बात उसे सब से ज़्यादा परेशान कर रही थी।

“कहीं कुछ हुआ तो नहीं?” अचानक से ये ख्याल बिजली सा कड़कता हुआ उसके दिमाग में आया। और अगले ही पल आरव की उंगलियाँ अपने आप मोबाइल की स्क्रीन पर फिसलने लगीं।

कॉन्टैक्ट लिस्ट में ‘S’ तक पहुँचते ही उसकी उंगलियाँ थम गईं।

“Su…” नाम अब भी सेव था — जैसे यादें मिटा देने से रिश्ते नहीं मिटते। उसने कॉल करने के लिए स्क्रीन पर उंगली रखी…पर रुक गया।

“नहीं, मुझे क्या ज़रूरत है उसे फोन करने की? वो आए या नहीं, मुझे इस से क्या फर्क पड़ता है!”

दिल मान ही नहीं रहा था कि बस काम की बात है — या कुछ और था, कुछ ऐसा जो उसके खुद के बस में नहीं था। अचानक दरवाज़ा खटखटाया गया।

“सर, मीटिंग शुरू होने वाली है,” सचिन ने धीरे से सिर अंदर झुकाकर कहा।

आरव ने एक पल को आँखें बंद कीं, गहरी साँस ली। चेहरे पर वो बिज़नेस वाला मुखौटा फिर से चढ़ाया — जिसके पीछे उस की बेचैनी, उलझन और वो ना-कुबूल की मोहब्बत छिपी थी।

“मैं आ रहा हूँ,” उसने धीमे लेकिन सख़्त लहजे में कहा। लेकिन जैसे ही वो दरवाज़े की ओर बढ़ा, काँच की दीवार से बाहर झाँकती नज़रों ने एक हलचल महसूस की।

नीचे की बिल्डिंग के सामने एक गाड़ी रुकी थी…और उस में से उतरी एक जानी-पहचानी परछाई — सुहानी।

एक पल को जैसे वक़्त ठहर गया, आरव की साँसें थम गईं। उसकी नज़रों ने खुद-ब-खुद उस परछाईं का पीछा करना शुरू कर दिया — जैसे वो खुद को नहीं, अपने अतीत को देख रहा हो।

कपड़ों की सादगी, चाल की थकावट, और आँखों में झलकता वही पुराना हौसला — सब कुछ वैसा ही था। पर इस बार कुछ अलग था — जैसे वो दोनों एक-दूसरे को पहचानते तो थे, लेकिन समझ नहीं पा रहे थे।

आरव ने बस एक शब्द बुदबुदाया — “सुहानी…”

सुहानी तेज़ी से ऑफिस के गलियारे में बढ़ रही थी। मीटिंग शुरू होने में कुछ ही मिनट बाकी थे। पर जैसे ही वो कॉन्फ्रेंस रूम के पास पहुँची, सामने से आता आरव उससे टकरा गया।

"सॉरी," सुहानी ने झुक कर पेपर समेटे, पर आरव वहीं खड़ा रह गया।

"तुम डेढ़ घंटे लेट क्यों आई हो?" उसके लहजे में तल्खी थी। “जब हम दोनों एक ही घर से निकले थे, वो भी एक ही वक़्त पर, तो फिर अलग-अलग कैसे पहुँचे?”

सुहानी सहमी नहीं, पर थकी हुई नज़र से उसने आरव की ओर देखा।

"और विक्रम तुम्हारे साथ क्यों था? उसे क्या काम था तुम से? और अब कहाँ है वो?" आरव की निगाहें जैसे उसकी आँखों में उतर कर जवाब टटोल रही थीं।

सुहानी ने गहरी साँस ली। उसे गुस्सा नहीं आ रहा था, पर अब बस थकान हावी हो चुकी थी उस पर। "मुझे नहीं लगता आपको ये सवाल करने का कोई भी हक है, मिस्टर आरव राठौर," उसके स्वर अब चुभने लगे थे।

“सुबह आपके घर में जो तमाशा हुआ, उसे इतनी जल्दी भूल गए क्या आप? कैसे अपनी माँ, अपने ताऊजी और चाचाजी के साथ बैठ कर आप ने हमारे रिश्ते को तोड़ने की बात की थी? और मीरा से शादी के बारे में बात... वो भी मेरे सामने?”

आरव थोड़ा पीछे हटा, पर उसकी आँखों में अब भी सवाल थे।

"और विक्रम से बहस हुई मेरी किसी बात पर," उसने बिना रुके जवाब दिया। “इसलिए रास्ते में ही उतार दिया मैंने, उसे। क्या अब मुझे हर बात का हिसाब देना पड़ेगा?”

"तुम्हारी बातों का कोई सिर-पैर नहीं है, सुहानी," आरव ने नज़रें टेढ़ी कीं।

"बिलकुल नहीं लग रहा होगा," उसकी आवाज़ कांपी। “क्योंकि अब आप वो आरव नहीं रहे जिसे मैं जानती थी। आप की याददाश्त चली गई, और साथ में वो एहसास भी... जो हमारे बीच थे।”

कुछ पल को खामोशी छा गई।

“मैं समझ सकती हूँ कि आप को कुछ याद नहीं... लेकिन जब हर कोई आपको मेरे ख़िलाफ़ भड़का रहा है, तब आप एक बार खुद से भी तो पूछते—कहीं वो सुहानी, जिसे सब झूठा साबित कर रहे हैं, कभी वो साया बन कर रही थी आपका?”

आरव कुछ कहने ही वाला था, लेकिन तभी अंदर से मीटिंग का कॉल आया।

"हम बाद में बात करेंगे," उसने कहा।

"नहीं आरव," सुहानी की आँखों में आँसू थे, “अब शायद कुछ बात करने को बचा ही नहीं है।”

वो आगे बढ़ गई, और पहली बार आरव ने उस दूरी को महसूस किया—जो सिर्फ़ फिजिकल नहीं थी, बहुत गहरी, बहुत निजी थी।

कॉन्फ्रेंस रूम में माहौल गंभीर था। बोर्ड मेंबर्स, क्लाइंट्स और राठौर ग्रुप के वरिष्ठ सदस्य मौजूद थे। मीटिंग का एजेंडा प्रोजेक्ट प्रेज़ेंटेशन था, जिसे सुहानी और आरव को मिलकर देना था।

सुहानी ने खुद को संयमित किया। चेहरे पर प्रोफेशनल मुस्कान लाकर वह स्क्रीन की ओर मुड़ी।

"गुड मॉर्निंग एवरीवन," उसने बोलना शुरू किया, “आज हम जिस प्रोजेक्ट को प्रेज़ेंट कर रहे हैं, वो राठौर ग्रुप के लिए सिर्फ़ एक प्रोजेक्ट नहीं, एक नई शुरुआत है...”

वह स्लाइड्स बदलती गई, शब्द आते रहे, लेकिन आंखें बार-बार सामने बैठे आरव पर ठहर जातीं। वह बिल्कुल खामोशी से सुन रहा था, जैसे किसी अजनबी को देख रहा हो।

सुहानी का गला सूखने लगा। उसकी आवाज़ धीमी होती गई। "और... और इस प्रोजेक्ट की सब से बड़ी खूबी..." वह रुक गई।

सभी की नजरें उस पर टिक गईं।

"माफ कीजिएगा..." वह एक पल को रुकी, फिर मुस्कराने की कोशिश की, पर उसकी आँखों में आँसू भर आए।

“मैं ये प्रेज़ेंटेशन आगे नहीं दे सकती।”

बोर्ड मेंबर्स चौंक गए। आरव भी उठ खड़ा हुआ, “सुहानी!”

"नहीं आरव," वह अब किसी की परवाह नहीं कर रही थी। "मुझ से अभी ये नहीं होगा” फिर बिना आगे कुछ कहे सुहानी ने फाइलें बंद कीं, लैपटॉप का स्क्रीन ऑफ किया और दरवाजे की ओर बढ़ गई।

बाहर बारिश की हल्की बूँदें काँच पर टपक रही थीं, मगर ऑफिस के अंदर एक तूफ़ान पनप रहा था — ऐसा तूफ़ान जो किसी एक इंसान को नहीं, बल्कि कई जिंदगियों को चीरने की ताक़त रखता था।

सुहानी अपने केबिन में अकेली बैठी थी, खामोश, मगर भीतर से टूटी हुई। उसकी आँखों में एक सूनापन था — ऐसा सूनापन जो किसी को दिखता नहीं था, मगर अंदर ही अंदर उसकी आत्मा को खा रहा था। उस वक्त भी, जब वो सामने पड़ी फाइलों को देख रही थी, उसका दिमाग़ कहीं और था। आरव... उसकी यादें... उसकी आँखें, उसकी चुप्पियाँ।

उसी वक्त, ऑफिस की मुख्य लॉबी में एक परछाई दबे पाँव चल रही थी। मरियम — जो पहले दिग्विजय की सबसे भरोसेमंद असिस्टेंट हुआ करती थी — आज छुपते-छुपाते सुहानी के केबिन तक पहुँच रही थी।

उनकी आखिरी मुलाकात में मरियम ने तब मदद करने से इनकार कर दिया था, मगर सुहानी ने सिर्फ गुस्सा नहीं, तर्क और संवेदनाएं दी थीं — “अगर आप चुप रहीं, तो सिर्फ मैं नहीं हारूंगी, सच भी हार जाएगा।”

वो शब्द मरियम के ज़ेहन में गूंजते रहे… और आज, वो सबकी नज़रों से बचकर, फाइलों से भरा बैग लेकर सुहानी के सामने आकर खड़ी हो गई थी।

सुहानी ने बिना कुछ कहे फाइलें खोलीं… कुछ ही मिनटों में, उसके चेहरे से रंग उड़ने लगा।

फाइल नंबर: DGR-X74 — Subject: Pediatric Trials — Status: DECEASED

फाइल नंबर: DGR-X85 — Parental Compensation Ledger: ₹3,00,000 per child

Signature: Digvijay Rathore

हर पन्ना पर एक ज़ख्म था।

इन दस्तावेज़ों में बच्चों के नाम थे — वो मासूम जिनका इस्तेमाल मानवता की हदें पार कर करने के लिए किया गया था। उन्हें बीमार जानकर, जानबूझकर एक्सपेरिमेंटल ड्रग्स दी गईं। कुछ बच्चे उसी हफ्ते चल बसे… कुछ महीनों तक दर्द में तड़पते रहे। और बदले में उन के माँ-बाप को दिया गया सिर्फ पैसा — मुंह बंद रखने के लिए।

फाइलें उस के हाथ से गिर गईं। चेहरा ज़मीन की ओर झुक गया। आँसू उसकी आँखों की सीमा तोड़कर गालों तक पहुँच चुके थे। होंठ काँप रहे थे, दिल की धड़कनें जैसे उसकी ही आवाज़ को दबा रही थीं।

"ये... नरसंहार है..." उसने बड़ी मुश्किल से कहा।

वो समझ चुकी थी, अब खेल व्यक्तिगत नहीं रहा। ये अब इंसानियत की लड़ाई बन चुका था।

उस ने तुरंत मरियम से उसका फोन माँगा — अपना फोन इस्तेमाल करना अब खतरे से खाली नहीं था, क्योंकि रणवीर राठौर हर चाल पर नज़र रखे बैठा था।

मरियम ने फ़ोन आगे बढ़ाया और सुहानी ने सब से पहला कॉल मीरा को किया — फिर विक्रम, विशाल और रमेश को। शब्द कम थे, लेकिन आवाज़ में ऐसी घनघनाहट थी कि किसी को कुछ पूछने की ज़रूरत नहीं पड़ी।

“तैयार हो जाओ। फार्महाउस में मीटिंग है…आज ही।”

फोन काटकर, सुहानी ने मरियम की ओर देखा।

“मेरे साथ चलिए,” उसने कहा। और अगले ही पल, दोनों ऑफिस से निकल गईं — कागज़ों के उस बोझ को लेकर, जो अब इतिहास की सब से घातक सच्चाइयों में से एक था।

फार्महाउस की ओर गाड़ी दौड़ती जा रही थी, पर सुहानी की आँखें सड़क पर नहीं, फाइलों के शब्दों पर टिकी थीं — उन शब्दों पर जो अब उसके ज़ेहन में चीख बनकर गूंज रहे थे। गाड़ी की खामोशी में मरियम बार-बार सुहानी की ओर देख रही थी, जैसे उसके चेहरे के बदलते रंगों को पढ़ना चाहती हो।

सुहानी की उंगलियाँ बार-बार काँप जातीं। “पचास से साठ मासूम जानें...” वो बुदबुदाई, “…और ये सिर्फ एक शहर की रिपोर्ट है।”

मरियम चुप थी, लेकिन उसकी आँखें शर्म और पछतावे से झुकी हुई थीं। वो जानती थी कि उसके हाथों से किसी ज़माने में जिन फाइलों पर दस्तखत होते थे, वही अब सुहानी की आँखों में आँसू बन कर बह रहे हैं।

दूसरी ओर महल के अपने स्टडी रूम में बैठा आरव, सामने टंगी उस पुरानी तस्वीर को घूर रहा था — उसकी और सुहानी के शादी के दिन की तस्वीर।

उसके हाथ में ग्लास था — आधा भरा हुआ, आधा खाली। जैसे उसका दिल… सुहानी से भरा हुआ, और फिर भी खाली।

“नफरत है मुझ से?” उसने खुद से पूछा, “या खुद से... कि मैं अब भी उसे भूल नहीं पाया?”

वो अचानक कुर्सी से उठा, और पूरे कमरे में चहल कदमी करने लगा।

“क्यों बार-बार वो मेरे सामने आती है?”

“क्यों मैं उसे नज़रअंदाज़ नहीं कर पाता?”

“क्यों उसकी आँखों का दर्द मुझ से बर्दाश्त नहीं होता?”

 

जैसे ही गाड़ी फार्महाउस के गेट पर रुकी, मीरा, विक्रम, विशाल और रमेश पहले से ही वहाँ मौजूद थे। सब के चेहरों पर सवाल थे, पर सुहानी के चेहरे पर जवाब नहीं, जख्म थे।

वो फाइलें मेज़ पर पटकते हुए बोली, “ये देखो... ये सिर्फ स्कैम नहीं है, ये नरसंहार है!”

मीरा ने काँपते हाथों से फाइल उठाई, और पढ़ना शुरू किया। हर पन्ने के साथ उसका चेहरा स्याह होता गया।

“दिग्विजय ने बच्चों पर दवाओं के एक्सपेरिमेंट कराए हैं… वो भी जानते हुए कि वो दवाइयाँ ट्रायल फेज़ में थीं” विशाल का गला भर्रा गया।

“और इन सबके नीचे उसके सिग्नेचर भी हैं,” सुहानी ने काँपती आवाज़ में कहा, “बिलकुल साफ़ — जैसे वो अपने अपराध पर गर्व कर रहा हो।”

मरियम, जो अब तक चुप थी, आगे आई और बोली, “मुझे नहीं पता था कि मैं जिन प्रोजेक्ट्स पर काम कर रही थी, वो इतना गंदा चेहरा छिपाए हुए थे। सुहानी, मैंने कभी सोचा भी नहीं था…”

सुहानी ने उसकी ओर देखा, उसकी आँखें लाल थीं पर आवाज़ स्थिर — “अब मौका है मरियम… इन सब बच्चों के लिए कुछ करने का। अगर आप सच में बदलना चाहती हो, तो अब पीछे मत हटना।”

मरियम ने सिर झुका दिया, “मैं तुम्हारे साथ हूँ।”

आरव अभी भी अपने भीतर की हलचल में उलझा हुआ था।

उसी रात, आरव ने रणवीर को कुछ फाइलों के बारे में पूछने की कोशिश की, जो उसे कई बार नज़र से गुजरती दिखीं थीं। पर रणवीर ने बात टाल दी।

शक, संदेह, और सच्चाई — तीनों अब आरव के ज़हन में एक साथ तैर रहे थे। और फिर — एक पुराने वॉयस रिकॉर्डर की रिकॉर्डिंग उसके कानों में गूंज उठी, जिसे कभी दिग्विजय ने मज़ाक में कहा था, “आरव को सच्चाई से दूर रखना ही सबसे ज़्यादा ज़रूरी है… वरना हमारे महल की दीवारें भी गिर सकती हैं।”

आरव की साँसें रुक गईं।

 

क्या आरव सच की तह तक पहुँच पायेगा? 

मरियम सुहानी का साथ दे रही है या फिर वो दिग्विजय से मिली हुई है? 

आरव का सुहानी को लेकर परेशान होना, क्या उस एहसास को वापस ज़िंदा कर देगा? 

आगे की कहानी जानने के लिए पढ़ते रहिये, रिश्तों का क़र्ज़।

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