एक रिश्ता था — जो बना ही था टूटने को,

हमने फिर भी उसे उम्र भर सींचा।

नफरत भी मिली तो उस चेहरे से,

जिसे कभी दुआओं में माँगा था।

कार सड़क पर धीमी रफ्तार से बढ़ रही थी। बाहर का शोरगुल शीशों के पार रह गया था, भीतर सिर्फ़ सन्नाटा था — भारी, खामोश और बोझिल। सुहानी drive करते हुए बगल वाली खिड़की से बाहर देख रही थी, पर उसकी आँखें कहीं और थीं। वहीं विक्रम, बगल वाली सीट पर बैठ कर बार बार चोरी-छिपे उसकी ओर देख रहा था।

उसकी नज़रें जैसे सुहानी के चेहरे की हर लकीर को बुन रही थीं — उन आँखों में ठहरी बेचैनी, उन होठों पर चुप्पी की परत, और उस माथे की शिकन जो बहुत कुछ कह रही थी। वो कुछ कहना चाहता था, पर जैसे शब्द उसकी जुबान तक आते-आते दम तोड़ दे रहे थे। कुछ पल यूँ ही खामोशी में गुजर गए। फिर अचानक, सुहानी ने गर्दन घुमाई और सीधा उसकी आँखों में झाँकते हुए, चिढ़ कर पूछा —

“तुम माँ के बारे में, मुझे कुछ बताने वाले थे?” उसके स्वर में तंज़ भी था और तलब भी — जैसे वो बहुत देर से इस जवाब का इंतज़ार कर रही हो।

विक्रम एक झटके में जैसे किसी ट्रांस से बाहर निकला। उसकी पकड़ अपने फ़ोन पर थोड़ी कस गई। उसने गहराई से साँस ली और अपनी पलकों को झपकाया — जैसे खुद को इस वक़्त में वापस खींच रहा हो। वो जानता था कि सुहानी सिर्फ़ उसकी बचपन की दोस्त नहीं थी। वो उसके जज़्बातों की पहली नज़्म थी — एक नज़्म जो उसके दिल में बसी थी, मगर जिसे कभी ज़ुबान नहीं मिल पाई।

वो उस पल को याद करने लगा, जब पहली बार उसे एहसास हुआ था कि वो उस से प्यार करता है, मगर वक़्त बेरहम था। अपने परिवार के साथ हुए अन्याय का बदला लेने की आग में वो इतना डूब गया कि सालों कैसे बीत गए, उसे इस बात का एहसास ही नहीं हुआ। और जब होश आया, तब तक देर हो चुकी थी।

आरव और सुहानी की शादी की खबर उसे जैसे किसी तूफ़ान की तरह मिली थी। उसने वो बात अपने जिगरी दोस्त विशाल — सुहानी के बड़े भाई — से भी साझा की थी। वो चाहता था कुछ करे, कुछ बदल दे... लेकिन हालात और वक्त ने जैसे सब रास्ते बंद कर दिए थे।

अब सुहानी उसके सामने बैठी थी, सवाल करती हुई, जवाब माँगती हुई और विक्रम के पास देने के लिए सिर्फ़ खामोशियाँ थीं।

मगर विक्रम ये साफ़-साफ़ जानता था — कि सुहानी की शादी राठौर परिवार में महज़ एक रिश्ते का नाम नहीं, बल्कि एक साजिश थी। एक ऐसा षड्यंत्र, जिसमें सिर्फ़ रस्में नहीं थीं, बल्कि किसी मासूम ज़िंदगी को जकड़ने का इरादा था।

जब ये सच उसकी समझ में आया, तो वो एक पल भी नहीं रुका। दौड़ता हुआ विशाल के पास गया — सुहानी के बड़े भाई, उसका बचपन का दोस्त। उसने सब कुछ बताया — हर परत खोली, हर शक़ यकीन में बदल गया। विशाल भी दहशत में आ गया। दोनों ने मिलकर कोशिश की, योजना बनाई कि कैसे इस शादी को रोका जाए। मगर जैसे किस्मत ने पहले ही फैसला कर रखा हो — मौके पर उनके सारे प्लान्स तहस-नहस हो गए।

कुछ ऐसा हुआ, जो उन्हें चाह कर भी बदलने की मोहलत नहीं मिली और इसलिए, विशाल अपनी बहन की शादी में भी नहीं आ पाया। न दिल से, न शरीर से — वो हर तरह से टूट चुका था। विक्रम के लिए वो दिन सिर्फ़ एक दोस्त का हार जाना नहीं था — वो अपने पूरे वजूद की हार थी। उसने अपना बचपन का प्यार खो दिया था… और उन हाथों खो दिया जो उसे बरबाद करने की कसम खा चुके थे।

हर बार जब राठौर परिवार में कोई सुहानी पर तंज कसता, उसे नीचा दिखाता या उस के आत्मसम्मान को ठेस पहुँचाता — विक्रम का दिल चुपचाप तड़पता था। वो कुछ नहीं कर पाता, सिर्फ़ अंदर ही अंदर टूटता जाता। हाँ, उसे ये भी मालूम था कि सुहानी ने कभी उसे उस नज़र से नहीं देखा — जिस नज़र से वह उसे देखता था। उसके लिए विक्रम सिर्फ़ एक अच्छा दोस्त था — भरोसेमंद, सच्चा, लेकिन सिर्फ़ दोस्त। मगर जब उसे ये पता चला कि विक्रम भी कभी राठौर परिवार के करीब था, या उनकी किसी योजना से जुड़ा था — चाहे वो अनजाने में ही क्यों न हो या फिर किसी मकसद के दरमियान— तो सुहानी की आंखों में उसके लिए जो विश्वास था, वो राख बन गया।

उसकी नज़रों में वो भी उन्हीं लोगों जैसा बन गया और फिर जो कभी दोस्ती थी, अब नफरत में बदल गई थी। उसे पूरी सच्चाई कभी बताई ही नहीं गई थी। विक्रम की नज़र में ये सबसे बड़ा दर्द था — कि सुहानी उसे गलत समझ रही थी।

आज भी, जब वो छिप-छिप कर उसकी मदद करता, तो सुहानी उसकी मंशाओं पर भरोसा नहीं कर पाती। वो कभी खुलकर उस से बात नहीं करती।हर मुलाक़ात बस ज़रूरत भर की बातचीत तक सिमट कर रह जाती है — ठंडी, नपी-तुली, और साफ़ दूरी बनाए हुए। लेकिन विक्रम के बर्ताव में कभी-कभी ऐसी चुप्पी होती, जो बहुत कुछ कह जाती है।

उसके छोटे-छोटे gestures — जैसे सुहानी की पसंद का ख्याल रखना, उस पर अपना हक़ जाताना, बिना बोले उसकी मुश्किलें आसान कर देना, और फिर खुद को पीछे खींच लेना — सुहानी को एहसास दिला देता था कि विक्रम के दिल में अब भी कुछ बाकी है… कुछ ऐसा जो वो कह नहीं रहा।और यही बात सुहानी को खलती थी।

उसे परेशानी थी इस बदलाव से — कि शादी से पहले जो विक्रम उसके साथ बिल्कुल नार्मल था। एक अच्छा दोस्त — शांत, स्थिर और सच्चा। अब जब उसकी शादी आरव से हो गई है, तो विक्रम का व्यवहार अचानक से बदल गया है। जैसे कोई चीज़ छिन गई हो उस से… जैसे सुहानी अब किसी और की “चीज़” बन गई हो।

ये हक़ जताने वाला व्यवहार, वो निगाहें जो अब सवाल करती थीं…सुहानी को असहज कर देती थीं।

वो सोचती — “अगर सच में तुम्हारे दिल में कुछ था… तो तब कुछ क्यों नहीं कहा मुझ से?”

कार धीमे-धीमे ऑफिस के पास पहुँच रही थी।

विक्रम ने कुछ पल चुप रहकर अपने शब्दों को तौला, फिर बड़ी सावधानी से कहा — “हाँ… दरअसल, पता नहीं तुम्हें ये सुनकर कैसा लगेगा… मगर रणवीर के किसी भी ठिकाने पर काजल आंटी को किडनैप करके रखने का मुझे कोई सबूत नहीं मिला।”

सुहानी की उंगलियाँ स्टीयरिंग व्हील पर कस गईं। उसकी आँखें एक पल के लिए स्थिर हो गईं — और फिर भीतर एक भूचाल उठने लगा।

“तुमने ठीक से check नहीं किया होगा,” सुहानी की आवाज़ में इल्ज़ाम की चुभन थी, और आँखों में वो शिकायत, जो अब आदत बन चुकी थी।

विक्रम जैसे पल भर को स्तब्ध रह गया। उसकी पलकों में हलकी झपक आयी, और फिर उसकी आँखें भीच गईं — उसके चेहरे पर वो ठेस साफ़ झलक रही थी, जो किसी अपने से मिलती है। जिस से वो उम्मीद करता है, भरोसे की।

“तुम्हें अभी भी मुझ पर भरोसा नहीं है ना?” उसकी आवाज़ सख़्त हो चली थी। गुस्सा था, पर उसके पीछे छुपी एक पीड़ा भी थी — जैसे हर शब्द सुहानी की बेरुख़ी से घायल हो रहा हो।

सुहानी ने घूर कर उसकी तरफ़ देखा। अब तक जो गुस्सा वो दिल में दबा रही थी, वो लफ़्ज़ों में फूट पड़ा, “तुम ने आज तक कभी कोई काम भरोसे वाला किया है क्या, विक्रम?” 

उस के शब्द सीधे विक्रम के सीने में चुभे। विक्रम का चेहरा तमतमा उठा…वो एक गहरी साँस लेकर रह गया, जैसे खुद को काबू में रखने की कोशिश कर रहा हो। फिर, एक झटके में उसका संयम टूट गया।

“तुम्हारी प्रॉब्लम क्या है मुझ से?” उसकी आवाज़ में अब झल्लाहट थी — थकान थी — टूटन थी।

"तुम्हें भरोसा दिलाने के लिए और क्या करूं मैं? दे तो रहा हूँ तुम्हारा साथ! हर वक्त, हर मोड़ पर... छिप कर ही सही, मगर तुम्हारे लिए ही खड़ा रहा हूँ!"

विक्रम का गला भारी हो गया था। वो अब सीधे उसकी आँखों में देख रहा था — जैसे जवाब माँग रहा हो, कि आखिर उसकी वफादारी कब तक शक के तराजू में तौली जाएगी।

“तो मेहरबानी कर रहे हो? हाँ?” सुहानी की आवाज़ ऊँची हो चली थी। उसकी आँखों में अब वो पुराना ग़ुस्सा लौट आया था — जैसे दिल में सालों से जमी राख में अचानक से चिंगारी पड़ गई हो।

“अगर तुम ने ग़लत रास्ता छोड़ कर सही रास्ता चुना है,” वो आगे बोली, “तो क्या लगता है तुम्हें — मुझ पर कोई एहसान कर रहे हो? और ‘तुम’ भरोसे की बात तो मत करो मुझ से। तुम मेरे भाई के दोस्त हो, सिर्फ़ इसी बात पर मैं तुम पर आँख बंद करके भरोसा नहीं कर सकती, विक्रम।”

विक्रम के होंठ भींच गए। उसकी नज़रें कुछ पल के लिए झुकीं, फिर उस ने गहरी सांस ली। दिल जैसे बोझ से दबा जा रहा हो।

“सुहानी…” उसकी आवाज़ इस बार धीमी थी — संवेदनशील, पर फिर भी दृढ़।

“मैं सिर्फ़ तुम्हारे भाई का दोस्त नहीं हूँ….”

लेकिन सुहानी ने उसे बात पूरी नहीं करने दी।

“No! नहीं, तुम मेरे दोस्त नहीं हो, विक्रम। अगर होते…तो रणवीर का साथ देने के अलावा जिस तरह का बर्ताव तुम कर रहे हो, मेरी शादी के बाद से — वो दोस्त होने के लक्षण तो बिलकुल नहीं हैं।”

विक्रम कुछ पल तक उसकी आँखों में देखता रहा, जैसे हर शब्द को चुपचाप झेल रहा हो। उसने अपनी जुबान को रोका — पर फिर खुद से हार गया।

“क्या मतलब है तुम्हारा?” उसने शांत मगर भारी स्वर में पूछा।

“मतलब ये है कि…विक्रम, तुम मेरे साथ इस तरह से बिहेव नहीं कर सकते, जैसे मैंने तुम्हें कोई धोखा दिया हो।”

उसने अपनी आँखें विक्रम की ओर घुमाईं — “और ना ही किसी ने मुझे तुम से छीना है। ना तुम ने कभी अपनी feelings के बारे में मुझ से कुछ कहा, और ना ही मैंने तुम्हें कभी एक दोस्त से ज़्यादा कुछ समझा। तो प्लीज़…”

उस ने एक आखिरी बार उस से नजरें मिलाईं, “मुझ पर अपना हक़ जताना बंद करो। तुम सिर्फ़ उन लोगों के खिलाफ इस मुहिम में जुड़े हो…और इस के अलावा, हमारा कोई रिश्ता नहीं है।”

उसका लहजा अब पत्थर की तरह ठोस था —

जिस में कोई दरार बाकी नहीं छोड़ी गई थी।

विक्रम की आँखें भर आई थीं, लेकिन उन में आँसू नहीं — सिर्फ़ ग़ुस्सा और गहरी चोट थी, “मुझे तुम्हारे साथ आना ही नहीं चाहिए था…”

कार की खामोशी में अब सिर्फ़ टूटे हुए भरोसे की गूंज थी। और तभी…सुहानी ने अचानक एक ज़ोरदार ब्रेक मारा। कार के टायर सड़क पर चीखते हुए रुके, और भीतर एक झटका सा हुआ। विक्रम थोड़ी देर तक कुछ समझ नहीं पाया। उस से पहले कि वो कुछ पूछे या कहे, उसके साइड का दरवाज़ा अनलॉक हो चुका था।

सुहानी ने एकदम शांत, मगर बर्फ़ सी ठंडी आवाज़ में कहा, “उतरो।”

विक्रम ने उसकी तरफ देखा — आँखें हैरानी और हलके से दर्द में डूबी हुईं थी। जैसे यकीन ही नहीं हो रहा हो कि ये वही सुहानी है, जो कभी उस की सब से करीबी दोस्त हुआ करती थी। पर सुहानी की नज़रें अटल थीं। उसके चेहरे पर कोई भावना नहीं थी — ना गुस्सा था, ना अफ़सोस, ना दया।

विक्रम ने अंततः गुस्से में दरवाज़ा खोला — एक झटके में। और जब उतरा, तो जाते-जाते इतनी ज़ोर से दरवाज़ा बंद किया कि कार तक हिल गई। पर सुहानी ने पलट कर भी नहीं देखा। उसने एक गहरी साँस ली, गियर पे हाथ रखा, और अगली ही पल गाड़ी को तेज़ रफ्तार में भगा दिया।

विक्रम वहीं सड़क के किनारे कुछ पल यूँ ही खड़ा रहा, जैसे अभी-अभी कोई ज़िंदगी का तमाचा मार कर चला गया हो। सड़क पर चलती गाड़ियों की आवाज़ें उस के लिए शोर नहीं, एक अजीब सी ख़ामोशी बन चुकी थीं। उस ने जेब से अपना फोन निकाला — थोड़ा वक्त लिया, फिर अपने ड्राइवर को कॉल लगाया। आवाज़ आने पर बस एक शांत और थके हुए लहजे में बोला, “लोकेशन भेज रहा हूँ… मुझे आकर पिक कर लो।”

बात करते हुए उसकी नज़र अब भी उस दिशा में थी, जिधर से सुहानी की कार धूल उड़ाती हुई ग़ायब हो चुकी थी। कुछ कहने को बचा नहीं था।शायद कुछ करने को भी नहीं। लोकेशन भेजने के बाद उस ने फोन जेब में रख दिया, और धीमे क़दमों से पास की दीवार के सहारे जा कर खड़ा हो गया।

हवा में एक अजीब सी ठंडक थी, या शायद वो उस के भीतर से उठती हुई मायूसी थी…जिसने पूरी फिज़ा को बोझिल कर दिया था। कुछ देर बाद जब ड्राइवर आया, विक्रम चुपचाप गाड़ी में बैठ गया। 

ड्राइवर ने पूछा, “साहब, राठौर एंड संस चलें?”

विक्रम ने एक पल आँखें बंद कीं, फिर बुझे हुए स्वर में कहा— “नहीं... अपने ऑफिस चलो।”

कभी-कभी इंसान न रिश्ते जीत पाता है, ना लड़ाई — बस खुद से हार जाता है। और आज, विक्रम ठीक वैसा ही महसूस कर रहा था।

 

क्या सुहानी विक्रम के साथ सही कर रही है? 

विक्रम उसे कभी सच बता पायेगा? 

जानने के लिए पढ़ते रहिये, रिश्तों का क़र्ज़।

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