दिल्ली पहुंचने के बाद…
गाड़ी हवेली के बड़े गेट के सामने आकर रुक गई। ऊँची-ऊँची दीवारों के पीछे फैली यह आलीशान हवेली, जितनी खूबसूरत दिख रही थी, उतनी ही रहस्यमयी लग रही थी। हल्की रोशनी में नहाया यह भव्य महल किसी ऐतिहासिक किले की तरह लग रहा था, जहाँ हर ईंट एक अनकही दास्तान सुना रही थी। विशाल गेट धीरे-धीरे खुला, और अंदर का नज़ारा देखते ही सुहानी के दिल में एक अजीब-सी बेचैनी ने घर कर लिया।
अंदर दोनों तरफ गार्ड्स खड़े थे, जो एक अनुशासित सैनिकों की तरह नज़र आ रहे थे। हवेली के विशाल आंगन को सजाती हुई विदेशी फूलों की क्यारियां, संगमरमर की नक्काशीदार फर्श और सुनहरी रोशनी में जगमगाता फाउंटेन किसी राजमहल का एहसास दिला रही थी। हर चीज़ इतनी व्यवस्थित थी कि मानो जैसे ये जगह हमेशा भव्य आयोजनों के लिए तैयार ही रहती हो। लेकिन इस अद्भुत नज़ारे में भी एक अजीब-सा ठहराव था—एक गहरी शांति, जो किसी तूफान के आने से पहले की खामोशी जैसी थी।
आरव ने बिना कुछ कहे गाड़ी का दरवाज़ा खोला और बाहर निकल गया। सुहानी कुछ सेकंड तक वहीं बैठी रही, उसकी उंगलियाँ अनजाने में उसकी साड़ी के पल्लू को मरोड़ रही थीं। उसकी आँखों में अनगिनत सवाल थे—यहाँ उसकी क्या जगह होगी? क्या इस घर के लोग उसे कभी भी अपना पाएंगे?
फिर भारी मन से खुद को समझाने और हिम्मत देने के बाद उसने गाड़ी से बाहर अपने कदम रखे। उसकी नज़रे खुद-ब-खुद हवेली के मुख्य दरवाज़े पर जा टिकी, जहां एक गुरुर से भरी महिला खड़ी थी—राठौर परिवार की मुखिया, गौरवी राठौर।
गौरवी राठौर की आँखों में एक अजीब-सा ठहराव था। उन्होंने सुहानी को ऊपर से नीचे तक देखा और बिना कोई भावना जताये, कहा, “तुम्हारा स्वागत है, बहू।”
उनके शब्दों में अपनापन कम, फॉर्मेलिटी ज़्यादा थी।
आरव ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। वह सीधा अंदर चला गया, जैसे उसके लिए यह सब normal ही था।
"चलो, अंदर आ जाओ," गौरवी ने सुहानी से कहा।
सुहानी के लिए इस हवेली में कदम रखना किसी युद्ध भूमि में जाने जैसा था। उसे लग रहा था कि यह कोई नया घर नहीं, बल्कि एक कैदखाना है। लेकिन उसके पास कोई और रास्ता नहीं था।
राठौर हवेली के अंदर…
जैसे ही वह अंदर आई, उसके आस पास के हर चीज़ की भव्यता ने उसे घेर लिया। सोने की नक्काशी किए हुए खंभे, ऊँची छतों पर टंगे हुए अद्भुत झूमर, मखमली कालीन और विदेशी मूर्तियों से सजा विशाल हॉल—यकीनन यह किसी महल से कम नहीं था।
लेकिन इस ऐशो-आराम में भी एक ठंडापन सा था, कुछ खोखला सा, इस परिवार के लोग औरों से बहुत अलग थे।
"तुम्हारे लिए कमरा तैयार है। नौकर तुम्हें वहाँ ले जाएंगे," गौरवी ने बस इतना ही कहा और बिना कोई और बात किए वो वहां से चली गई।
सुहानी ने एक नज़र आरव पर डाली, लेकिन उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। वह बस सीढ़ियां चढ़कर ऊपर चला गया, जैसे उसकी नई दुल्हन की मौजूदगी उसके लिए कोई मायने ही नहीं रखती।
पहली रात – अजनबी के साथ…
कमरे का दरवाज़ा अंदर से बंद करने के बाद, सुहानी ने एक गहरी सांस भरी, यह कमरा भी बाकी हवेली की तरह ही खूबसूरत था—एक ओर केवल शीशे की दीवार थी, जिसके उस पार स्विमिंग पूल था, महंगे फर्नीचर से सजा हुआ कमरा, और एक आलीशान बेड, यह कमरा किसी राजा-महाराजा के कमरे जैसा ही था।
लेकिन इस खूबसूरती में उसे कोई अपनापन नज़र नहीं आ रहा था, उसे ऐसा लग रहा था जैसे, इतने बड़े महल में भी उसके लिए कोई जगह नहीं है।
वह अपने दुपट्टे को कसकर पकड़े हुए खिड़की के पास गई और बाहर का दृश्य देखने लगी। अंधेरे में हवेली की बाउंड्री से बाहर का शहर दूर-दूर तक रोशनी से जगमगा रहा था।
"कैसा लगेगा जब कोई परिंदा सोने के पिंजरे में कैद हो जाए?" उसने धीमे से खुद से कहा।
“तो अब तुम्हें अफ़सोस हो रहा है?”
किसी ने तंज कस्ते हुए कहा।
सुहानी ने चौंककर पीछे देखा।
आरव दरवाज़े के पास ही खड़ा था। वो अपने ख्यालों में इस तरह से खोई हुई थी, कि उसे दरवाज़ा खुलने का आभास भी नहीं हुआ।
आरव अपने कोट के बटन खोलते हुए अंदर आया। उसने सुहानी की ओर एक पल के लिए देखा, फिर उसकी नज़र उसके फोन पर चली गई।
"अगर तुम्हें किसी चीज़ की ज़रूरत हो, तो नौकरों को बोल देना," उसने बेरुखी से कहा।
उसके रूखेपन से सुहानी का दिल कुछ दुख सा गया।
सुहानी उसकी आँखों में देखना चाहती थी—अपने मन में उठ रहे सवालों के जवाबों को ढूंढना चाहती थी, लेकिन वहां सिर्फ सूनापन था।
"क्या आपके लिए यह शादी सिर्फ एक समझौता है?" उसने धीमी लेकिन दृढ़ आवाज़ में पूछा।
आरव ने फोन नीचे रखा और उसकी तरफ देखा।
"हां," उसने सीधा जवाब दिया।
"तो फिर मुझे क्यों फंसाया इस रिश्ते में, मैं कभी अपने लिए एक समझौते से भरा रिश्ता नहीं चाहती थी?" ये कहते वक़्त उसकी आवाज़ हलकी सी काँप उठी।
आरव कुछ सेकंड तक चुप रहा, फिर वह धीरे से मुस्कुराया।
“तुम इस रिश्ते में फंसी नहीं हो, सुहानी। तुमने खुद इसे चुना है। तुम्हें कोई यहां ज़बरदस्ती नहीं लाया।”
"चुना?" उसके कानों को आरव की कही बातों पर भरोसा नहीं हो रहा था। "जब कोई खाई के किनारे खड़ा हो और उसके पास पीछे हटने का कोई रास्ता ना हो, तो क्या कुएं में छलांग लगाने को “चुनना” कहेंगे? मेरे पास कोई और रास्ता ही कहां बचा था?" सुहानी के अंदर, गुस्से की आग में उसका दिल जल रहा था।
आरव ने उसकी आँखों में देखा। लेकिन उसकी आँखों में पनप रहे खुद के लिए नफरत को वो ज़्यादा देर बर्दाश्त नहीं कर पाया। उसने अपनी नज़रें, फिर से फ़ोन देखने के बहाने झुका लीं।
“हर किसी के पास रास्ते होते हैं। बस कुछ रास्ते आसान होते हैं और कुछ मुश्किल। तुमने आसान रास्ता चुना—अपने परिवार के लिए।”
सुहानी की धड़कने तेज़ होने लगी थीं। वो इस रिश्ते के हक़ीक़त से रूबरू हो रही थी।
“अगर आपकी ज़िंदगी में मेरी कोई जगह ही नहीं, तो फिर आपने यह शादी क्यों की?”
आरव ने गहरी सांस ली।
“क्योंकि मेरे पास भी कोई और रास्ता नहीं था।”
सुहानी की साँसें तेज़ हो चुकी थीं।
“किसने मजबूर किया आपको?”
आरव ने उसकी तरफ देखना भी गवारा नहीं समझा, जैसे उसका सवाल बिल्कुल बेकार हो।
“कुछ सवालों के जवाब न दिए जाएँ, तो बेहतर होता है।”
"लेकिन ये मेरी पूरी ज़िंदगी का सवाल है, आरव!" उसने पहली बार ऊँची आवाज़ में कहा।
आरव ने एक नज़र उसे देखा।
"तुम्हारी ज़िंदगी?" उसने हँसते हुए उसे ताना मारा। “तुम्हारी ज़िंदगी अब तुम्हारी नहीं रही, सुहानी। इसे तय करने का हक़ तुमने अपने परिवार के साथ इस हवेली के दरवाज़े के बाहर ही छोड़ दिया था।”
उसके शब्द बर्फ से भी ज्यादा ठंडे थे।
एक रिश्ता, जिसमें सुहानी की कोई जगह नहीं।
सुहानी ने महसूस किया कि इस आदमी के भीतर कोई तूफ़ान छुपा है, लेकिन वह उसे बाहर आने नहीं देना चाहता।
“अगर आपके लिए यह शादी सिर्फ़ एक बोझ है, तो फिर आप इसे झेल क्यों रहे हैं?”
आरव ने उसकी तरफ़ देखा, उसकी आँखों में अब हल्की चुभन थी।
“तुम्हें लगता है, मुझे इससे कोई फर्क पड़ता है?”
उसकी आवाज़ इतनी बेरुखी थी कि सुहानी को अपनी उंगलियां ठंडी पड़ती हुई महसूस हुईं।
“ये रिश्ता जैसा बेजान है, बस वैसा ही रहेगा। तुम्हारी उम्मीदें तुम्हें ही तकलीफ देंगी, मुझे नहीं।"
“आप मुझे इस हवेली में सिर्फ़ नाम के लिए रख रहे हैं, है ना?”
आरव एक पल को रुका, फिर आगे बढ़ा।
"अगर तुम्हें कोई गलतफहमी है, तो उसे यहीं खत्म कर लो।" उसने सुहानी के बिल्कुल पास आकर कहा, उसकी आवाज़ धीमी लेकिन गंभीर थी। “तुम मेरे लिए कुछ नहीं हो, सुहानी। न यह रिश्ता मेरे लिए कुछ मायने रखता है, न तुम।”
सुहानी ने खुद को संभालने की कोशिश की, लेकिन उसके भीतर कुछ टूट गया था।
“तो फिर आपने यह शादी क्यों की?”
आरव ने हल्का सिर झटकते हुए जवाब दिया।
“क्योंकि इस रिश्ते से मुझे कुछ हासिल करना था।”
अब सुहानी की आँखों में नमी नहीं, बल्कि गुस्सा था।
“और अगर मैं इस रिश्ते को बदलना चाहूँ?”
आरव ने एक पल को उसे देखा, फिर हल्की मुस्कान दी—एक ऐसी मुस्कान, जो हद से ज्यादा खाली थी।
“फिर तुम खुद को जलाने के लिए तैयार रहो।”
कमरे में सन्नाटा पसर गया।
लेकिन इस बार, यह सन्नाटा सिर्फ़ एक रात का नहीं था।
यह किसी तूफान के आने की आहट थी।
अगली सुबह – नई शुरुआत या नई साज़िश?
सुबह होते ही हवेली में हलचल मच गई। नौकर-चाकर हर जगह दौड़ रहे थे, कुछ खास मेहमानों के स्वागत की तैयारियां कर रहे थे।
सुहानी ने अपने कमरे की खिड़की से नीचे झांका। चार काले SUV गेट के अंदर आ रहे थे।
“ये लोग कौन हो सकते हैं?” सुहानी ने खुद से कहा।
तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई।
"मेमसाब, बाऊजी ने आपको नीचे बुलाया है," एक सेवक ने कहा।
सुहानी का दिल एक बार फिर किसी अनहोनी की आशंका से ज़ोर ज़ोर से धड़कने लगा।
“जी।” उसने गहरी सांस भरते हुए कहा।
नीचे उतरते ही उसकी नज़र सामने बैठे इंसान पर गई,दिग्विजय राठौर—आरव के चाचा। उनकी आँखों में, एक अजीब-सी चालाकी थी।
"तो तुम ही हो नई बहू?" उन्होंने आँखें सिकोड़ते हुए कहा।
सुहानी ने हल्की सी 'हाँ' में सिर हिला दिया।
दिग्विजय ने हंसते हुए कहा, “आशा करता हूँ कि तुम्हें यहां रहने में कोई परेशानी नहीं हो रही होगी। लेकिन अगर हो भी रही हो, तो धीरे-धीरे आदत डाल लो। क्योंकि यहाँ पर हर चीज़ राठौर परिवार के नियमों के हिसाब से ही चलती है।”
सामने सोफ़े पर बैठी, गौरवी ने भी समर्थन में सिर हिलाया।
"इस परिवार में तुम्हारी जगह क्या होगी, यह तुम्हारी समझदारी पर निर्भर करता है," उन्होंने अपने सुहानी को उसकी जगह बताते हुए उससे कहा।
सुहानी ने आरव की ओर देखा। वह चुपचाप वहीं खड़ा था, जैसे इस बातचीत से उसका कोई लेना-देना ही न हो।
"क्या आप लोग मुझसे कुछ कहना चाहते हैं?" सुहानी ने हिम्मत करके पूछा।
दिग्विजय ने मुस्कुराते हुए कहा, “हां, तुम्हारी परीक्षा शुरू हो चुकी है, बहू। अब देखना यह है कि तुम राठौर परिवार के नाम के लायक साबित होती हो या नहीं।”
कमरे में एक अजीब सा सन्नाटा छा गया।
तभी एक हल्की सी खिलखिलाहट से पूरा हॉल गूंज उठा। सुहानी ने अपनी नज़रें उठा कर सामने खड़े इंसान को देखा—एक लड़की, लंबी, खूबसूरत, आत्मविश्वास से भरी हुई। उसकी चाल में एक अजीब सा गुरूर था।
"ओह, तो ये हैं हमारी नई दुल्हन?" लड़की ने मुस्कुराते हुए कहा।
सुहानी को उसकी आँखों में एक अजीब सी बात दिखी। वो हंसती तो बहुत थी, लेकिन उसकी हंसी कभी उसकी आँखों तक नहीं पहुंचती थी, उसकी आँखों में एक अजीब सी अशांति थी।
सुहानी ने फिर सवालों भरी नजरों से आरव की ओर देखा। आरव का चेहरे पर कोई emotions नहीं थे, लेकिन उसकी आँखों में हल्की सी बेचैनी दिख रही थी।
"मीरा," गौरवी ने कहा, “अब समय आ गया है कि तुम अपनी जिम्मेदारियों को समझो।”
कैसी ज़िम्मेदारियां…
"बिल्कुल," मीरा ने हंसते हुए कहा, “मुझे तो नई बहू से मिलने की इतनी बेचैनी थी कि मैं खुद को रोक ही नहीं पाई।”
सुहानी के दिमाग में सवाल उमड़ने लगे। ये लड़की कौन है? और ये इस घर में क्या कर रही है? इसका इन लोगों से क्या रिश्ता है?
तभी दिग्विजय राठौर ने कहा, “बहू, ये मीरा है। आरव की बहुत पुरानी… दोस्त।”
"पुरानी दोस्त?" सुहानी ने मन ही मन दोहराया। लेकिन मीरा और आरव के बीच की केमिस्ट्री कुछ और ही कहानी कह रही थी। वो जब से आईं थीं, तब से आरव के आव भाव बदल से गए थे।
"मुझे तुमसे मिलकर अच्छा लगा, सुहानी," मीरा ने मुस्कुराते हुए कहा। लेकिन उसकी मुस्कान में एक रहस्य छुपा था।
सुहानी को मीरा अजीब सी महसूस हुई। जैसे वो इस घर के राज़ का बहुत ही एहम पहलु है। कुछ था जो उसे इस घर के बारे में परेशान कर रहा था। उसने आरव की तरफ देखा, लेकिन आरव की आंखों में वही रूखापन था। वह अब भी चुप था।
कमरे में एक असहज शांति थी। कुछ था, जो अनकहा था। और सुहानी को ये एहसास होने लगा था कि उसकी परीक्षा सिर्फ शुरू हुई थी।
मीरा की रहस्यमयी मुस्कान और दिग्विजय राठौर के तीखे शब्दों ने सुहानी के दिल में घर कर लिया।
लेकिन सुहानी इस बारे में ज़्यादा सोच पाती उससे पहले ही बाहर से आने वाली गाड़ियों की आवाज़न ने सबका ध्यान अपनी ओर खींच लिया।
गौरवी राठौर ने एक नजर सुहानी पर डाली, उनकी आँखों में वही ठहराव था—जो एक सख्त सास और एक चालाक खिलाड़ी की आँखों में होता है।
"तीन दिन बाद तुम्हारे और आरव के लिए रिसेप्शन पार्टी रखी है," उन्होंने सीधे शब्दों में कहा। उनकी आवाज़ में वही शाही गुरुर था, जो केवल आदेश देता है।
"रिसेप्शन?" सुहानी ने धीरे से दोहराया। उसे इस बारे में कुछ नहीं बताया गया था।
"हाँ, और तुम्हें यह सुनिश्चित करना होगा कि यह आयोजन राठौर परिवार के स्तर के अनुरूप हो। बहुत से मेहमान आने वाले हैं—बिजनेस पार्टनर्स, राजनीतिक हस्तियाँ, और हमारे करीबी रिश्तेदार। तुम्हारी भूमिका सिर्फ आरव के साथ खड़े रहने की नहीं है, बल्कि इस परिवार की बहू के तौर पर अपनी जगह साबित करने की भी है," गौरवी ने हुकुम देते हुए कहा।
आरव अब भी चुप था। न उसने इस बारे में कोई राय दी, न ही कोई एतराज जताया।
सुहानी ने एक गहरी सांस ली। उसे महसूस हो रहा था कि यह केवल एक स्वागत समारोह नहीं था, बल्कि एक परीक्षा थी। उसको पहली परीक्षा। इस परिवार में उसकी क्या जगह होगी, यह बात उस रिसेप्शन की रात तक तय हो जायेगी।
लेकिन यह सिर्फ एक शुरुआत थी।
राठौर हवेली के राज़ अब धीरे-धीरे उसके सामने खुलने वाले थे।
आगे क्या होगा?
क्या सुहानी इस खेल में अपनी जगह बना पाएगी? या फिर वो हमेशा के लिए इस सोने के पिंजरे में फंसा परिंदा बन कर रह जायेगी, जिसके पर कुतर दिए जाते हैं।
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