कमरे की खिड़की से, डूबते हुए सूरज की लालीमा, आरव और सुहानी के शादी की तस्वीर पर चेहरे पर, पड़ रही थी। 

“हाँ, लेकिन उस दिन...” सुहानी की आँखें सामने दीवार पर टिक गईं, जैसे कोई धुंधली याद उसकी पलकों पर उतर आई हो। “जब उन्हें होश आया था... और मैं दौड़ती हुई उस कमरे में पहुँची थी — इस उम्मीद में कि जैसे ही वो मुझे देखेंगे, उनका चेहरा खिल उठेगा। मुझे लगा था कि जितनी मैं उन्हें देखने के लिए बेताब थी... वो भी उतने ही बेचैन होंगे। मेरे दिल में एक उम्मीद थी — कि अब रणवीर, गौरवी और दिग्विजय का झूठा खेल खत्म होने वाला है। कि अब आरव, मेरे होंगे, और मैं उनकी, फाइनली।"

उसकी आँखें अब भीगी हुई थीं, पर आवाज़ स्थिर थी — “मगर उस एक पल में... जब मैंने उनकी आँखों में अपने लिए वो अजनबीपन देखा…वो डर, वो घबराहट... जैसे मैं कोई पराई हूँ। जैसे मैं कोई खतरा हूँ। उस पल ने मुझे अंदर से पूरी तरह तोड़ दिया था, मीरा। क्योंकि मैं समझ चुकी थी…कि मैंने उन्हें फिर से खो दिया है।"

उसने अब मीरा की ओर देखा, जैसे अपनी बातों में उसकी मौन गवाही चाहती हो।

"फिर उन्होंने तुम्हारा हाथ ऐसे कस कर थाम लिया था, जैसे मैं उन्हें कोई चोट पहुँचाने आई हूँ। जैसे मेरा वहां होना ही उनकी तकलीफ़ बन गया हो। उनकी नज़रें... मुझसे दूर हट गई थीं, जैसे मेरी सूरत देखना भी उन्हें असहनीय हो।"

सुहानी की आवाज़ अब भर्रा गई थी — "उस पल में मेरा दिल बस यही सोच कर तड़प उठा था कि काश... उस हाथ की जगह मेरा हाथ होता। काश... मेरी उंगलियाँ होतीं, जो उन्हें सुकून देतीं। क्योंकि मैं तो... बस उन्हें छूने के लिए तरस गई हूँ, मीरा।"

एक गहरी साँस लेकर उसने अपना दर्द थामा — "मगर फिर मैंने खुद को समझाया। कि शायद अब मेरा हाथ उनके घाव नहीं भर सकता... शायद अब मैं उनका सहारा नहीं बन सकती। और उस दिन से... मैं बस इस बात से सुकून लेती हूँ कि उन दरिंदों के बीच... कोई तो है, जो उनके पास है…कोई ऐसा, जिसे सच में उनकी परवाह है। वो तुम हो मीरा... और यही मेरे लिए काफी है।”

मीरा चुपचाप सुहानी की आँखों में झाँक रही थी। उन आँखों में न कोई शिकायत थी, न कोई आरोप… सिर्फ सच्चा दर्द और निस्वार्थ प्रेम था। मीरा के होंठ काँप उठे।

“इतना सब सहने के बाद भी, इस लड़की के दिल में कोई कड़वाहट नहीं है…” — उसने मन ही मन सोचा।

एक गहरी साँस लेकर, वो हल्के से मुस्कुराई।

“सुहानी… तुम्हारी बातें सुन कर… न जाने क्यों एक सुकून सा महसूस हुआ। जैसे दिल पर से कोई बोझ उतर गया हो। मैं वादा करती हूँ, आरव का पूरा ध्यान रखूँगी। तुम्हारी जगह कभी कोई नहीं ले सकता, लेकिन जब तक वो खुद तुम्हारे पास लौटकर नहीं आता, तब तक मैं उसके हर दर्द में उसके साथ रहूँगी।”

फिर उसने अपनी जेब से मोबाइल निकाला, और स्क्रीन पर शमशेर राठौर का नाम उभरते ही मुस्कुरा दी।

“देखो,” मीरा ने फोन सुहानी की ओर बढ़ाया, “शमशेर अंकल तुम से बात करने के लिए बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं। उन्होंने कितनी बार पूछा है तुम कैसी हो, तुम कब बात करोगी। अब देर मत करो… अपने ससुराल के उस एक इंसान से बात कर लो, जो अब तुम्हें अपनी बेटी मान बैठे हैं।”

सुहानी की आँखें एक बार फिर भीग गईं, मगर इस बार वो आँसू राहत के थे। उसने हल्के से सिर हिलाया, मीरा के हाथ से फोन लिया और काँपती उँगलियों से कॉल बटन दबा दिया। दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा। एक-एक सेकेंड किसी युग सा भारी लगने लगा। और फिर…

“हेलो…” वो भारी, गूंजती हुई मगर स्नेह से भरी आवाज़ सुनाई दी।

सुहानी की आँखों से आँसू बहने लगे, मगर उसके होठों पर एक नर्म मुस्कान तैर उठी, “हेलो… पापा।”

उस एक शब्द में मानो सारे रिश्ते फिर से जीवित हो उठे। एक टूटा रिश्ता, एक अधूरी पहचान — फिर से जुड़ने की कोशिश। शमशेर राठौर की आवाज़ कुछ पल को थमी… मानो वो यकीन ही नहीं कर पा रहा हो कि सुहानी ने उसे पापा कह कर पुकारा।

“बेटा…” उनकी आवाज़ भर गई, “तू ठीक है न? मैंने कई बार मीरा से पूछा, पर दिल को तसल्ली नहीं मिलती थी जब तक तुझसे खुद बात न कर लूँ।”

सुहानी की आँखों से फिर आँसू बहने लगे। “मैं ठीक हूँ, पापा,” उसने धीमे से कहा।

शमशेर कुछ पल खामोश रहे, फिर बोले, “मैं जानता हूँ, बहुत कुछ हुआ है… और सबसे ज़्यादा ग़लती मेरे बेटे की है। वो जो कुछ भी कर बैठा है… उसके लिए एक बाप की तरफ़ से मैं माफ़ी माँगता हूँ। शायद ये काफी नहीं है, लेकिन दिल से मैं बस माफ़ी माँगना चाहता हूँ।”

सुहानी की आवाज़ भर आई — “प्लीज़ पापा… आप ऐसा मत कहिए। आप ही तो इस अंधेरे में मेरे लिए एक रोशनी जैसे हैं। आपके शब्दों में वो अपनापन है, जो मुझे अब भी जीने की हिम्मत देता है।”

शमशेर की साँस भारी हो गई, “आरव… बहुत ज़्यादा टूटा हुआ है, सुहानी। उसके अंदर जो ज़हर भरा गया है, उसने उसे खोखला कर दिया है। लेकिन अब जब वो वहां है… और तुम भी उसके पास हो… शायद यही मौका है उस ज़हर को साफ़ करने का।”

सुहानी कुछ पल चुप रही… फिर ठहरते हुए बोली, “पापा… अभी नहीं। अभी मुझे उस प्लान को रोकना होगा… जब तक आरव को सब याद नहीं आ जाता।”

शमशेर हैरान हुए, “क्या मतलब?”

“मतलब ये, कि जब तक वो खुद होश में आकर अपने दिल की आवाज़ नहीं सुन लेते… तब तक उन्हें कोई और रास्ता दिखाना बेमानी होगा। जब तक वो खुद अपने डर, अपने झूठ और अपनी ग़लतफहमियों से लड़ने को तैयार नहीं हो जाते… तब तक मैं कुछ नहीं कर सकती।”

उसने गहरी साँस ली, और फिर धीमे से आगे जोड़ते हुए एक बात कही। “मुझे बस यक़ीन है… कि जब उनको सब याद आ जाएगा, तब शायद… एक नई शुरुआत की जा सकती है।”

फोन कटने से पहले शमशेर की आवाज़ धीमे से आई — “तेरी इस सोच ने मुझे गर्व से भर दिया है, बेटी। तू न सिर्फ़ इस खानदान का गर्व है… बल्कि शायद इसके घावों की दवा भी है।”

फोन कट गया।

मीरा धीरे-धीरे सुहानी के पास आई और बोली, “अब क्या?”

सुहानी ने पहली बार ठहरकर मुस्कुराया — एक थकी, मगर सच्ची मुस्कान।

“अब… इंतज़ार करेंगे, मीरा। आरव को सब कुछ याद आने का, सच के सामने आने का, और उस प्यार के लौटने का…जिसे किसी ने ज़हर से बुझाने की कोशिश की है।”

बरसात की नर्म बूँदें खिड़की से टकरा रही थी, और कमरे के भीतर एक असामान्य सन्नाटा पसरा हुआ था। बाहर मौसम भी जैसे सुहानी की बेचैनी से वाकिफ था। हल्की पीली रोशनी में डूबी उस कमरे की हर चीज़ स्थिर थी — सिवाय उसके दिल की धड़कनों के, जो हर पल तेज़ होती जा रही थीं।

वो बिस्तर के कोने पर बैठी थी, काजल की पुरानी डायरी को सीने से लगाए — जैसे वो कोई किताब नहीं, बल्कि माँ के अधूरे ख्वाबों की थमी हुई साँसें हों। डायरी का कवर थोड़ा फटा हुआ था, और उसमें से अब भी उस पुराने perfume की हल्की सी खुशबू आ रही थी, जो कभी काजल लगाया करती थी।

सुहानी की उंगलियाँ कांप रही थी। डायरी खोलने का साहस तो उस में था, लेकिन हर शब्द पढ़ने का मनोबल जैसे टूटने लगा था। फिर भी उसकी आँखों में अडिग ठहराव था — अब पीछे लौटने का कोई रास्ता नहीं था।

“अब इस डायरी में लिखा हर शब्द शायद इस लड़ाई के कुछ और पहलू को सुलझा पायेगा...” उसने धीमे से डायरी की दूसरी entry का पहले पन्ना खोला।

डायरी एंट्री “22 जनवरी...”

आज उस भयानक दिन की यादें फिर से ज़हन में ताज़ा हो गईं हैं। हम — मैं और मन्दिरा — आज तय करके निकले थे कि अब और चुप नहीं रहेंगे। आज हम दिग्विजय को जाकर सबकुछ बता देंगे —  के इरादों से लेकर उन सब राज़ों तक, जो रणवीर ने अब तक छुपा कर रखे हैं।

लेकिन... रास्ता इतना सीधा नहीं था। हमने जैसे ही शहर की सीमा पार की, गाड़ी के टायर में कुछ चुभने की आवाज़ आई। गाड़ी हिचकोले खा कर धीमी हुई और आखिरकार एक किनारे रुक गई।

मैं बाहर निकली ये देखने के लिए कि क्या गड़बड़ हुई है, तभी पीछे से एक कार में हलचल सी हुई। मैंने पलटकर देखा — और वही था… रणवीर। वो तेज़ी से मेरी तरफ आ रहा था। मेरे कुछ समझने या मन्दिरा को सतर्क करने से पहले ही, किसी ने पीछे से आकर मेरे मुँह पर हाथ रख दिया।

मैं चीखना चाहती थी, लेकिन आवाज़ गले में ही घुट गई। मैं छटपटाई, तड़पी, मगर किसी ने नहीं सुनी। उन्होंने मुझे उठाया और जबरन पास खड़ी दूसरी गाड़ी में डाल दिया। मैं लगातार विरोध करती रही… और फिर…

एक धमाका…एक ऐसा धमाका जिसने सबकुछ बदल दिया। बहुत ज़ोर का धमाका हुआ — मेरे शब्द, मेरी सुनने की ताकत… सब सुन्न हो गए। मन्दिरा…वो उस गाड़ी में थी। अकेली… अपने बेटे को अकेला छोड़ कर… वो अब इस दुनिया से चली गई। मैं अभी उस सदमे से बाहर भी नहीं आई थी कि किसी ने मेरी गर्दन में कुछ चुभोया — एक इंजेक्शन।

अगले ही पल मेरी आँखें भारी हो गईं और फिर सब अंधेरा। जब होश आया, तो मैं एक अनजान कमरे में थी। मेरे पास सिर्फ मेरा पर्स था, और उस पर्स में बस यही एक डायरी। मुझे नहीं पता रणवीर ने मुझे यहाँ क्यों रखा। जब मुझे मन्दिरा की मौत की याद आई — मैं कांप उठी।

आज दिन में मैंने चार घंटे तक उस बंद दरवाज़े को पीटा, चीखी, पुकारा, पर किसी ने दरवाज़ा नहीं खोला। और जब आखिरकार दरवाज़ा खुला…वो सामने खड़े थे — शमशेर राठौर। मेरी पुरानी सहेली पूर्वी के पति, जिन्हें हम सबने मरा हुआ समझा था। मैं उन्हें देख कर स्तब्ध रह गई। क्या ये भी रणवीर के साथ मिले हुए हैं? लेकिन फिर सच्चाई सामने आई।

जब रणवीर ने मुझे बेहोश किया था, तो वो खुद बाहर गया था यह देखने कि मन्दिरा की मौत पक्की हुई या नहीं… और तभी हुआ — दूसरा धमाका। वो भी घायल हुआ, बेहोश हो गया। और उसी समय शमशेर जी और उनके दो आदमी आए। उन्होंने कार पर हमला किया और मुझे वहाँ से निकाल कर यहाँ ले आए।

तब से मैं यहीं हूँ। मेरे पास बस मेरा पर्स है… और मेरी डायरी। हमें नहीं पता अब आगे क्या करना है। लेकिन एक बात साफ़ है — अब मैं भी, शमशेर जी की तरह, इस दुनिया की नज़रों से गुम हो चुकी हूँ। शायद यही हमारे लिए सही भी है।

पर मंदिरा को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा…और मेरे दिल में अब भी एक सवाल कौंधता है…मेरी बेटी… और मंदिरा का बेटा… उसका क्या होगा? मैं बहुत जल्द उन्हें देखने जाऊँगी।

इस समय शमशेर जी बाहर बैठे हैं — मेरी ही तरह, उलझनों के बोझ से दबे हुए। लेकिन मुझे यकीन है… हमारे बीच एक बात समान है — हम दोनों अपने बच्चों के लिए जी रहे हैं।

– काजल

 

उसके हाथों में माँ की डायरी थी, और उसके भीतर उठते तूफ़ान अब धीरे-धीरे एक स्पष्ट दिशा लेने लगे थे। हर पंक्ति, हर शब्द उसकी आत्मा को झकझोर रहे थे।

“मतलब... माँ ने जानबूझकर मुझे राठौर हवेली से दूर रखा?”

“क्या, बाउजी जानते थे की माँ ज़िंदा हैं?” उसने खुद से पूछा।

“और अब मैं उसी घर की बहू बन गई?”

कितनी विडंबना थी... जिसे माँ ने अपने सीने से लगाकर हर तूफ़ान से बचाया, वही आज उन्हीं हवाओं में उलझ चुकी थी जहाँ दर्द, धोखा और साज़िशें सांस लेती थीं। उसके हाथ काँपते हुए अगले पन्ने की ओर बढ़े। डायरी के अगले पन्ने पर लिखा था,

"शमशेर कभी बुरा इंसान नहीं था... उस से हमेशा सच को छुपाया गया। पूर्वी की मौत, गौरवी की जलन, दिग्विजय की सत्ता की भूख — इन सबने उस हवेली को एक जिंदा क़ब्रिस्तान बना दिया।

रणवीर को मैं उस बदले की आग से नहीं बचा सकी… और मन्दिरा को खो देना मेरे जीवन का सबसे बड़ा बोझ बन गया। पर मेरी बेटी… मैंने उसे उस अंधेरे से दूर रखा। मैंने उसे उजाले में पाला, सच्चाई से बचाकर। अब वक़्त है — सच सामने लाने का। शायद मैं दुनिया की नज़रों से ग़ायब हूं, पर मेरी कलम, मेरी बेटी को रास्ता दिखाएगी।"

पन्ना बंद होते ही, सुहानी उठ खड़ी हुई। उसके चेहरे पर आंसुओं की लकीरें अब भी थीं — लेकिन अब वे आंसू कमज़ोरी के नहीं थे। अब उसकी आंखों में एक नया तेज़ था।

वो जान चुकी थी — अब उसे सिर्फ़ अपनी मां की खोई हुई सच्चाई को दुनिया के सामने लाना था, मगर अभी उसे आरव के याददाश लौटने का इंतेज़ार करना होगा…और सही वक़्त आने पर उस हवेली में दफन हर राज़ को उजागर करना होगा।

“अब मैं नहीं रुकूंगी, माँ…अब कोई और बेटी अपनी माँ से यूँ जुदा नहीं होगी — ये मेरा वादा है।”

 

आगे की कहानी जानने के लिए पढ़ते रहिये, रिश्तों का क़र्ज़।

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