अगले दिन सुबह की हल्की धूप खिड़की के पर्दों से छनकर कमरे में आ रही थी। सुहानी ने आईने में खुद को आखिरी बार देखा। सिल्क की हल्की गुलाबी साड़ी, बालों को हल्के से पीछे समेट कर बांधा गया था, चेहरे पर हल्का सा मेकअप और आंखों में एक अजीब सी बेचैनी। वो अभी तैयार होकर कमरे से बाहर निकल ही रही थी कि दरवाजे पर दस्तक हुई।

दरवाज़ा खोलते ही एक नौकर अदब से सिर झुकाकर बोला, “मैडम, सभी लोग आपका डाइनिंग हॉल में इंतज़ार कर रहे हैं।”

यह सुनते ही सुहानी का दिल ज़ोर से धड़कने लगा। हलक सूखने लगा था और मन में एक बेचैनी की लहर दौड़ गई।

“अरे... अब क्या हुआ?” उसने खुद से बुदबुदाते हुए अपनी किस्मत को कोसा। उसके स्वर में थकावट भी थी और डर भी।

नौकर के पीछे-पीछे वह धीमे क़दमों से सीढ़ियाँ उतरने लगी। हर कदम जैसे भारी होता जा रहा था। दिमाग़ में हज़ार सवाल गूंज रहे थे—आख़िर ऐसा क्या हुआ कि सब उसका इंतज़ार कर रहे हैं? कहीं फिर से कोई अपमानजनक साज़िश तो नहीं?

जैसे-जैसे वह डाइनिंग हॉल के पास पहुंची, वहाँ से आती बातचीत और चम्मचों की टकराहट की आवाज़ें तेज़ होती गईं। दरवाज़े के पास पहुँचकर उसने एक गहरी साँस ली, अपने अंदर के डर को समेटा, और फिर भीतर कदम रखा।

डाइनिंग हॉल में राठौर हवेली की शाही ठाठ-बाट साफ झलक रही थी। लंबी सी टेबल, झूमर की हल्की सुनहरी रोशनी, और हर चेहरा एक अलग कहानी बयाँ कर रहा था।

मुख्य कुर्सी पर दिग्विजय राठौर बैठे थे—हमेशा की तरह रौबदार, चेहरे पर सख़्त भाव और आँखों में गहरी गूंजती चुप्पी। उनके एक ओर गौरवी राठौर थी, हमेशा की तरह तनी हुई गर्दन, मुस्कान में छुपी जहरीली धार और आँखों में आलोचना की चमक। दूसरी तरफ रणवीर बैठा था, शांत लेकिन उसकी उपस्थिति अपने आप में एक चुनौती थी।

गौरवी के बगल में आरव बैठा था—चेहरे पर एक सख्ती, लेकिन उसकी आँखों में कुछ और ही चल रहा था, जैसे खुद में ही उलझा हो। उसके पास बैठी थी, मीरा, अपने पूरे बनाव-सिंगार में, हमेशा की तरह आत्मविश्वास से लबरेज़, और होठों पर एक ठहरी हुई मुस्कान, जो शायद आने वाले खेल का संकेत दे रही थी। रणवीर के बगल में विक्रम था—हमेशा की तरह परिवार की हर बात पर ध्यान देने वाला, लेकिन आज कुछ ज्यादा ही चुप था।

और आज... दो और नए चेहरे भी टेबल पर मौजूद थे। दोनों अधेड़ उम्र के लोग थे, जिनके चेहरे पर अनुभव और अधिकार का मेल था। वे शायद राठौर परिवार के पुराने साझेदार या फिर कोई नए मेहमान—लेकिन उनकी मौजूदगी एक अजीब सी औपचारिकता ला रही थी माहौल में। सुहानी ने उन्हें पहले भी कहीं देखा था।

सुहानी ने सबको एक नज़र देखा। हर नज़र उस पर टिकी हुई थी—कुछ सवाल करती हुई, कुछ जज करती हुई, कुछ सख्त, तो कुछ शातिर। उसके कदम रुक से गए, लेकिन उसने खुद को संभाला और धीमी चाल में टेबल की ओर बढ़ी। माहौल में सन्नाटा सा था। जैसे कोई तूफान आने से पहले की शांति हो।

वो मीरा के माँ-बाप थे, सुहानी को अचानक से उनकी हंसी सुन कर याद आया। आज डाइनिंग टेबल पर वो भी मौजूद थे। दोनों बेहद सज-धज कर आए थे, जैसे किसी खास मौके का जश्न मनाने आये हों। मीरा की माँ के चेहरे पर एक चमक थी, और पिता के चेहरे पर गर्व और आत्मसंतोष की मिली-जुली झलक। जैसे उन्हें बरसों की तपस्या का फल मिल गया हो।

जैसे ही सुहानी ने टेबल की ओर कदम बढ़ाए, मीरा के पिता बोले, “आज आप लोगों ने ये खबर दे कर तो हमें सचमुच धन्य कर दिया, राठौर साहब। इस दिन का इंतज़ार तो हम बरसों से कर रहे थे।”

उनकी आवाज़ में आत्मीयता थी, लेकिन साथ ही साथ एक गर्व भरी लय। यह कोई साधारण बात नहीं थी, जिसे उन्होंने ‘खबर’ कहा था। यह सुनते ही सुहानी एकदम चौंक गई। उसके कदम वहीं थम से गए।

“कौन सी खबर?” उसके दिमाग़ में कई सारे विचार एक साथ कौंधने लगे। क्या ये मीरा और आरव से रिलेटेड कोई बात है? या फिर कुछ और?उसकी नज़र अनायास ही मीरा पर जा टिकी।

मीरा का चेहरा… एकदम बुझा हुआ था। जैसे सुबह-सुबह किसी ने उसके सपनों पर पानी फेर दिया हो। उसकी आँखें झुकी हुई थीं, और होंठों पर अब मुस्कान तक नहीं थी—जो कि मीरा के लिए बेहद असामान्य था। वो जो हर वक्त चमकती रहती थी, आज जैसे खुद को समेटे बैठी थी। उसकी आँखों में एक अजीब सी असहायता थी, और सबसे ज़्यादा हैरानी की बात थी—वो सुहानी से आँख तक नहीं मिला पा रही थी। वो मीरा जो सब को दिखाने के लिए, अक्सर तंज कसते हुए सुहानी की ओर घूरा करती थी, आज मानो खुद को उसके सामने बिना किसी डर के अपराधी समझ रही हो।

सुहानी के मन में और भी उथल-पुथल मच गई। बिना कोई सवाल किए, बिना किसी से कुछ पूछे, वह धीरे-धीरे चलती हुई टेबल के दूसरे छोर पर जाकर चुपचाप बैठ गई। उसका चेहरा शांत था, लेकिन भीतर बहुत कुछ चल रहा था। धीरे-धीरे बाकी लोगों की निगाहें भी उसकी ओर उठीं। दिग्विजय की आँखों में वही पुराना सख़्तपन था, गौरवी की नज़र जैसे सुहानी की प्रतिक्रिया टटोल रही हो। रणवीर गंभीर था, और विक्रम हमेशा की तरह सतर्क।

लेकिन मीरा... अब भी अपनी आँखें उठाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी। उसका चेहरा अब और भी ज़्यादा फीका पड़ गया था। और आरव…आरव का चेहरा, विपरीत रूप से, शांत और संतुष्ट था। हल्की सी मुस्कान उसके होठों पर थी, जैसे कोई बड़ी योजना अब अपने मुकाम तक पहुँचने वाली हो। उसकी आँखों में एक चमक थी—पर क्या वो जीत की थी या किसी छलावे की, ये कहना मुश्किल था।

सुहानी ने एक पल के लिए उसकी तरफ देखा। और फिर तुरंत ही नज़र फेर ली। डाइनिंग टेबल पर माहौल जितना शांत दिख रहा था, उतना ही तूफ़ानी था। शब्द कम बोले जा रहे थे, लेकिन भावनाओं की आँधी हर ओर चल रही थी।

सुहानी ने अपनी साँसों को धीमा करने की कोशिश की। माहौल में पसरे तनाव को नज़र अंदाज़ करते हुए उसने नाश्ता करने का मन बनाया। उसने चुपचाप चम्मच उठाया ही था कि— “आरव की ये झूठी शादी जैसे ही टूटेगी,” गौरवी की तेज़, आत्मविश्वास से भरी आवाज़ ने पूरे हॉल की हवा में कंपन भर दिया।

“हम फिर अगले महीने ही आरव और मीरा की शादी का ऐलान कर देंगे। दोनों बच्चे सालों से इस पल का इंतज़ार कर रहे हैं। अब और देर करना ठीक नहीं होगा।”

उसने ये बात सीधी सुहानी की आँखों में आँखें डाल कर कहा। जैसे वो बस सुहानी को ही सुनाना चाह रही थी। जैसे वो यह सुनिश्चित करना चाहती थी कि यह ज़हर पूरी तरह उसकी रूह में उतर जाए। उस पल, जैसे समय एक क्षण के लिए थम गया।

सुहानी का हाथ कांप गया। उसके हाथ से चम्मच छूट कर थाली से टकराया—आवाज़ इतनी तीखी थी कि डाइनिंग हॉल के सन्नाटे को चीरती चली गई। चम्मच के उस टकराहट में वो सारा दर्द, हैरानी और अपमान समा गया था जो सुहानी ने भीतर छुपा रखा था। और फिर... जैसे किसी ने पर्दा उठा दिया हो।

दिग्विजय के होंठों पर एक संतोषजनक मुस्कान फैल गई। गौरवी की आँखों में जीत की चमक थी, और आरव…वो हल्के से मुस्कुरा रहा था, जैसे किसी शतरंज के खिलाड़ी ने अपनी चाल चल दी हो और सामने वाला मात खाने ही वाला हो। मीरा की नज़रें अब भी झुकी हुई थीं। उसके चेहरे पर ग्लानि और घबराहट साफ झलक रही थी। विक्रम, जो हर भाव को परखने में तेज़ था, एकदम गंभीर नज़र आया। उसकी नज़रें गौरवी और आरव के बीच घूम रहीं थीं, मानो वो किसी और सच्चाई को पकड़ने की कोशिश कर रहा हो।

सुहानी के कानों में वो शब्द गूंज रहे थे—“झूठी शादी”, “बेताब हैं शादी के लिए”, “अब और इंतज़ार नहीं”।

उसके सीने में कुछ भारी होने लगा। अपमान, हैरानी और अंदर उठती सुलगती भावनाएँ—सबने एक साथ उसे जकड़ लिया। पर उस ने कुछ नहीं कहा…ना कोई सवाल, ना कोई विरोध। उसने बस अपने आँसू पलकों में ही रोक लिए और ठंडी नज़रों से एक-एक चेहरे को देखा। उसे अब समझ आने लगा था… यह सब एक पूर्व-नियोजित तमाशा था। उसे नीचे बुलाने का कारण यही था—उसकी बेइज़्ज़ती करना, उसकी कमजोरी दिखाना।

लेकिन शायद किसी ने ध्यान नहीं दिया, कि जब किसी को बार-बार तोड़ा जाए, तो एक दिन वो टूटता नहीं… बदल जाता है। सुहानी की आँखें अब स्थिर हो चुकी थीं। वो अब सिर्फ एक चेहरे को देख रही थी—आरव। और वो... चुपचाप उसी की ओर देख रहा था। जैसे उसी की प्रतिक्रिया का इंतज़ार कर रहा हो।

अचानक, आरव ने मीरा की ओर रुख किया, और सबके सामने उसका हाथ पकड़कर बड़े सम्मान और अपनेपन से उसका हाँथ चूम लिया। उस पल... सुहानी की सांसें थम गईं। उसका दिल एक बार फिर चटक कर टूट गया—उसके भीतर कुछ बिखरा ज़रूर था, मगर उसकी आँखों में आँसू नहीं थे, आग थी। 

पर सुहानी ने अपनी नज़रें नहीं झुकाईं। वो आँखें अब एक कमज़ोर लड़की की नहीं थीं—वो एक ऐसी स्त्री की थीं जिसे बार-बार तोड़ने की कोशिश की गई, मगर अब वो पत्थर बन चुकी थी। वो उठी नहीं, वो चीखी नहीं। उसने बस अपनी सधी हुई आवाज़ में, जो इतनी ठंडी थी कि गर्म चाय भी जम जाए, एक सवाल दागा—“शादी? किस की शादी? आरव और मीरा की?”

डाइनिंग टेबल पर अचानक एक खामोशी पसर गई।

“आप लोग शायद भूल गए हैं,” उसने अपनी नज़रें गौरवी, फिर दिग्विजय, और अंत में आरव पर टिकाते हुए कहा, “मैं अभी भी इनकी पत्नी हूँ। कानूनन, रीतियों से, और उस वसीयत के मुताबिक भी।”

उसकी आवाज़ में कोई डर नहीं था। बस सच्चाई का नंगा आईना था, जिसमें किसी की भी नज़र टिके नहीं। इस से पहले कि कोई जवाब देता, मीरा की माँ, जो अब तक चुप बैठी थीं, अपनी जगह से थोड़ा झुकीं और व्यंग्य से बोलीं—“हाँ, बस… एक महीने और।” उनके लहज़े में घृणा भी थी और एक अजीब संतोष भी। “उसके बाद, मेरी बेटी तुम्हारी जगह ले लेगी। वैसे भी, ये जगह शुरू से ही उसी की थी।”

वो एक क्षण को रुकीं, फिर नुकीले शब्दों में ज़हर घोलते हुए बोलीं— “ये तो तुम्हारे बाप की चाल थी, जिसने विभंश राठौर को बहला कर वो वसीयत लिखवा लिया था। वरना तुम तो इस घर की ‘बहू’ बनने के काबिल भी नहीं थी।”

ये सुनते ही हवा जैसे और भारी हो गई। हर किसी की निगाह अब सुहानी पर थी—वो क्या कहेगी? टूटेगी या ज़िद्दी बन कर खड़ी रहेगी? मगर आज की सुहानी... अब उस सुहानी से बहुत दूर जा चुकी थी, जिसे लोग बार-बार ठोकर देते आ रहे थे। उसकी खामोशी अब चीख से भी ज़्यादा असरदार थी।

सुहानी ने अपने भीतर की हिम्मत को समेटते हुए सीधा जवाब दिया, “और जिसके तहत मैं ही इनकी पत्नी रहूंगी। आखिर किसने इस शादी को तोड़ने की मंज़ूरी दी है आप लोगों को?”

उसके स्वर में कम्पन थी, लेकिन उसमें आत्म-सम्मान की एक स्पष्ट लकीर भी थी। डाइनिंग हॉल में कुछ पल के लिए सन्नाटा छा गया। तभी आरव ने अपनी कुर्सी से थोड़ा आगे झुकते हुए, बेहद ठंडी और तीखी आवाज़ में कहा—“मुझे ये शादी तोड़ने के लिए, तुम्हारी मंज़ूरी नहीं चाहिए, सुहानी। शादी दो लोगों के बीच होती है। और उसमें दोनों का खुश रहना ज़रूरी होता है।”

उसने एक पल की चुप्पी के बाद, जैसे तलवार चलाते हुए कहा—“और मैं तुम्हारे साथ खुश नहीं हूँ।”

इन शब्दों ने सुहानी को भीतर तक झकझोर दिया। उसके दिल के टुकड़े अब सिर्फ मन में नहीं—आँखों में भी दिखने लगे। उसकी उंगलियाँ कांपने लगीं, और आवाज़... जैसे किसी गहरे कुएं से निकल रही हो—“आपने कोशिश ही कहाँ की है, इस शादी को निभाने की, आरव?”

उस ने दर्द से भरी नज़रों से उसकी ओर देखा, “आप तो जानना भी नहीं चाहते कि आप मेरे साथ खुश थे भी या नहीं।”

उस के शब्दों में एक टूटी हुई पत्नी की गुहार थी—लेकिन साथ ही सच्चाई की गूंज भी। पर इस से पहले कि आरव कुछ कहता, दिग्विजय की भारी और कठोर आवाज़ पूरे हॉल में गूंज उठी—“बस! बहुत हुआ ये नाटक।”

उस ने अपनी उँगली सुहानी की ओर उठाते हुए कहा, “ज़रूरत भी नहीं है जानने की! दुनिया जानती है कि तुमने हमारे परिवार के साथ कैसे धोखे से ये रिश्ता जोड़ा है।”

उनकी आँखों में नफरत थी, और आवाज़ में तिरस्कार।

“ज़्यादा वक़्त नहीं लगेगा तुम्हारा ये नकाब उतारने में, तुम्हारे चेहरे पर सच्चाई नहीं, सिर्फ तुम्हारे बाप की चालें हैं।”

ये शब्द सुनते ही, जैसे सुहानी के पैरों तले ज़मीन खिसक गई हो। पर उसने खुद को गिरने नहीं दिया। उसने अपनी पलकों को झपकाया, गहरी साँस ली और टेबल पर रखे पानी के ग्लास को उठाया। कांपते हाथों से एक घूंट पिया, और फिर पूरे हॉल में घूमती हुई नज़रों से सब को देखा।

 

अब क्या करेगी सुहानी? 

क्या आरव और मीरा की शादी हो जाएगी? 

पूरा पासा क्या पलट जायेगा और सुहानी सच किसी के सामने नहीं ला पायेगी? 

जानने के लिया पढ़ते रहिये, रिश्तों का क़र्ज़।

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