कमरा एकदम शांत था, मगर उस ख़ामोशी में भी एक तूफ़ान पल रहा था। सुहानी की आँखें मीरा के हाथ में थमे फ़ोन पर अटक गई थीं। शमशेर अंकल उससे बात करना चाहते थे…वो पल भर को ठिठकी। फ़ोन सामने था — बस कुछ इंच की दूरी पर। लेकिन उसके हाथ…जैसे किसी अदृश्य बोझ से जकड़ गए हों। उंगलियाँ काँप रही थीं, लेकिन उठ नहीं रहीं थीं। दिल में हज़ारों सवाल, हज़ारों डर।
क्या बताऊंगी शमशेर अंकल को ?
क्या अब भी कोई उसे बचा सकता है?
या फिर आरव और मैं फिर से उन तीनो के बुने हुए इस चाल में लम्बे समय के लिए उलझने वाले हैं?
मीरा ने उसे देखा, उसकी नज़रों में अब न पहले की तरह ताने थे, न जलन…बस एक कोमल सी चिंता और सच्ची सहानुभूति थी। वो आगे बढ़ी, धीरे से सुहानी के पास बैठी। उसके काँपते कंधों पर हाथ रखा, और अपने स्पर्श से जैसे उसे थोड़ी राहत देने की कोशिश की।
“सुहानी…” मीरा की आवाज़ धीमी थी, मगर उसके शब्दों में भरपूर स्नेह था। “क्या बात है? तुम इतनी चुप क्यों हो? तुम्हें देख कर ऐसा लग रहा है जैसे तुम्हारे दिमाग में एक साथ अनगिनत ख्याल दौड़ रहे हैं। क्या हो गया है?”
सुहानी की पलकें झपकीं, मीरा की बातों ने जैसे उसे गहराई से छू लिया। उसके भीतर कुछ दरकने लगा। वो शब्द, जो अब तक सीने में कैद थे, अचानक होंठों तक आ गए। मगर आवाज़ फिर भी धीमी थी — टूटी, भीगी, थकी हुई।
“आरव… कैसे हैं?” ये वही सवाल था जो पिछले कई दिनों से उसके मन में दबी हुई चीख बनकर पल रहा था। वो बाहर सब के सामने आरव से दूर रहना चाहती थी…रहती भी थी। पर फिर भी, कहीं न कहीं... उसकी हालत जानने की चाहत, उसकी तकलीफों को समझने की बेचैनी अब भी उसके भीतर ज़िंदा थी।
मीरा चुप हो गई। उसका चेहरा सख्त होने लगा — जैसे वो इस सवाल के लिए तैयार नहीं थी। उसने नज़रें चुराईं, जैसे इस एक प्रश्न ने उसे बेपर्दा कर दिया हो। वो उठ खड़ी हुई, कमरे में कुछ कदम टहल कर रुकी।
"तुम्हें ये सवाल मुझसे नहीं पूछना चाहिए था..." मीरा ने ठंडी सांस लेते हुए कहा।
फिर वो धीरे से पलटी। उसकी आँखों में कुछ ऐसा था — ग्लानि, दुख, और एक उलझन जो शब्दों से परे थी।
“आरव…” उसने रुक-रुक कर कहा, “...वो ठीक है। लेकिन…वो खुद को खो चुका है, सुहानी। उसकी आँखों में अब भी तुम्हारे लिए एक अजीब सी बेचैनी है, लेकिन वो उसे खुद से भी छुपा रहा है। उसने जो कुछ कहा मीडिया में, जो कुछ किया… शायद वो उसका गुस्सा था, लेकिन गुस्से में जो इंसान खुद से भी झूठ बोलने लगे, वो बहुत गहराई से टूटा हुआ होता है।”
“और तुम्हें देखकर... वो बिखर जाता है, लेकिन ये भी जताना नहीं चाहता।”
मीरा ने अब उसकी ओर एक बार फिर कदम बढ़ाए, मीरा की आँखों पर अब कोई मुखौटा नहीं था। वो सच्ची थी-थकी हुई थी और शायद पहली बार — टूटी हुई भी। कमरे में एक गहरा सन्नाटा छा गया था। सिर्फ़ मीरा की आवाज़, और सुहानी की धड़कनों की गूंज। मीरा ने अपना सिर झुकाया, जैसे अब और कुछ छुपाने को बचा ही न हो।
उसने धीमी आवाज़ में कहना शुरू किया — “तुम जानती हो, सुहानी…”
उसकी आवाज़ कांप रही थी, मगर शब्दों में अजीब सी दृढ़ता थी।
“मैं अब आरव से प्यार नहीं करती।”
वो पलभर रुकी, फिर हल्की सी कड़वी हँसी, हँसी — एक ऐसी हँसी जो खुद की सच्चाई को स्वीकार करने की पीड़ा में निकली थी।
“In fact, सच बताऊँ तो… मैंने कभी आरव से प्यार किया ही नहीं।”
सुहानी ने चौंक कर उसकी ओर देखा, जैसे मीरा ने एक ऐसा सच कह दिया हो, जो इस पूरी कहानी की नींव हिला सकता है। मीरा अब टकटकी लगाए सामने देख रही थी — किसी अनदेखी दीवार की ओर, जैसे अपने अतीत को देख रही हो।
“वो जो कुछ भी सोचता है, जो कुछ भी समझता है मेरे बारे में — वो सब एक झूठ था, एक दिखावा। मैंने उससे प्यार का नाटक सिर्फ़ पैसों के लिए किया था। हां, सिर्फ़ पैसे के लिए।”
उसकी आँखें भर आईं, मगर उसने खुद को संभाला।
“और आज वो जो कुछ भी तुम्हारे बारे में सोचता है — वो सब उसी धोखे की वजह से है, जो मैंने उसके साथ किया। वो तुम्हें गलत समझ रहा है क्योंकि उसे लगता है, मैंने उससे सच्चा प्यार किया…और तुम बीच में आ गईं।”
मीरा का गला रुंध गया।
“पर जब उसे सच पता चलेगा... जब उसे ये पता चलेगा कि मैं सिर्फ़ उसके भरोसे से खेलती रही…तो वो मुझसे उतनी ही नफरत करेगा — जितनी मैं हर पल खुद से करती हूँ।”
उसने एक लंबी सांस ली, और आँखें झपकाईं।
“शायद आज आरव को सब कुछ याद नहीं है। शायद उस एक रात की काली परछाइयाँ अब भी उसके ज़हन से मिट चुकी हैं। मगर मेरे अंदर... वो रात अब तक ज़िंदा है। हर सुबह वो मुझे आईने में देख कर चीखती है, हर रात मेरे सपनों में दस्तक देती है।”
मीरा ने सुहानी की ओर देखा — उसकी नज़रों में न कोई छल था, न कोई जलन। सिर्फ़ एक बेज़ुबान सच्चाई जो अब तक उसके दिल में दफ़न थी।
“मैंने आरव से बहुत कुछ छीन लिया है… लेकिन जो मैंने खुद से छीना, वो कहीं ज़्यादा था। मैंने खुद को खो दिया है, सुहानी। और अब शायद redemption की एक ही राह है — तुम्हें सच बताना।”
कमरे में सन्नाटा था — भारी, ठहरा हुआ, और करुणा से भरा। सुहानी चुप थी, उसके भीतर भी एक तूफ़ान उमड़ रहा था। शायद ये मीरा की सच्चाई थी — मगर इसका असर उसके अपने दिल पर भी हो रहा था। मीरा की आँखों से बहते आँसू अब थमने का नाम नहीं ले रहे थे। उसकी आवाज़ में वो घुटन थी जो बरसों से भीतर दबी हुई थी — एक अधूरी मोहब्बत नहीं, बल्कि एक झूठे रिश्ते का बोझ, जिसे उसने अपनी मर्जी से ओढ़ लिया था। वो सुहानी के और करीब आ गई, जैसे अपनी हर बात उसकी रूह तक पहुँचाना चाहती हो।
"और सुहानी..." उसकी आवाज़ टूटी, मगर शब्दों में फिर भी सच्चाई की चमक थी, “उसने सिर्फ़ तुमसे प्यार किया है….सिर्फ़ तुमसे।”
सुहानी की आँखें भर आईं, उसका गला सूख गया। मीरा ने उसके दोनों हाथ अपने हाथों में ले लिए — एक आखिरी बार उसे यकीन दिलाने के लिए।
“मैं जानती हूँ, क्योंकि मैं उसके साथ रही हूँ। हर दिन, हर रात... मैं उसके इतने करीब थी, फिर भी उसके दिल से कोसों दूर।”
मीरा की नज़रों में अब दर्द की जगह एक स्वीकार्यता थी — जैसे वो अपनी हार को गले लगा चुकी हो।
"उसे जितनी चिंता तुम्हारी रहती थी, उतनी मेरी कभी नहीं रही। वो तुम्हें याद कर के बेचैन हो जाता था, तुम्हारी एक तकलीफ उसे अंदर तक हिला देती थी — और मैं? मैं उसके साथ होते हुए भी बस एक ज़िम्मेदारी बन कर रह गई थी। वो मेरे साथ सिर्फ एक रिश्ता निभा रहा था... क्योंकि उसे लगता था कि ये उसका फ़र्ज़ है, उसका दायित्व।"
मीरा ने सिर झुका लिया, और फिर जब उसने दोबारा ऊपर देखा, तो उसकी आँखों में एक ऐसी उम्मीद थी जो अब किसी स्वार्थ से नहीं, केवल सच्चे प्यार की जीत की चाह से उपजी थी।
"वो दिन दूर नहीं, सुहानी... जब उसे सब याद आ जाएगा। जब उसे हर वो पल याद आएगा जो तुम दोनों ने साथ बिताये थे, हर वो सच्चाई जिसे आज वो नहीं देख पा रहा है। और उस दिन..."
उसकी आवाज़ भर गई, मगर उसने खुद को संभाला।
“उस दिन आरव तुम्हें छोड़कर किसी और की तरफ देखेगा भी नहीं। और मुझे? मुझे तो देखना भी पसंद नहीं करेगा। क्योंकि तब उसे समझ आएगा कि उसकी नज़रों का असली हक़दार कौन है।” मीरा ने सुहानी के हाथों को हल्के से दबाया और एक धीमी, टूटी मुस्कान के साथ कहा — “देख लेना, सुहानी। जब मोहब्बत लौटती है ना… तो वो अपने असली ठिकाने पर पहुँच ही जाती है।”
कमरे में जैसे समय थम गया था। एक तरफ एक स्त्री जो सच्चाई के सामने खुद को पूरी तरह समर्पित कर चुकी थी…और दूसरी ओर एक स्त्री जो अब उस सच्चाई को दिल से महसूस कर रही थी। सुहानी की आँखों में भी अब आँसू थे — वो आँसू जो पीड़ा के नहीं, बल्कि समझदारी और प्यार के थे।
मीरा की सच्ची बातों ने उसके दिल को छू लिया था, और एक अनकहा बोझ उसके सीने से जैसे उतरने लगा था। फिर भी, उसके होठों पर एक हल्की सी मुस्कान थी — एक सच्ची, शांत मुस्कान। उसने धीरे से मीरा की ओर हाथ बढ़ाया, उसे अपने गले से लगा लिया। दोनों स्त्रियाँ कुछ देर तक यूँ ही एक-दूसरे के सहारे में रहीं — जैसे उनके आँसू एक-दूसरे के जख्मों को धो रहे हों।
सुहानी ने धीरे-धीरे मीरा की पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा, “मैं ये नहीं चाहती कि वो कभी भी तुमसे नफरत करे, मीरा।”
उसकी आवाज़ में न कोई शिकवा था, न कोई शिकायत — बस एक सच्चा अपनापन था। फिर वो थोड़ी पीछे हुई, और मीरा की आँखों में झाँका — बड़ी नर्मी से, जैसे उसमें कोई दोष ढूंढ़ने नहीं, बल्कि उसे खुद से जोड़ने के लिए देख रही हो।
“तुम्हें क्या लगता है, मुझे इस बात से तकलीफ है कि वो तुम्हें अपना मान रहा है?”
सुहानी ने हल्की सी साँस ली, और फिर मुस्कराते हुए कहा, “नहीं मीरा… बिल्कुल नहीं। मैं तो खुश हूँ कि इस मुश्किल वक़्त में उसके पास तुम हो। कम से कम कोई तो है जो उसके दर्द को समझने की कोशिश कर रहा है… उसकी देखभाल कर रहा है।”
उसके लफ़्ज़ों में एक सच्ची उदारता थी — वो जो किसी और के प्यार को देखकर भी जलती नहीं, बल्कि उसकी भलाई के लिए दुआ करती है।
फिर उसकी आवाज़ हल्की सी कांप उठी। आँखों में फिर से नमी उतर आई — वो नमी जो किसी को केवल याद करने से नहीं, बल्कि उसे छू ना पाने की मजबूरी से आती है।
“बस… मैं उसे बहुत याद करती हूँ, मीरा।”
उसका गला रुंध गया। वो चुप हुई, पर उस खामोशी में एक समंदर की गहराई थी। मीरा उसकी ओर देखती रही — पहली बार, पूरी तरह समझते हुए कि जिस स्त्री को वो कभी अपनी प्रतिद्वंद्वी समझती थी, दरअसल वह एक उदारु, और आरव से सबसे ज़्यादा प्यार करने वाली लड़की थी।
“मुझे उनकी बहुत फिक्र होती है, मीरा...” सुहानी की आवाज़ अब फुसफुसाहट जैसी हो गई थी, जैसे हर शब्द उसके दिल से रीस रहा हो। “जितना उन्हें मेरे खिलाफ भड़काया गया है... उन तीनों ने मिलकर — गौरवी, दिग्विजय और रणवीर राठौर ने...” उसने हल्की सी साँस ली, जैसे उन नामों का ज़िक्र करना भी उसकी छाती पर बोझ बन रहा हो। “उन्होंने आरव को मुझसे इतनी नफरत करना सिखा दिया है कि आज जब उसे कुछ भी याद नहीं है, तब भी… वो मुझसे नफरत करते हैं।”
सुहानी का चेहरा अब उतना ही शांत था, जितना किसी तूफान के बीच ठहरा हुआ समंदर होता है। लेकिन उसकी आँखों की कोरों पर ठहरे आँसू बयां कर रहे थे कि उसके भीतर कितना कुछ टूट रहा है।
“मगर मीरा... कल जब उन्हें सब कुछ याद आ जाएगा न…तब वो खुद को बहुत कोसेंगे। वो टूट जाएंगे... ये सोच-सोचकर कि उनके हाथों उन लोगों ने क्या-क्या करवा दिया कि वो किन झूठों को सच समझ बैठे थे... किन अपनों को दुश्मन बना बैठे थे।”
एक गहरी खामोशी छा गई कमरे में। फिर सुहानी की आवाज़ टूटी, लेकिन अब भी उसमें वही मजबूती थी — “आज उनकी नफरत जितनी मुझ पर भारी पड़ रही है, मीरा... उतनी ही मेरी चिंता उनकी आने वाली पीड़ा को लेकर बढ़ती जा रही है। वो अभी अंदर से घायल हैं ... मगर जब उन्हें पूरा सच पता चलेगा, तब वो बिखर जाएंगे। पूरी तरह से। और मुझे बस... उसी बात की चिंता रहती है।”
मीरा बस चुपचाप सुहानी की सारी बातें सुनती रही, सुहानी की इस निस्वार्थ भावना की कायल होकर।
"तुम उसके साथ हो — इससे मुझे कोई तकलीफ नहीं, मीरा। क्योंकि मैं जानती हूँ कि फिलहाल उसे किसी अपने की ज़रूरत है। और तुम कम से कम उससे झूठ नहीं बोल रही हो... उसका ख्याल रख रही हो।"
फिर उसने हल्की सी मुस्कान के साथ कहा — "अगर मेरी जगह कोई और होता, तो शायद ईर्ष्या से जल जाता… पर मैं ईर्ष्या में खुद को जलाने वालों में से नहीं हूँ। क्योंकि मैंने उसे चाहा है… सिर्फ पाने की चाह में नहीं। और चाहत में स्वार्थ नहीं होता मीरा, सिर्फ दुआ होती है।”
मीरा क्या सुहानी के साथ पकड़ी जाएगी?
सुहानी की भावनाएं क्या गलत साबित होंगी?
जानने के लिए पढ़ते रहिए… 'रिश्तों का क़र्ज़'!
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