सुबह की हल्की-हल्की धूप, ओस से भीगी ज़मीन, और सर्द हवा के झोंकों के बीच सुहानी वापसी की राह पर थी। लंबी दौड़, योगा और घंटों की मानसिक कसरत के बाद भी दिल की थकावट जस की तस बनी हुई थी। हर एक कदम जैसे उसे उसके अंदर के खालीपन से दूर नहीं ले जा पा रहा था। जैसे ही वो महल के गेट के पास पहुँची, एक जाना-पहचाना साया उस के सामने आ गया…विक्रम।

वो वहीं खड़ा था, जैसे उसका इंतज़ार ही कर रहा हो… या शायद खुद से भागता हुआ अचानक इस मोड़ पर रुक गया हो। सुहानी के कदम ठिठक गए। उसकी सांसे थोड़ी तेज़ हो गईं। दोनों की नज़रें मिलीं। कुछ पल के लिए वक़्त जैसे थम सा गया।

“अरे वाह, इतनी सुबह-सुबह राठौर परिवार की मालकिन जी को दौड़ते देखना तो किसी अजूबे से कम नहीं,” विक्रम ने हल्के कटाक्ष के साथ कहा, मगर उसकी आवाज़ में वो हल्कापन नहीं था, जो पहले हुआ करता था।

सुहानी ने पल भर उसकी ओर देखा, फिर अपना चेहरा फेर लिया, “मुझे किसी को कुछ साबित नहीं करना, विक्रम। और ताना मारने से पहले ये याद कर लो कि पिछली बार हमारी बात कैसे खत्म हुई थी।”

विक्रम की मुस्कान फीकी पड़ गई। “मैं भूला नहीं हूँ,” उस ने धीरे से कहा। “भूल भी नहीं सकता… शायद कभी भूल नहीं पाऊं।”

“तो फिर मुझ से बात करने क्यों आए हो? दोबारा मुझ पर कोई हक जताने आये हो?” सुहानी की आवाज़ सख्त थी, मगर उसकी आंखें नरम, थकी हुई थीं। “मुझे अब किसी भी और उलझन में नहीं पड़ना, विक्रम। मेरे पास पहले से ही बहुत कुछ है जिस से मुझे निकलना है। और... मैं आरव से प्यार करती हूं।”

यह कहते हुए उसकी आंखों में आंसू आ गए, जिन्हें वो बड़ी मुश्किल से रोक रही थी। विक्रम चुप रहा। हवा कुछ और ठंडी हो गई। कुछ देर दोनों चुप खड़े रहे। फिर विक्रम ने धीमे कदमों से उसके पास आकर कहा — “मैं जानता हूं, सुहानी। मुझे तुम्हारे जवाब की उम्मीद कभी नहीं थी। और शायद अब इसका कोई मतलब भी नहीं है। मगर एक बात कहनी है — जो मैंने आज तक नहीं कही तुम से।”

सुहानी ने उसकी तरफ देखा। उसकी आंखों में कोई दिखावा नहीं था। सिर्फ़ सच्चाई थी, थकी हुई, टूटी हुई सच्चाई।

“मैं... बचपन से तुम से प्यार करता आया हूं। मगर हमेशा देर करता रहा। कभी डर था, कभी हालात, कभी लगा तुम समझ जाओगी, कभी लगा कहने की जरूरत नहीं है। और जब समझाने की सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी… मैं चुप रहा।”

उसने गहरी सांस ली।

“तुम्हारी और आरव की शादी के बाद... जैसे सब कुछ मुझ से छिन गया था। एक साथ तुम, हमारी दोस्ती, भरोसा, सब कुछ। मगर आज तुम्हें ये बताना चाहता हूँ कि कल, जब तुम ने मुझे बीच रास्ते में उतारा, मैं पूरी रात सो नहीं पाया। शायद उस पल मुझे समझ आया कि मेरी चुप्पी ने तुम्हें कितना तोड़ दिया है।”

सुहानी का गला रुंध गया। मगर वो कुछ नहीं बोली। वो चाहती थी कि विक्रम अपनी बात पूरी करे।

“रणवीर के साथ मिल कर जो भी हो रहा है, उसका हिस्सा बनने का फैसला मैंने अपने मन से किया था। पहले मैं केवल गुस्सा था, दुखी था, मगर अब... अब मैं बस चाहता हूँ कि तुम ठीक रहो। इसलिए माफ करना, अगर मैंने पहले कभी कुछ नहीं कहा। और माफ करना, अगर अब भी कुछ कह कर तुम्हें uncomfortable कर रहा हूँ। मैं अब सिर्फ तुम्हारा भरोसा जीतना नहीं चाहता। तुम्हारे साथ खड़ा भी रहना चाहता हूँ — एक दोस्त बन कर…बस इतना ही।”

उसकी आवाज़ भीग चुकी थी। चेहरे पर थकावट थी, मगर आंखों में सच्चाई भी थी। सुहानी ने एक पल उसे देखा, उसकी आंखों में वही मासूमियत थी, वही अपनापन था जो बचपन से उसका सहारा था।

“मैं नहीं जानती विक्रम, कि मैं तुम्हें माफ कर पाउंगी या नहीं,” उसने धीमे स्वर में कहा।

“मगर ये जानती हूँ कि अगर तुम दिल से मेरे साथ हो, तो मुझे तुम्हारे साथ की ज़रूरत है।”

विक्रम हल्के से मुस्कुराया और उस एक पल में, दोनों ने अपने अतीत के ज़ख्मों पर मरहम लगा दिया।

दूसरी ओर, उस पल आरव अपने कमरे की खिड़की पर खड़ा था। सुहानी और विक्रम को साथ देख कर उसका दिल जैसे एक बार फिर टूट गया। वो चाह कर भी अपनी नज़रें हटा नहीं पाया।

“सुहानी...” उसने बस इतना ही कहा — एक बेजुबान पुकार, जो अब शायद सिर्फ़ उसके भीतर ही कैद रह जाने वाली थी।

सुबह की पहली किरणें अभी-अभी हवेलीनुमा राठौर मेंशन के झरोखों से भीतर झांक रही थीं, जब आरव की नींद एक विचलित धड़कन के साथ टूटी थी। खिड़की से दिखती बग़ीचे की ओस भरी घास पर, सुहानी और विक्रम की हल्की मुस्कुराहटों से भरी मुलाक़ात ने उसकी आत्मा को जैसे झुलसा कर रख दिया था। उस दृश्य ने उसके भीतर की तमाम उलझी हुई भावनाओं को एक बवंडर में बदल दिया था—ईर्ष्या, जलन, ग़ुस्सा, और उस सबसे अधिक—एक अदृश्य insecurity.

आरव ने अपने कमरे में चहलकदमी शुरू कर दी, हर कदम के साथ एक निर्णय उसकी चेतना पर हावी होता चला गया - “मैं उसे भी चैन से नहीं रहने दूंगा।”

उसकी आंखों में तैर रही आग ने इस जलन को जस्टीफाई करने के लिए तर्क खोज लिया था — “वो मेरे साथ इस कमरे में रह कर मीरा से मेरा रिश्ता तोड़ना चाहती थी, और अब खुद विक्रम के साथ इधर-उधर घूम रही है?”

उसकी सांसें तेज़ हो रही थीं…“नहीं... नहीं! अब बस। इस खेल में मैं अकेला नहीं हारूंगा।”

आरव ने फौरन खुद को ऑफिस के लिए तैयार करना शुरू कर दिया। उसकी सफेद शर्ट की क़ली के हर बटन को वो इस तरह बंद कर रहा था, जैसे हर बटन के साथ अपनी भावनाओं को जकड़ना चाहता हो। कोट पहनते हुए उसने शीशे में एक आखिरी बार खुद को देखा—चेहरे पर सख़्त भाव, मगर आंखों में वो जले हुए सवाल अब भी धधक रहे थे।

नीचे डाइनिंग टेबल पर, घर के लगभग सभी सदस्य एकत्र हो चुके थे। कमरे में नाश्ते की ख़ुशबू के साथ-साथ एक असहज चुप्पी तैर रही थी। और तभी…टिक-टिक… टिक-टिक…

हील्स की वह पहचानने लायक आवाज़ सीढ़ियों से आती सुनाई दी। सबकी नज़रें उसी दिशा में उठ गईं।

सुहानी नीचे आ रही थी—लंबी सफेद स्कर्ट में लिपटी, माथे पर ढुलकती हल्की लट, गले में बंधा टाइगर प्रिंट स्कार्फ, और आँखों में हल्की सी थकान, मगर चेहरे पर अब भी वही अनकही जिज्ञासा। उसकी सुंदरता आज जैसे किसी कहानी की नायिका सी लग रही थी—सजीव, स्वाभिमानी, और फिर भी टूटी हुई।

आरव की नज़र अनायास ही उस पर जा टिकी। एक पल को तो जैसे वक़्त ठहर गया। उसकी निगाहें सुहानी के खुले बालों के हर झोंके के साथ डोल रही थीं। उसका दिल एक पल को चाह बैठा था—कि काश सब कुछ रोक दे, और बस उसे देखता रहे।

मगर तभी— गौरवी ने आरव को टोका, “आरव, नाश्ता कर लो बेटा। मीरा भी तुम्हारे बगल में बैठी है।”

आरव की नज़रें हड़बड़ा कर झुकीं, और उसने अनमने ढंग से प्लेट में रखा टोस्ट उठाया। मीरा उसकी इस प्रतिक्रिया को देखकर भीतर ही भीतर मुस्कुरा उठी—उस ने ठीक से भांप लिया था कि आरव के ज़हन में क्या चल रहा है।

वहीं, विक्रम की नज़रें अब तक सुहानी पर ही टिकी थीं। जैसे ही सुहानी ने कमरे में प्रवेश किया, विक्रम तुरंत अपनी कुर्सी से उठा और बहुत सौम्यता से उसके लिए कुर्सी खींच दी। एक हल्की, मगर आत्मीय मुस्कान के साथ। सुहानी ने हिचकिचा कर उसकी ओर देखा, फिर मुस्कुराई और बैठ गई।

आरव का खून जैसे खौल गया। वो पलट कर विक्रम को घूरने लगा। उसकी सांसें तेज हो रही थीं और जैसे ही सुहानी बैठी, उसने अचानक से अपनी कुर्सी पीछे खींची—इतनी ज़ोर से कि कुर्सी ज़मीन पर घिसटती हुई ज़ोर की आवाज़ कर बैठी।

सन्नाटा…

सभी की नज़रें अब आरव पर थीं। आरव ने नज़रें उठाए बिना, कठोर लहजे में कहा, “हमें आज जल्दी ऑफिस जाना होगा। कल जो मीटिंग तुम ऐसे ही बीच में छोड़कर आ गई थी, उसे आज तुम्हें ही पूरा करना होगा। जल्दी चलो सुहानी…नाश्ता करने का वक्त नहीं है।”

सुहानी चौंकी, “लेकिन… आपके असिस्टेंट ने मुझे बताया था कि आपने वो मीटिंग कवर कर ली थी, तो मेरी ज़रूरत—”

आरव उसकी बात काटते हुए झुंझलाया, “अच्छा! तो विरासत में आधा हिस्सा चाहिए, मगर ज़िम्मेदारी में नहीं? जो तुमने किया है कल, उसकी भरपाई भी तुम ही करोगी। जल्दी चलो।”

ये कहते हुए वो मुड़ गया और बिना किसी की ओर देखे सीधा बाहर की ओर निकल गया। सुहानी वहीं खड़ी रह गई। शब्दों ने उसका साथ छोड़ दिया था। उसके होंठ खुले थे, मगर ज़ुबान जड़ हो चुकी थी।

मीरा ने खाँस कर उसका ध्यान अपनी ओर खींचा, फिर आंखों से इशारा किया—“जाओ, अभी और मत बिगाड़ो बात।”

सुहानी ने धीरे से सिर हिलाया, और अपनी सांसें समेटते हुए पर्स उठाया। वो तेज़ कदमों से आरव के पीछे चल दी। पीछे रह गए लोग अब भी स्तब्ध थे।

गौरवी, दिग्विजय और रणवीर समझ रहे थे कि आरव अपने अंदर की भावनाओं को नियंत्रण में नहीं रख पा रहा। उन्हें यह भ्रम था कि आरव, बस परिवार के कहे अनुसार, सुहानी से दूरी बना रहा है। उन्हें क्या पता था, ये कोई सामान्य क्रोध नहीं था—ये एक टकराती हुई भावना थी, जलन की आग, और खुद के खोते हुए प्रेम की लपटें।

मीरा सब समझ रही थी। उसने सुहानी और विक्रम को एक साथ देखा था, और आरव के रिएक्शन को भी। उसके मन में कहीं एक गुप्त संतोष था—“शायद यही जलन, यही तड़प, आरव को सुहानी के और करीब लाएगी।”

मगर दूसरी ओर, विक्रम का चेहरा लाल हो चुका था। उसकी मुट्ठियाँ भींची हुई थीं, उसकी नज़रों में साफ़ ग़ुस्सा और पीड़ा दोनों थे। “आरव की इतनी हिम्मत? सुहानी को इस तरह से आदेश दे रहा है? और सुहानी... वो भी बिना सवाल किए उसके पीछे चली गई?”

उस का दिल चीख रहा था, मगर वो जानता था—अब उसकी भूमिका बदल चुकी है। अब उसे सुहानी की ज़िंदगी को कंट्रोल नहीं करना, बस उसका साथ देना है। वो उठा, एक गिलास पानी उठा कर पी लिया और खुद को शांत करने की कोशिश की, मगर उसकी आंखें आरव को अब एक और रूप में देख रही थीं—रखवाले की नहीं, प्रतिद्वंदी की तरह।

एक जंग शुरू हो चुकी थी…इश्क़ की जंग। जहाँ दिल की आवाज़, अहंकार की गूंज से टकरा रही थी।

सुबह की हल्की धूप में राठौर हवेली का माहौल कुछ बदला-बदला सा था। हर कोई अपने काम में व्यस्त हो चुका था, मगर इन सब के बीच दो लोग ऐसे थे जिन की हलचल सब से अलग थी – आरव और सुहानी। जब दोनों ऑफिस के लिए निकलने लगे, तब सुहानी अपनी गाड़ी की ओर बढ़ी, पर तभी आरव ने उसे लगभग झिड़कते हुए रोका।

“आज तुम मेरी गाड़ी में चलोगी,” उसने सख्त लहजे में कहा।

सुहानी चौंक गई, “पर मेरी गाड़ी…”

“कहा ना, मेरी गाड़ी में,” उसने दोहराया और अपने ड्राइवर को इशारे से मना कर दिया, “तुम नहीं चलोगे, मैं खुद ड्राइव कर रहा हूँ।”

“लेकिन डॉक्टर ने आपको खुद गाड़ी चलाने से मना किया है अभी,” सुहानी ने धीरे से कहा।

आरव ने उसकी बात को अनसुना करते हुए गाड़ी का दरवाज़ा खोला और बैठ गया, “तुम्हें मेरी चिंता करने की ज़रूरत नहीं है।”

अनमनी सी, मगर मजबूर, सुहानी भी चुपचाप उस की गाड़ी में बैठ गई। गाड़ी के अंदर का माहौल तना हुआ था। कुछ देर तक दोनों के बीच कोई बात नहीं हुई। फिर अचानक आरव ने खामोशी तोड़ी, मगर बात से ज़्यादा उसकी आवाज़ में चिढ़ थी।

“तुम्हें रास्ते में कुछ बात करने की आदत नहीं है क्या? या ऑफिस जाते वक्त सिर्फ फोन घूरना आता है?”

सुहानी ने उसकी बात पर एक पल को उसे देखा, फिर खिड़की की ओर देखने लगी। उसका ये व्यवहार और भी अजीब लग रहा था।

“मुझे नहीं लगता ये ज़रूरी था कि हम साथ जाएं,” उसने धीरे से कहा।

आरव तैश में आ गया, “हां, विक्रम के साथ जाने में तो तुम्हें कोई दिक्कत नहीं होती!”

अब सुहानी का संयम टूटने लगा, “क्या आपको ज़रा भी समझ है कि आप किस तरह की बातें कर रहे हैं? प्लीज़, मुझे यहीं रास्ते में ही उतार दीजिए!”

आरव ने बिना कुछ बोले गाड़ी की स्पीड और बढ़ा दी। उसकी आँखों में जिद और चेहरे पर तनाव साफ़ दिख रहा था।

 

क्या आरव मानेगा अपने दिल की बात? 

सुहानी किसको चुनेगी - दोस्ती या प्यार? 

अपमान के बाद सुहानी क्या आरव से दूर और विक्रम के करीब हो जाएगी?

जानने के लिए पढ़ते रहिये, रिश्तों का क़र्ज़। 

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