“तुम… यहाँ क्या कर रही हो? उसकी आवाज़ धीमी थी, मगर आक्रोश से भरी हुई थी। हर शब्द में घुला हुआ था एक दबा हुआ गुस्सा और एक नफ़रत, जिसे छुपाने की कोई कोशिश नहीं की गई थी।

सुहानी ठिठक गई। उसके चेहरे पर उलझन साफ झलक रही थी।

“क्या?” उसने हल्की आवाज़ में पूछा, जैसे यक़ीन नहीं हो रहा हो कि आरव उसे देखकर ऐसा बर्ताव कर रहा है।

उसे तो लगा था कि शायद…शायद आरव को जब होश आएगा, तो वो सुहानी को देखने के लिए भी उतना ही बेताब होगा, जितना की वो थी। मगर अगला ही पल, और भी ज़्यादा चुभता हुआ निकला।

“ये... यहाँ क्या कर रही है, माँ?” आरव ने गौरवी की ओर देखते हुए पूछा, पर उसकी उँगली सीधी सुहानी की ओर थी — जैसे उसका होना ही एक गलती हो। गौरवी ने कुछ कहने के लिए होंठ खोले, पर उससे पहले ही सुहानी की नज़र पूरे कमरे में बाकी सारे लोगों के चेहरे पर गई। और तब उसे एहसास हुआ — वहाँ सिर्फ आरव और गौरवी ही नहीं थे।

कमरे के एक कोने में विक्रम खड़ा था, बाहों को सीने पर मोड़े, और चेहरे पर एक रहस्यमयी भाव लिए। दरवाज़े के पास डॉक्टर खड़ा था, उसकी निगाहें ज़मीन पर थीं, जैसे वो इस टकराव से बचना चाहता हो। और खिड़की के पास... खड़ी थी मीरा, अपनी झुकी हुई नज़रों के साथ — जैसे सुहानी से नज़रें ऊँची करके मिलाने की भी उसमें हिम्मत ना हो। 

उसने समझ लिया था — आरव अभी भी अँधेरे में है... और उस अँधेरे को फैलाने वाले लोग, इस कमरे में ही मौजूद हैं। सुहानी की नजरें जैसे ही कमरे में घूमीं, उसकी साँसें धीमी पड़ने लगीं। लेकिन सबसे पहले जो चीज़ उसकी नज़र में चुभी — वो था आरव का हाथ। उसका दायाँ हाथ, मीरा के हाथ में था — और आरव ने उसे ऐसे कस कर थाम रखा था जैसे वो उसे खो देने के ख्याल से भी डरता हो।

मीरा के चेहरे पर घबराहट थी, वो चौंकी हुई लग रही थी — पर उसकी आँखों में आँसू नहीं थे। वहाँ सिर्फ एक बात साफ दिख रही थी, घबराहट इस बात कि कहीं वो जो चाहती थी, वो उससे छिन न जाए, कहीं वो सुहानी का भरोसा ना हार जाए। लेकिन उसके विपरीत, कमरे में खड़े बाकी लोग — गौरवी, दिग्विजय और रणवीर — एकदम शांत खड़े थे, जैसे उन्हें कोई चिंता ही नहीं थी। ना कोई हैरानी, ना कोई हड़बड़ाहट, ना ही कोई पश्चाताप कि आरव अब होश में है, और वो सब कुछ जान सकता है।

उसके पिता के साथ हुए अन्याय, उसकी माँ की मौत और उस मासूम भाई की कहानी — जिसके साथ इन लोगों ने सालों तक अत्याचार किया। गौरवी की आँखों में वही पुरानी हिकारत थी। दिग्विजय अपनी जगह स्थिर खड़ा था, चेहरा कठोर, आँखों में ठंडापन — जैसे आरव की चेतना भी उसके लिए कोई खेल भर हो। रणवीर, जिसे एक समय में आरव अपने परिवार का दुश्मन मानता था, अब बस दीवार से टिककर खड़ा था, मानो ये सब उसके लिए कोई मोहरा हो — जिसमें जीत या हार कोई मायने नहीं रखती।

पर आरव…वो मीरा का हाथ पकड़े हुए, सुहानी को देख रहा था — एक ऐसी नज़र से, जिसमें कोई स्वागत नहीं था। कोई राहत नहीं। बस एक ऐसा मौन दुख…जैसे उसके भीतर कोई ऐसी चीज़ टूट गई हो, जिसे अब कोई जोड़ नहीं सकता। सुहानी का दिल डूबने लगा।

“आरव खुश नहीं हैं मुझे देखकर?” उसने मन ही मन खुद से पूछा। क्यों? क्या इसलिए कि वो लोग उसे यहाँ अकेला छोड़ कर चले गए थे? या इसलिए कि वो सच्चाई के इतने करीब आकर भी…अब भी वो किसी झूठ से जकड़ा हुआ था?

कमरे की हवा अब बोझिल हो चुकी थी। सारे चेहरे सुहानी की ओर मुड़े हुए थे — कुछ उपेक्षा से, कुछ साजिशों की मुस्कान के साथ। लेकिन एक चेहरा ऐसा था... जो अब भी भावहीन था — और वो था आरव का चेहरा। वो अब भी मीरा का हाथ पकड़े हुए था — जैसे तय कर चुका हो कि कौन 'अपना' है... और कौन 'पराया'।

सुहानी ने गहरी साँस ली और परिस्थिति को समझने की कोशिश की। “क्या मतलब है इस बात का, आरव?” सुहानी की आवाज़ काँप रही थी — उस कंपन में दर्द था, प्रेम था, और एक असहाय स्त्री की बेचैनी जो अपने रिश्ते को टूटने से बचाना चाहती थी।

वो दो कदम आगे बढ़ी, उसकी आँखों में आंसू भरने लगे थे।

“मैं पत्नी हूँ आपकी। आरव, मुझे फ़िक्र है आपकी… हर वक्त। मैं डर गई थी… आपको इस हालत में देखकर मेरा दिल बैठ गया था। मैं आप से प्यार करती हूँ। क्या आप खुश नहीं है मुझे देख कर?” उसके शब्द कमरे में गूंजे, मगर सामने आरव की आँखों में कोई नरमी नहीं आई।

बल्कि, वो पहले से ज़्यादा सख्त हो गया था। उसकी भौंहें तन गईं, जबड़ा और कस गया — और मीरा का हाथ उसने और मज़बूती से पकड़ लिया, जैसे सुहानी के हर शब्द उसे और पीछे धकेल रहे हों। उसके चेहरे पर एक ऐसा भाव था — जैसे सुहानी की हर बात एक झूठ हो… एक चाल हो… और वो अब, उसकी कही किसी भी बात पर यक़ीन नहीं करना चाहता था। सुहानी के गले में कुछ अटकने लगा। वो कुछ और कहना चाहती थी, अपना दर्द, अपना सच्चा इरादा समझाना चाहती थी… मगर तभी बीच में डॉक्टर आ गया।

उसने हाथ उठाकर विनम्रता से उसे रोका — "मैडम…" उसकी आवाज़ बेहद धीमी और संयमित थी, मगर स्पष्ट भी, “I think आपको बाहर जाना चाहिए। अभी आरव को आराम की ज़रूरत है।”

डॉक्टर की कोशिश थी कि वो माहौल को बिगड़ने से पहले संभाल ले — मगर सुहानी के लिए ये सिर्फ एक छोटा झटका नहीं था। ये ऐसा था… जैसे उसे दरवाज़े से बाहर नहीं, आरव के दिल से बाहर कर दिया गया हो। वो कुछ पलों तक वहीं खड़ी रही — उसके होंठ थरथरा रहे थे, आँखों में एक सवाल था — “तुम इतना बदल कैसे गए, आरव?” लेकिन जवाब कहीं नहीं था। ना आरव की आँखों में, ना उसके मौन में, और ना ही उस कमरे में जो अब उसके लिए पराया हो चुका था।

“पत्नी?” आरव की आवाज़ ऊँची नहीं थी, मगर उसमें ऐसा ज़हर था जिसने सुहानी के रूह को चीर दिया। “ये मेरी पत्नी है?” उसने जैसे खुद से सवाल किया, फिर एक झटके से मीरा की तरफ देखा — “पागल तो नहीं हो गई ये? हमारी शादी कब हुई? ये क्या बोल रही है, मीरा?”

उसके चेहरे पर दहशत थी, भ्रम था… और सबसे ज्यादा, एक अजीब सा क्रोध। “मीरा, तुम ही बताओ... ये सब झूठ है ना? मैं तुम्हें धोखा नहीं दे सकता। ये झूठ बोल रही है ना?” आरव बार-बार मीरा की आँखों में जवाब ढूंढने की कोशिश कर रहा था, मानो वो सुनना ही नहीं चाहता था कि उसकी ज़िंदगी में कोई और हकदार हो सकती है — सुहानी।

पर हर एक सवाल... सुहानी को अंदर से तोड़ता जा रहा था। जैसे उसके शब्दों को नहीं, बल्कि उसकी आत्मा को ही झूठा कह दिया हो। उसका चेहरा सफेद पड़ने लगा। उसकी आँखें नम थीं, पर वो रो नहीं रही थी। क्योंकि अब दर्द आँसुओं से परे चला गया था — वो उस स्तर पर पहुँच चुकी थी जहाँ सिसकियाँ भी मौन हो जाती हैं।

और उसी पल…गौरवी की आँखों में चमक आ गई। दिग्विजय के होंठों पर हल्की सी मुस्कान थी — जैसे उसे यही देखना था — सुहानी की हार, और अपने भतीजे की आँखों में भ्रम। रणवीर दीवार से टिके खड़ा था, उसके चेहरे पर एक अजीब संतोष था — मानो कोई अधूरा बदला धीरे-धीरे पूरा हो रहा हो।

लेकिन जैसे ही मीरा की आँखें सुहानी से मिलीं। वहाँ कोई क्रूरता नहीं थी, कोई अहंकार नहीं, बस एक गहरी शर्म... और एक मूक माफ़ी।

जैसे वो कहना चाह रही हो — “मैं चाहकर भी तुम्हारा सच नहीं बोल सकी… मुझे माफ कर दो।” पर सुहानी अब किसी की आँखों में कुछ ढूंढ नहीं रही थी। वो बस आरव को देख रही थी — एक ऐसी नजर से, जिसमें ना शिकायत थी, ना सवाल…बस एक टूटी हुई उम्मीद थी — और वो टूटी चीज़ अब कभी जुड़ने वाली नहीं थी।

डॉक्टर ने जबरदस्ती सुहानी का हाथ थामा और उसे कमरे से बाहर खींच लाया। वो विरोध नहीं कर पाई… क्योंकि उसके भीतर तूफान चल रहा था। कमरे से बाहर निकलते ही, उसने झटके से डॉक्टर का हाथ छुड़ाया — जैसे कोई आग को छू लिया हो।

"मुझे अकेला छोड़ दो!" उसकी आवाज़ में चीख नहीं थी, मगर दर्द गूंज रहा था।

अगले ही पल वो पास की दीवार से टिक गई — उसके हाथ अपने सीने पर जा टिके, और उसकी सांसें बेकाबू हो गईं। गहरी, टूटी हुई सांसें — जैसे फेफड़े नहीं, दिल घुट रहा हो।

“ये… ये अंदर अभी क्या हो रहा था?” उसने घबरा कर डॉक्टर की ओर देखा, उसकी आँखों में एक मासूम, डरी हुई सी बेचैनी थी — “आरव ऐसे क्यों बात कर रहे थे… जैसे उन्हें याद ही नहीं कि मैं उनकी पत्नी हूँ?” उसके शब्द जैसे हवा में काँप रहे थे।

डॉक्टर ने कुछ पल सुहानी को देखा — वो झिझक रहा था, जैसे कुछ बताना चाहकर भी खुद को रोक रहा हो। लेकिन अब छिपाने का समय नहीं था।

उसने एक लंबी साँस ली और धीमे स्वर में कहा — “क्योंकि उन्हें सच में कुछ याद नहीं है।” उसकी आवाज़ गंभीर थी, साफ़ और नर्म। “वो अपने जीवन का एक छोटा-सा हिस्सा… भूल चुके हैं। ट्रॉमा के कारण उनकी मेमोरी का वो भाग ब्लॉक हो गया है — और फिलहाल, वो आपको नहीं पहचानते। उन्हें नहीं पता कि उनकी शादी हो चुकी है… या आपने उनके साथ क्या कुछ झेला है।”

सुहानी एकदम से चुप हो गई। उसके होंठों से कोई शब्द नहीं निकले, लेकिन उसकी आँखों में जैसे सैकड़ों सवाल दौड़ने लगे। उसने दीवार से सर टिकाया और आँखें बंद कर लीं — मानो एक ही पल में उसकी सारी लड़ाइयाँ, उसका सारा प्रेम, उसका दर्द, सब व्यर्थ हो गया हो। जिस इंसान को उसने टूट कर चाहा था…वो अब उसे पहचानता तक नहीं।

कमरे के दरवाज़े के उस पार आरव था — मगर अब दोनों के बीच एक दीवार नहीं, यादों की खाई थी…जो शायद कभी पार नहीं की जा सकेगी। डॉक्टर की बात सुनकर सुहानी की आँखों में जैसे अंगारे सुलग उठे।

“और बहुत conveniently वो हिस्सा मुझसे जुड़ा हुआ है?” उसके स्वर अब पीड़ा और गुस्से के बीच झूल रहे थे — जैसे हर शब्द उसके टूटते भरोसे की गवाही दे रहा हो। वो तेज़ी से डॉक्टर की ओर बढ़ी — उसकी चाल में अब घबराहट नहीं, चुनौती थी।

“क्या किया तुम लोगों ने उनके साथ?” उसका चेहरा डॉक्टर के बेहद करीब था, आँखें सवालों से चुभ रही थीं। “इन तीनों के कहने पर, क्या किया तुमने, आरव के साथ? कौन-सी दवाई दी? कौन-सा इलाज किया जिससे उसे सिर्फ मैं याद नहीं रही?”

डॉक्टर ने दोनों हाथ ऊपर उठाकर सुहानी को शांतिपूर्वक रोकने की कोशिश की। “हमने कुछ भी नहीं किया, सुहानी।” उसकी आवाज़ संयमित थी, मगर भीतर की घबराहट साफ़ थी। “बात को समझने की कोशिश करो।”

डॉक्टर ने धीमे स्वर में समझाना चाहा, “गोली उनके सिर को छू कर निकली थी — शुक्र है कि वह जानलेवा नहीं थी, मगर... वो ज़ख्म गहरा था। बहुत गहरा।”

सुहानी की साँसें तेज़ हो रही थीं, लेकिन वो अब सुन रही थी — शायद सच्चाई जानने की उम्मीद में, शायद किसी उम्मीद के मर जाने के डर से।

"उन्हें सिर पर गंभीर चोट भी आई थी," डॉक्टर ने कहा, “जिसके कारण उसकर मस्तिष्क के उस हिस्से में सूजन आ गई, जो शायद हाल-फिलहाल की यादों को नियंत्रित करता है। इसी वजह से… वो अपने जीवन का एक हिस्सा — पिछले कुछ महीनों की बातें — भूल चुके हैं।”

डॉक्टर की आवाज़ अब भारी हो चुकी थी।

“ये कोई साजिश नहीं है, सुहानी… ये एक ट्रॉमेटिक ब्रेन इंजरी है। और इस तरह की भूल कुछ समय के लिए होती है… या कभी-कभी हमेशा के लिए भी रह सकती है।”

सुहानी की आँखों में आँसू तैरने लगे थे — मगर वो अब भी खुद को रोक रही थी। उसके भीतर विश्वास और अविश्वास की एक भयंकर लड़ाई चल रही थी। वो चुपचाप कुछ पल डॉक्टर को देखती रही…और फिर धीमे से फुसफुसाई — “तो मतलब… मैं ही उसकी ज़िंदगी से मिटा दी गई हूँ?”

दीवार की ठंडी सतह से पीठ लगाए, वो बस खड़ी रही — जैसे किसी ने उसकी पूरी पहचान छीन ली हो।

“तो उन्हें कब याद आएगा सब?” सुहानी की आवाज़ में कंपन था — जैसे उसने अपनी आख़िरी उम्मीद को थाम रखा हो। उसकी आँखों में एक बच्चे-सी मासूम जिज्ञासा थी, जो चाहती थी कि कोई कह दे — “बहुत जल्दी। बस थोड़ा सब्र करो।”

डॉक्टर ने एक लंबी साँस ली, फिर नज़रें झुका लीं। “ये इतना आसान नहीं है, सुहानी...” उसके स्वर में अब दया थी, लेकिन भीतर कहीं एक कटु सच्चाई छुपाए हुए। “वक़्त लग सकता है”

सुहानी ने एक कदम पीछे लिया। जैसे कोई अदृश्य चोट उसके सीने में उतर गई हो।

“कितना?” उसकी आवाज़ अब तेज़ होने लगी, उसमें बेसब्री थी, एक जिद थी — “एक महीना? दो महीना? एक साल? कितना वक़्त लगेगा?”

डॉक्टर ने उसकी ओर देखा। उसके चेहरे पर अब कोई उत्तर नहीं था — सिर्फ़ खामोश सहानुभूति।

 

क्या आरव चोट की वजह से सब कुछ भूला या फिर रणवीर ने कोई चाल चली?

मीरा अब किसका साथ देगी? 

सुहानी कैसे लड़ेगी राठौर से जब आरव ही उसके साथ नहीं होगा? 

आगे की कहानी जानने के लिए पढ़ते रहिये, रिश्तों का क़र्ज़। 

 

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