नीना को धीरे-धीरे महसूस होने लगा था कि सिर्फ़ काम का बोझ ही नहीं, बल्कि इस पेंटिंग के साथ जुड़ी कुछ अजीबोगरीब और असामान्य घटनाएं भी उसे मानसिक रूप से परेशान करने लगी हैं। वो यह तो समझ चुकी थी कि पेंटिंग में कुछ गड़बड़ है, और इसे पूरा करने के दबाव और डर के चलते उसकी मेंटल हेल्थ और भी बिगड़ सकती है।
उसने सोच लिया कि उसे मिस्टर चौधरी से इस बारे में बात करनी होगी। उसने सच में इन सभी चीजों का हद से ज़्यादा दबाव ले लिया है, और अब उसे कुछ समय चाहिए ताकि वह खुद को फिर से संभाल सके। वैसे भी नीना ने रात को जो देखा, उसके बाद उसका सत्यजीत पर से भरोसा उठ गया था। सत्यजीत जो कुछ भी बता रहे थे, वह कितना सच था, यह तो सिर्फ़ वही जानते थे। अगर उनका कहा सच है, तो वसुंधरा इस तरह के संकेत क्यों दे रही है, मानो किसी ने उनकी जान ली हो? क्या मानसिक रूप से बीमार व्यक्ति की मौत के बाद उसकी आत्मा भी वैसे ही व्यवहार करती है?
नीना: “उफ़्फ़, मैं पागल हो जाऊँगी। मुझे कुछ वक्त के लिए यहाँ से जाना होगा। मैं इस हालत में यह पेंटिंग पूरा नहीं कर पाऊँगी, और अगर किया भी, तो शायद मैं ही पागल हो जाऊँगी।
वह आज बिना शंभू के बुलाए ही नाश्ते के लिए चली गई और जाते ही सत्यजीत के सामने खड़ी हो गई।
नीना: "गुड मार्निंग, मिस्टर चौधरी"
सत्यजीत: "मॉर्निंग.. आइए, नीना, नाश्ता कीजिए।"
नीना: "मिस्टर चौधरी, मुझे कुछ दिनों के लिए ज़रूरी काम से दिल्ली जाना होगा।"
उसकी बात सुनकर सत्यजीत के हाथ में पकड़ी चम्मच मुँह में जाने की बजाय वापस प्लेट में चली गई।
सत्यजीत: "... लेकिन अभी पोर्ट्रेट पूरा नहीं हुआ है।"
नीना: "मैं जानती हूँ, और यह भी जानती हूँ कि अगर यहाँ रही, तो भी इसे पूरा नहीं कर पाऊँगी।"
नीना ने सत्यजीत को अपने चारों ओर हो रही घटनाओं के बारे में बता दिया था।
सत्यजीत: "वह सिर्फ़ तुम्हारे मन का वहम है," सत्यजीत ने उसे समझाने की कोशिश की।
नीना: "मैं आपसे रिक्वेस्ट करती हूँ और वादा भी, कि जल्द वापस आ जाऊँगी।
नीना ने कहने को कह दिया ताकि वह यहाँ से निकल सके।
आखिरकार, नीना ने सत्यजीत को बता ही दिया कि उसे एक ब्रेक की सख्त ज़रूरत है। सत्यजीत ने हमेशा पेंटिंग को ज़्यादा अहमियत दी थी, लेकिन नीना की हालत ऐसी नहीं थी कि वह और आगे बढ़ सके, उसे देखकर इस बात का कोई भी अंदाजा लगा सकता था। अगर उसे ब्रेक नहीं दिया गया, तो सच में नीना का ब्रेक-डाउन ज़रूर हो जायेगा।
नीना ने जितनी बार यहाँ से जाने की बात की, उसके हाथों में अजीब सी सरसराहट हो रही थी, लेकिन आज उसने अपने दोनों हाथों को मजबूती से भींच रखा था, जैसे उसने जाने का दृढ़ निश्चय कर लिया हो। सत्यजीत ने उसकी बात मानते हुए, उससे जल्द लौटने का वादा लेते हुए, शम्भू से कहा कि वो मैनेजर से नीना की टिकट्स की ऑर्गनाइज़ करवा दे।
नीना ने जाने से पहले एक बार फिर स्टूडियो में कदम रखा, मानो वह उस पेंटिंग में अपना कोई हिस्सा यही छोड़कर जा रही हो। उसका दिल भारी हो रहा था। सच्चे लोगों की यही कमजोरी होती है कि सामने वाला चाहे कैसा भी क्यों न हो, उन्हें वह अपनी ही तरह सच्चा और साफ़़ दिल वाला लगता है।
जाते हुए उसे इस बात का बुरा लग रहा था कि वह अपना, लिया हुआ काम, टाइम से पूरा नहीं कर पाई। लेकिन वह यह समझ चुकी थी कि अगर वह अभी नहीं गई, तो शायद बीमार पड़ जाएगी। स्टूडियो से बाहर पैर रखते वक्त उसे लगा मानो कोई उसे रोक रहा है, लेकिन वह वहाँ से बिना पीछे मुड़े निकल गई।
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कोलकाता एयरपोर्ट पर बैठी नीना अपने हाथों के रंग को स्कार्फ से ढके हुए, मोबाइल हाथ में थामे बैठी थी। आज अरसे बाद वह अपने फोन से सतीश को मैसेज टाइप कर रही थी। इस बार नीना ने पहले की तरह कोई कहानी नहीं लिखी, न ही लंबी-लंबी बातें। उसने सिर्फ़ "कमिंग बैक" टाइप किया और सतीश को भेज दिया।
काफ़ी वक्त बाद नीना का मैसेज देखकर सतीश मुस्कुराने लगा। "कमिंग बैक" इन दो शब्दों ने उसका दिन ही बना दिया। अब नीना के दिल्ली पहुँचने से पहले उसे अपने काम निपटाने थे, ताकि शांति से उसके साथ बैठकर बातें कर सके।
कुछ ही वक्त में नीना ने उड़ान भरी, वह मन ही मन सोच रही थी कि यहाँ से निकल चुकी है, दोबारा वापस नहीं आएगी। कुछ ही घंटों में वह दिल्ली पहुँच गई।
एयरपोर्ट से बाहर निकलकर उसने देखा कि सामने सतीश खड़ा था। वह मुस्कुराई, लेकिन उसकी मुस्कान के पीछे की उदासी और बेबसी, सतीश महसूस कर सकता था। आखिर, बचपन का दोस्त है।
सतीश एक सुलझा हुआ, शांत लड़का था, जो हमेशा नीना की भावनाओं को समझता और उनकी कद्र करता था।
सतीश: "हांजी मैडम... व्हाट्स अप...आइए, आपकी कैब तो नहीं, पर बाइक इधर है," वो उसे देखते ही मुस्कुराकर बोला।
नीना: "तू इतना वेला है? जब देखो तब लेने आ जाता है।"
सतीश: "हाँ, मैं यही सोच रहा था, तुझे आए पाँच मिनट नहीं हुए, और मेरी बेइज़्ज़ती शुरू।"
नीना: "छोड़ो, ये बताओ, क्या चल रहा है?"
सतीश: "क्या चल रहा है? यह तो तुम बताओगे कि क्या चल रहा है! और यह चेहरे की क्या हालत कर ली है? सैलोन-वैलोन नहीं है क्या तुम्हारे चौधरी के शहर में? या फिर यह उदासी है, कि उसकी याद सता रही है तुझे!"
नीना: "हाँ, लग रहा है, जैसे अपना एक हिस्सा वहीं छोड़ आई हूँ।"
सतीश: "देख, मुझे डरा मत।"
नीना: "घर ले चल, न। आज अंजलि से भी मिलना है, और तुम दोनों के साथ बहुत कुछ शेयर करना है।"
सतीश ने बाइक का एक्सेलरेटर घुमाया और कुछ ही वक्त में वे घर पहुँच गए।
अंजलि उनका इंतजार कर रही थी। नीना को उदास देखकर, अंजलि ने सतीश से इशारों में पूछा कि ‘यह ठीक क्यों नहीं लग रही।’ सतीश ने सिर्फ़ हामी भरी, क्योंकि यह बात तो सतीश को भी परेशान कर रही थी।
सतीश : “मिसिंग सत्यजीत !”
अंजलि : “उफ्फ! शट अप!”
अंजलि ने झट से खाना ऑर्डर किया। नीना की खामोशी उन दोनों को परेशान कर रही थी। उसके हाथों पर लगे रंग को देखकर सतीश ने उससे पूछा, और नीना ने यही कहा कि वहाँ जो पिगमेंट वह इस्तेमाल कर रही थी, वह इसी तरह का दाग छोड़ देता है।
कुछ ही देर में खाना आया और वे तीनों नीना सोफ़े पर बैठे-बैठे खाना खाते हुए बातें कर रहे थे। अंजलि और सतीश तो बोल रहे थे, लेकिन नीना चुपचाप खाना खा रही थी।
नीना उन दोनों से कुछ कहना चाहती थी, लेकिन शुरू कहाँ से करे, यह उसे समझ नहीं आ रहा था। सतीश और अंजलि उसकी हालत देखकर समझ सकते थे कि वह काफ़ी हद तक परेशान है।
अंजलि ने माहौल को हल्का करते हुए बात शुरू की और कहने लगी,
अंजलि : "यार, मैंने सुना है बागान बाड़ी बहुत बड़ी है।"
नीना की आँखें यह सुनकर चमक उठीं,
"हाँ यार, बहुत बड़ी और बहुत खूबसूरत है।"
सतीश और अंजलि दोनों ने महसूस किया कि वह बागान बाड़ी को मिस कर रही है।
सतीश: “मतलब सत्यजीत को नहीं, उसके बागान बाड़ी को मिस कर रही है।”
अंजलि ने झट से सतीश के घुटने पर एक टपली मारी, और नीना से कहने लगी…
अंजलि : "पर वहाँ की कनेक्टिविटी अच्छी नहीं है, कितनी मुश्किल से कॉल लगता है।"
नीना: "हाँ, शहर से थोड़ा दूर है, शायद इसीलिए।"
सतीश: "पोर्ट्रेट पूरा हो गया?"
नीना: "नहीं यार, मैं उसे पूरा कर ही नहीं पा रही।"
अंजलि और सतीश साथ में बोले, "मतलब?"
नीना : "मतलब, मैंने जब उसकी आँखें बनाई, तो मुझे लगा वो मुझे घूर रही है।
उसकी बातों में अनजानी सी बेचैनी और उदासी साफ़-साफ़ देखी जा सकती थी।
सतीश: "तो ये तो तेरी आर्ट का कमाल है कि तूने ऐसी आँखें बनाई हैं।"
नीना: "और बाल, वो हवा में उड़ रहे थे।"
सतीश और अंजलि एक साथ बोले, "क्या?"
सतीश और अंजलि दोनों हँसने लगे। उन्हें उसकी कही बात पर विश्वास नहीं हो रहा था। सच तो यह है कि यकीन सिर्फ़ आँखों देखी चीज़ों पर ही किया जाता है।
अंजलि : "ये तो आँखों का धोखा है, और वैसे भी देखी हुई हर चीज़ सही नहीं होती।"
इतना सुनने के बाद नीना अपनी परेशानी खुलकर कैसे कहे, वो दोबारा खामोश हो गई।
अंजलि : "मैंने वसुंधरा के बारे में पता किया था और उसकी मौत का कारण वही है, जी, वो मैंने तुम्हें बताया था।"
नीना उससे कैसे कहती कि उसने सपने में ऐसा कुछ देखा है जो इस बात से बिल्कुल अलग है। आखिर एक सपने को कितना सच माना जा सकता है?
वह काफ़ी वक्त से ठीक से सोई नहीं थी, और वह सोना चाहती थी। अंजलि और सतीश ने भी सोचा कि थोड़ी देर सो जाएगी तो अच्छा महसूस होगा। फिर वो दोनों उसे छोड़कर अपने-अपने घर चले गए।
दो दिन गुज़र चुके थे और नीना ने अपने आप को कमरे में बंद कर रखा था। दिल्ली में भी नीना को वसुंधरा के सपने लगातार परेशान कर रहे थे। जब से वह बागान बाड़ी से वापस आई थी, रात को ठीक से सो नहीं पा रही थी। हर रात उसे ऐसा लगता, मानो कोई ताकत उसे अपनी ओर खींच रही हो। उसने सोचा था कि शायद दिल्ली आ जाने के बाद उसकी परेशानी खत्म हो जाएगी, लेकिन यह खत्म नहीं हुई। बल्कि, यह दिन-ब-दिन बढ़ती ही जा रही थी।
एक रात, उसने खुद को एक अंधेरे कमरे में खड़ा पाया। कमरा पूरी तरह से खाली था, वहाँ आवाज़ गूँजती सुनाई दे रही थी। उसके चारों ओर ठंडक और सन्नाटा था। तभी, उसे पीछे से किसी की धीमी-धीमी आवाज़ सुनाई दी। नीना ने धीरे से मुड़कर देखा तो उसकी साँसें थम गईं। वहाँ वसुंधरा खड़ी थी। वह उसका पूरा शरीर लेकिन अधूरा चेहरा और एक ही आँख देख सकती थी जो उसने पोर्ट्रेट में बनाया था।
वसुंधरा बिना कुछ कहे, नीना को एकटक देखती रही। उसे महसूस हुआ कि वो उसे कुछ बताना चाह रही थी, लेकिन वो शब्दों में कह नहीं पा रही थी।
नीना ने हिम्मत जुटाकर पूछा, "क्या चाहती हो मुझसे? मुझे क्यों परेशान कर रही हो?"
वसुंधरा की आवाज़ एक धीमी फुसफुसाहट में आई, "फिरे आए... (वापस आ जाओ)।"
नीना ने घबराते हुए कहा, “क्यों आऊं?”
वसुंधरा ने कहा, “आमार जोन्नो”
मतलब “मेरे लिए”। उसकी आँख में लाचारी देखी जा सकती थी। कहते उसने दीवार की तरफ़ इशारा किया। वहाँ परछाई में नीना को एक हिलती हुई धागे से बंधी गांठ हवा में लटके हुए दिखाई दिया। वो गांठ जीवित प्राणी की तरह हिल रही थी।
नीना: “ये क्या है?”
देखते ही देखते, वसुंधरा ने नीना को अपनी ओर खींचना शुरू कर दिया।
उसकी आवाज़ अब और भी तेज़ और स्पष्ट हो गई थी, “फिरे आए”' उसकी आवाज़ में रिक्वेस्ट, बेबसी और गुस्सा - सब था।
नीना का शरीर काँपने लगा और वह अपने आप को असहाय महसूस करने लगी।
“आमार जोन्नो.. फिरे आए”,
यह शब्द नीना के कानों में बार-बार गूंजने लगे। वह घबराकर जाग गई। उसके माथे पर पसीना था, उसका गला सूखा और दिल तेज़ी से धड़क रहा था। नीना ने पानी की बोतल लेने के लिए जैसे ही हाथ बढ़ाया और पलटी, तो उसे वसुंधरा अपने बाजू में खड़ी दिखी। उसके शरीर के रोएँ खड़े हो गए।
नीना को वसुंधरा की बेबसी परेशान कर गई। ‘क्यों जाऊँ में वापस वसुंधरा के लिए? और वो शैडो में क्या था?' उसके हाथों पर लगे पिगमेंट में अजीब सी झुनझुनाहट शुरू हो गई। वह उन्हें झटकते हुए परेशान हो उठी।
नीना समझ चुकी थी कि उसे इन सबसे छुटकारा नहीं मिलने वाला। उसे अपने सवालों के जवाब हवेली में ही मिलेंगे। उसने तय किया कि उसे वापस कोलकाता जाना होगा। उसके सवालों के जवाब उसे वहीं मिलेंगे, और अगर वह नहीं गई, तो यहाँ भी वह सुकून से नहीं रह पाएगी।
नीना का मन पूरी तरह से उलझ चुका था। वह जानती थी कि वसुंधरा की आत्मा का यह बुलावा महज़ एक सपना नहीं था।
नीना जब कोलकाता लौटेगी, तो उसका सामना किससे होगा?
वसुंधरा की आत्मा के पीछे छिपा रहस्य क्या है?
क्या नीना सच में उन अलौकिक घटनाओं का सामना कर पाएगी?
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