अगले दिन, नीना बिना सतीश और अंजली को बताए कोलकाता के लिए रवाना हो गई।
नीना फ्लाइट से कोलकाता वापस जा रही थी। वह मन ही मन सोच रही थी कि जब उसने मिस्टर चौधरी को अपनी वापसी के बारे में बताया, तो वे कितने ऐक्साइटेड हुए थे और तुरंत ही वापसी के टिकट टिकट भी करवा दिए। वे जैसे दिखते हैं, वैसे ही हैं या अपने आस-पास दिखावटी चोला ओढ़ रखा है? उन्हें समझना सच में बेहद मुश्किल काम था नीना के लिए।
नीना बस यह सोच रही थी की वसुंधरा के बुलावे पर, वो वापस जा रही है। कुछ दिन पहले, दिल्ली आते वक़्त, उसने सोचा नहीं था कि वह अब कभी चौधरी बागान बाड़ी लौटेगी। फिर भी, अब वह वापस जा रही थी, और उसे समझ नहीं आ रहा था कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है। क्योंकि, टेक्निकली स्पीकिंग, वसुंधरा तो उसके कल्पना की उपज है। उसने गौर किया कि जब वह यहाँ से दिल्ली लौट रही थी, उसके हाथों की सरसराहट बर्दाश्त से बाहर थी। इतने दिनों से कितनी मुश्किल से उसने उसे बर्दाश्त किया था। लेकिन आज, कोलकाता जाते वक्त, उसके हाथों की सरसराहट शांत थी।
फ्लाइट के भीतर का माहौल भी शांत था, लेकिन नीना के मन में तूफ़ान उमड़ रहा था। उसने अपने कानों में एयरपॉड्स लगा रखे थे, लेकिन उसके मनपसंद गाने भी उसकी बेचैनी को कम नहीं कर पा रहे थे। उसे बार-बार वही शब्द याद आ रहे थे 'फिरे आये… आमार जोन्नो फिरे आए।' 'न जाने वापस क्यों जाना है और किसके लिए,' वह नहीं जानती थी कि उसके मन की उलझनें कब खत्म होंगी।
उसने सोचा था कि दिल्ली आकर सब कुछ ठीक हो जाएगा, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। उल्टा, वो तो सतीश और अंजलि कुछ ख़ास वक़्त भी नहीं बिता पाई। अब तो उसकी परेशानियाँ और भी बढ़ गईं। आखिरकार, उसे कोलकाता लौटना पड़ा।
उसका गला सूखने लगा, उसने फ्लाइट अटेंडेंट से पानी के लिए रिक्वेस्ट किया। पानी आते ही उसने एक झटके में पूरा पी लिया, लेकिन फिर भी गला सूखा का सूखा ही लग रहा था।
जैसे ही फ्लाइट कोलकाता के करीब पहुंची, उसने खिड़की से बाहर देखा। नीचे बागानों और नदियों का नज़ारा साफ़ दिखाई दे रहा था। यह वही नज़ारा था, जिसे उसने पहले भी देखा था। उसे याद आया कि उस समय उसके मन में एक उत्साह था, लेकिन अब सिर्फ़ डर और संदेह ने उसे जकड़ रखा था।
फ्लाइट के लैंड होते ही उसकी धड़कनें तेज हो गईं। उसने खुद को शांत करने की नाकामयाब कोशिश की।
नीना अपने इस मायूसी का अंत करना चाहती थी… उसने ठान लिया था कि वह वापस जा रही थी, और इस बार वह वसुंधरा की कहानी का अंत जानकर ही लौटेगी।
हर बार उसका लौटना उसे कुछ न कुछ नया दिखाकर जा रहा था। उसे ये देखना था कि इस बार उसके साथ क्या होने वाला था। क्या इस बार वो किसी नतीजे पर पहुँचेगी या नहीं ?
सोचते हुए मिस्टर चौधरी की मर्सेडीज़ से वो बागान बाड़ी पहुँच चुकी थी। पैर रखते ही उसे हवेली की जानी-पहचानी घुटन महसूस हुई, जिसे वो कुछ दिनों पहले अच्छी तरह से महसूस करके गई थी। यह जगह जितनी आलीशान थी, उतनी ही डरावनी भी। बाड़ी के चारों ओर का सन्नाटा और ठंडी हवा उसे पहले से कहीं ज़्यादा असहज कर रही थी। लेकिन दिल्ली में भी वो कहाँ सुकून से थी? वहाँ भी पिगमेंट और वसुंधरा ने उसका पीछा नहीं छोड़ा था।
बाड़ी में पहुँचते ही सबसे पहले वो स्टूडियो में गई। किसी ने उस पेंटिंग को कपड़े से ढक दिया था और उस आँख के आगे एक छेद था जो कि नीना जानती थी, इसी आँख ने बनाया होगा। नीना ने देखा जैसे वो आँख उसका ही इंतज़ार कर रही थी, उसमें एक अलग तरह का आभार दिखाई दे रहा था। नीना ने वो कपड़ा हटाया और उसे देखा।
उसने वक्त ज़ाया किए बिना पैलेट उठाया, ब्रश निकाले, ग्लास में पानी डाला, उसमें ब्रश डुबोए और रंग निकाल कर उसमें पिगमेंट डाला, और मिक्स करने लगी। लेकिन जब वह रंगो को दाईं ओर मिलाने की कोशिश करती, तो रंग बाईं तरफ खिसक जाते, और जब बाईं ओर मिलाती, तो रंग दाईं ओर चले जाते। जब ऊपर-नीचे मिलाने गई तो वो आजू-बाजू होने लगे। वो अपनी भौहें सिकोड़ते हुए मन ही मन बोली, “अब ये क्या नया टंटा है?”
मानो रंग उसके नियंत्रण का विरोध करने लगे थे, जैसे वे उसकी मानने की बजाय अपनी मर्ज़ी से चलने लगे हों। जब नीना ने ब्रश को कैनवास पर चलाया, तो उसे लगा कि उसके स्ट्रोक से रंग छिटक कर दूसरी तरफ़ चला गया हो। उसे लगा मानो पिगमेंट उसका विरोध करके अपनी मर्ज़ी का करना चाहते हैं।
जैसे-जैसे नीना पेंटिंग पर काम करती गई, उसे अजीब पैटर्न नजर आने लगे। वो बनाना कुछ चाहती थी, और बन कुछ और रहा था। उसका ब्रश जैसे किसी जादूगर के वश में था और वो अपनी छड़ी हिला कर उसका चलना तय कर रहा था। जब वह उसे रोकने की कोशिश करती, तो भी वह चलता ही रहता। पोर्ट्रेट के निचले कुछ हिस्सों में रंग ऐसे भर रहे थे, जैसे वे खुद को आकार दे रहे हों, और नीना उन्हें बस देखती रह गई। यह सब उसकी समझ से परे था। क्या वास्तव में यह सब उसके हाथों की कलाकारी थी, या कुछ और?
उसके लिए आज यह रंगों का खेल एक नई चुनौती बन गया था। कुछ तो गलत हो रहा था, यह सोचते हुए जब भी वह रुकने की कोशिश करती, उसे एक ठंडी साँस महसूस होती, जैसे कोई उसके पास खड़ा हो, जो उसे यह बताना चाहता हो कि उसे आगे बढ़ना चाहिए। नीना ने अपनी आँखें बंद कर ली और गहरी सांस ली। उसने खुद को समझाया, "बस इसे खत्म करते हैं, फिर सब कुछ ठीक होगा।"
उसने ईज़स को थोड़ा एडजस्ट करने के लिए हाथ पोर्ट्रेट के पीछे किए, तभी उसका हाथ किसी नुकीली चीज़ से कट गया और उसकी उंगली से यकायक खून निकलने लगा। उसने खुद को संभाला और अपनी उंगली मुँह तक ले जाने लगी, लेकिन वह अपना हाथ ही उठा नहीं पा रही थी!! उसका हाथ खींचकर पोर्ट्रेट में वसुंधरा के होंठों से जा टकराया। और उसके होंठों के लाल रंग के पिगमेंट से मिलने लगा। वो चंद मिनटों तक अपनी उंगलियाँ उसके होंठों के रंग से मिलाती रही, ऐसा लग रहा था मानो नीना पर कोई हावी हो चुका है।
कुछ देर बाद उसने दोबारा काम शुरू किया। कई घंटों की मशक़्क़त के बाद उसने देखा कि वसुंधरा के होंठ पूरे हो चुके हैं, और वह उन्हें हिला रही है। पेंटिंग में अब उसे चेहरे के दाहिनी तरफ़ के सारे भाग दिखाई दे रहे थे। वसुंधरा अब मुस्कुरा सकती थी और आँखों से इशारे कर सकती थी। इतना सजीव पेंटिंग कि नीना की आँखें यकीन करने को तैयार नहीं थीं कि ये वही है। आज नीना अपनी पेंटिंग की प्रगति देख कर खुश हुई।
उसे सतीश का वीडियो कॉल आया।
सतीश : 'कहाँ है तू?
नीना: कोलकाता, और कहाँ?
सतीश : अरे हद है यार, तू बिन बताए क्यों चली गई? ये कोई तरीका होता है??”
नीना : “जल्दी में थी, बस काम पूरा करना था। अच्छा सुन, तुझे मैं पोर्ट्रेट दिखाऊं? एक जीता-जागता पोर्ट्रेट?”
सतीश : हाँ…. दिखा।
नीना : ये देख, और ये आँखें झपकाती भी हैं!
कहते हुए, नीना ने मोबाइल का कैमरा फ्रंट से चेंज करके पोर्ट्रेट की तरफ़ घुमाया।
सतीश: कुछ दिख नहीं रहा।
नीना: ठीक से देख ना!
कहते हुए जैसे ही नीना ने अपनी तरफ़ किया, उसे नीना की शक्ल दिखने लगी।
नीना: तूने देखा मेरी जीती-जागती पेंटिंग?
सतीश को नीना का चेहरा थोड़ा अलग लग रहा था, मानों सामने जो खड़ा है वो नीना नहीं है। नीना कभी अपनी आर्ट की इतनी तारीफ़ नहीं करती थी। उसकी आँखें चमकने लगी थीं, और चेहरे के भाव डराने वाले थे। आखिर नीना के साथ क्या हो रहा है, वो सोचने लगा।
नीना: आज मम्मा ज़िंदा होती, तो कितना खुश होतीं। उन्होंने ही मुझे रंगों से खेलना सिखाया था।
सतीश: हाँ, सच में वो खुश होतीं। वैसे अंकल से बात किए कितना वक़्त हुआ?
नीना: बहुत वक़्त हो गया।
सतीश: “कभी उन्हें भी व्हाट्सएप्प कर दिया कर, उसके चार्जेज़ नहीं लगते।”
नीना: “वेरी फनी, हह, सब पता है मुझे।”
सतीश: “अच्छा, पोर्ट्रेट तो ठीक से दिखा दे।”
नीना ने दोबारा मोबाइल का कैमरा टर्न किया, लेकिन सतीश इस बार भी उसे नहीं देख पाया।
नीना: “अब दिखाई दिया?”
सतीश: “नहीं। पता नहीं क्या दिखा रही है तू?”
रुक! कहती नीना ने इस बार फ्रंट कैमरा से ही उसे अपने साथ वो पोर्ट्रेट दिखाया। चूंकि सामने नीना भी थी, अब उसे पोर्ट्रेट दिखाई दिया, लेकिन उसे ये एक सामान्य पोर्ट्रेट ही लगा। सतीश के सामने ना ही वो बाल लहरा रहे थे, ना ही आंखें झपक रही थीं, और ना ही होंठ हिल रहे थे।
नीना: “देखा तूने? कैसे बाल लहरा रहे हैं?”
सतीश: “नीना, क्या हुआ है तुझे? मुझे तो कुछ भी नहीं दिख रहा। पागल हो गई है क्या?”
पागल हो गई है ये शब्द उसे परेशान कर गए। क्या सच में जो हो रहा था, वो सिर्फ़ उसके दिमाग का भ्रम था? उसने कॉल कट किया।
वो बाहर निकली और शंभू को पकड़कर स्टूडियो में लाई और पूछा, "दादा, आपको ये बाल हवा में लहराते दिख रहे हैं?"
शंभू ने देखा तो उसने ना में सिर हिला दिया।
नीना: "क्या बात कर रहे हो?"
कहते हुए वो परेशान हुई। उसने कहा, "देखो, आँख अभी झपकाई थी।"
शंभू ने देखा तो ऐसा कुछ नहीं हुआ था।
नीना घबरा गई। अभी 15 मिनट के भीतर दो लोगों ने उसे पागल करार दे दिया था। अगर वो ये बात किसी तीसरे को बताती, तो वो भी उसे पागल ही कह देता।
शंभू को उसकी हरकतें वैसे ही अजीब लगती थीं। वह उसकी हरकतों से डरते हुए स्टूडियो से बाहर निकल चुका था।
नीना मदहोश नज़र आ रही थी। सुबह जो नीना दिल्ली से लौटी थी, ये उससे कहीं अलग थी। ये अपने किए हुए काम से इतनी प्रभावित थी कि सबको बुला-बुला कर बता रही थी।
वो सोच में खड़ी थी कि उसे वसुंधरा की आवाज़ सुनाई दी - "तुई जानिश, ओ की कोरेछे?"
तुझे पता है उसने क्या किया?
नीना: 'कौन?'
नीना ने बिना पलटे ही पूछा।
पीछे सन्नाटा था।
“क्या आप मुझसे बात कर रही हैं?" नीना ने पूछा, उसकी आवाज़ में आतंक था। "आप मेरे सपनों में क्यों आते हो?" नीना सवाल करती रही, लेकिन जवाब में उसे सन्नाटे के सिवाय कुछ नहीं मिला।
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