नीना अपने हाथों पर लगे रंगों से परेशान थी। वह दौड़कर वॉशरूम में गई और अपने हाथों को मल-मलकर धोने लगी। उसने पहले उन्हें हैन्डवॉश से साफ़ करने की कोशिश की लेकिन रंग उसके हाथ से उतरा ही नहीं। फिर शैम्पू, साबुन, टूथपेस्ट.. जो भी हाथ आया.. सबसे अपने हाथ धोए लेकिन अफ़सोस, रंग उसके हाथों से छूटा ही नहीं। इतने घिसने के बाद उसके हाथ छिल गए और उन पर जलन होने लगी। वह हाथों को फूँक मारते हुए बाहर आई।
नीना : "मैंने इतनी पेंटिंग्स बनाई हैं लेकिन आज तक इतने गहरे निशान मेरे हाथों पर कभी नहीं रहे। ये मेरे हाथों पर इस रंग का असर इतना कैसे हुआ कि कमबख्त उतर ही नहीं रहा है?"
फिर बाहर आकर उसने अपने हाथों पर क्रीम लगाया। उसे याद आया कि वह कल पेंटिंग करने तो लगी थी लेकिन क्या बना पाई, ये उसे याद ही नहीं था। वह स्टूडियो की तरफ़ गई। सामने देखा तो ट्राइपॉड पर कैन्वस लगा था जिसे पेंट करना शुरू तो किया था लेकिन उसे कुछ याद क्यों नहीं आ रहा था? आखिर ऐसा क्यों हो रहा था कि नीना को पिछली रात के बारे में कुछ याद ही नहीं था? उसकी नज़र दोबारा कैन्वस पर पड़ी। उसने देखा कि कैन्वस पर थोड़ी-सी उकेरी हुई माथे की आकृति है लेकिन ये थोड़ा-सा हिस्सा कितना जीवंत प्रतीत हो रहा था।
नीना : “कितना रियल लग रहा है! क्या मैंने इसे बनाया है? मैंने ही किया है… पर वाह, नीना! क्या काम किया है! सच में, मेरे हाथों में जादू है!”
नीना अपने-आप से सवाल-जवाब करने लगी. उसके ज़ेहन में हर तरह के सवाल आ रहे थे।
नीना: “पता नहीं क्या चक्कर है?"
उसका दिमाग सच में ठनक चुका था। नीना अपने हाथों पर लगे रंग को देखते हुए वापस गेस्ट रूम में आई। वह परेशान-सी बिस्तर पर बैठी कि तभी शंभू ने दरवाज़ा खटखटाया और अंदर आकर नीना को बोला कि बड़े बाबू उनका नाश्ते पर इंतज़ार कर रहे हैं। “ठीक है, मैं आती हूँ,” कहते हुए नीना तैयार होने लगी। कल रात उसके साथ जो हुआ, वो उस चिंता से निकल नहीं पा रही थी कि सत्यजीत का बुलावा आ गया। वह तैयार होकर नाश्ते की मेज़ पर पहुँची। सत्यजीत की नज़र उसके हाथों पर गई लेकिन उस बारे में वह कुछ बोले नहीं।
सत्यजीत: “गुड मॉर्निंग नीना!”
नीना: “गुड मॉर्निंग”
यह कहकर नीना ख़ामोश हो गई। सत्यजीत ने उसे सामने कुर्सी पर बैठने का इशारा किया। वह चुप-चाप बैठ गई। नीना की परेशानी सत्यजीत की नज़रों से छिपी नहीं थी। उसने देखा कि ऐ.सी. का टेम्परेचर भी ठीक था, फिर भी नीना के माथे पर पसीने की बूंदें थीं।
सत्यजीत: “क्या बात है, नीना? आपकी नींद पूरी नहीं हुई?”
नीना क्या ही कहती? उसे तो अपना सुख, चैन, नींद कुछ भी पूरा लग नहीं रहा था। जब से उसने चौधरी बागान बाड़ी में क़दम रखा था, तब से ही कुछ अजीब-ओ-ग़रीब हरक़तें हो रहीं थीं।
नीना: “नहीं, …. मतलब हाँ।”
सत्यजीत: “इसका मतलब मैं क्या समझूँ?”
आधा-अधूरा जवाब पाकर सत्यजीत ने दोबारा सवाल किया।
नीना: “जी ठीक हुई...”
आज नीना का ध्यान खाने में नहीं था। सत्यजीत, उसे सहज करते हुए, बातचीत करते रहे।
सत्यजीत: “तो आपने अपना काम शुरू कर दिया?”
नीना: “हाँ...”
सत्यजीत: “वेरी गुड!"
सत्यजीत नीना के जवाब से खुश हुए। फिर वह आराम से अपना नाश्ता करते रहे। नाश्ते के बाद सत्यजीत ने कहा,
सत्यजीत: “आइए, मैं आपको अपनी लाइब्रेरी दिखाता हूँ। फिर कहीं आपने उसे खुद से देख लिया तो नाराज़ होंगी कि मैंने आपको वो क्यों नहीं दिखाया...”
वह हंसने लगे। नीना अब जाकर मुस्कुराई। वह थोड़ी सहज होते हुए उस दिन के बारे में सोचते हुए बोली,
नीना: “सॉरी, मैं कभी-कभी बच्चों की तरह हरकतें कर देती हूँ।”
सत्यजीत: “कभी-कभी नहीं, आप बच्ची ही हैं...”
दोनों वहाँ से सीढ़ियों से ऊपर की तरफ़ आए। एक पुराने कमरे के बाहर से निकलते वह ठिठक कर रुके। सत्यजीत ने बताया की यह कमरा हमेशा बंद रहता है। नीना ने उस तरफ़ देखा।
सत्यजीत: “इस सालों पुरानी हवेली का एक इतिहास है जो कि सच में बहुत दुखद है... वसु को भी मैंने खो दिया...”
नीना: “कैसा इतिहास?”
सत्यजीत: “ऐसा लगता है मानो कल की ही बात हो….. वसु इन्हीं सीढ़ियों से अपनी चाबी का गुच्छा अपने पल्लू पर लगाए इस हवेली में घुमते हुए इसे रोशन कर रही हो...”
सत्यजीत की बात अधूरी रह गई क्योंकि तब, वहाँ उनकी सर्करेटरी पहुँच गई और उसने उन्हें बताया कि वसुंधरा फाउंडेशन के हेड, चैरिटी के लिए उनसे मिलने आए हैं। वसुंधरा के मरणोपरांत, सत्यजीत ने उसके नाम से यह चैरिटी फाउंडेशन चलाते हैं जो आर्ट और आर्टिस्ट की मदद करता है। सत्यजीत इस मीटिंग के बारे में भूल गया था। उसने स्माइल करते हुए सेक्रेटरी को उनके ऑफिस में फाउंडेशन के हेड को बिठाने के लिए कहा।
सत्यजीत: “नीना, अभी मुझे जाना होगा। आपसे फिर मुलाकात होगी। वैसे, लाइब्रेरी यहाँ से आगे जाकर आखिरी कमरे में है, ऑन योर लेफ्ट… आप खुद देख लीजिएगा और कुछ पढ़ने का मन हो, तो बेझिझक ले लीजिएगा...”
यह कहकर सत्यजीत वहाँ से निकल गए।
नीना: “हम्म… बुक तो लेनी बनती है, बॉस। नहीं तो मैं पागल ही हो जाऊँगी...”
नीना का भारीपन खत्म होने का नाम नहीं ले रहा था। ऊपर से हाथों का रंग उसे परेशान कर रहा था।
नीना लाइब्रेरी की तरफ़ आगे बढ़ी, लेकिन ये क्या? वह वहाँ से सत्यजीत के बताए डिरेक्शिन में जाने की बजाय दाहिने हाथ की तरफ़ बढ़ गई। उसका ध्यान वहाँ से आगे जाकर बने एक कमरे के दरवाज़े पर गया। उस पर बनी मूर्तिनुमा नक्काशी उसे अपनी ओर खींचने लगी... मानो उस मूर्ति की आँखों ने उसे वशीभूत कर लिया हो। उसने आस-पास देखा कि कहीं कोई है तो नहीं... उसको उस कमरे के बारे में पता करना था।
नीना उस कमरे की तरफ़ आगे बढ़ी... वह सहमी हुई थी लेकिन यह पता तो करना ही था कि यहाँ क्या है, जो उसे आकर्षित कर रहा है। उसने कमरे का दरवाज़ा धकेला। ‘चर-चर’ की आवाज़ के साथ वो भारी लकड़ी का दरवाज़ा खुल गया। पहले तो नीना उस आवाज़ से डर गई फिर हिम्मत करके अंदर पैर रखा। पुराने कमरों की एक अलग ही स्मेल होता है। अंदर जाने पर उसने देखा कि वह कमरा वर्षों पुरानी कला और मूर्तियों से भरा हुआ था।
वह उन्हें देखती हुई आगे बढ़ रही थी। एक पल को तो उसे लगा मानो ये सब मूर्तियाँ सजीव हो और उसे घूर रही हों... उनकी आँखें बेहद डरावनी लग रही थीं। अगर ध्यान से सुनती तो शायद उन्हें उनके सांस लेने की आवाज़ भी सुनाई दे देती।
उसकी नज़र कोने में खड़ी एक बड़ी-सी मूर्ति पर गई। उसकी बड़ी आँखें और नुकीले दांत देखकर नीना को लगा मानो यह उसे अपने अंदर समा लेगी! अब नीना के लिए एक पल भी यहाँ ठहरना सही नहीं था। वह पलटी और दौड़कर उस कमरे से बाहर निकल आई । नीना वहाँ से आगे बढ़ी। पूरे कॉरिडोर में समान दिखने वाले खिड़कियाँ थीं, जहाँ से बाहर दूर तक का नज़ारा देखा जा सकता था। उसे हवेली के पीछे तालाब दिखाई दे रहा था। दूर-दूर तक किसी का कोई नामो-निशान नहीं था। हाँ, यह आम बात है कि पहले के वक्त में जमींदार, राजा-महाराजा जैसे लोग अपने महलों को सामान्य बस्ती से दूर बनाते थे लेकिन नीना कभी इस तरह के माहौल में नहीं रही। यही बात नीना को बैचेन कर गई।
उसके पास सब कुछ डिस्कस करने के लिए इकलौता शख्स था - सतीश। उसने उसे कॉल किया, जो कि मुश्किल से लगा। यहाँ उसे थोड़ी कनेक्टिविटी में प्रॉब्लेम थी।
सतीश : “जी कहिए, महारानी साहिबा...”
नीना: “अच्छा सुन, मुझे यहाँ कुछ अजीब-सा लग रहा है….. मतलब, तूने उस वक्त समझाया था लेकिन हर बार जब कुछ होता है…?”
सतीश : “मैंने तो तुझे पहले ही मना किया था कि पछड़ों में ना पड़ लेकिन तुझे तो शौक है... बैल के सामने खड़े होकर नाच-नाचकर कहो कि आ मार, आ ना, अरे मारकर दिखा ना... अब बैल आ गया तो तू डर गई... अब तो बेटा...”
नीना बोली: “शट-उप यार... लिसन टु मी ना, प्लीज़! यहाँ मुझे सच में कुछ गड़बड़ लग रही है।”
सतीश: “देख नीना, मेरी बात मान और कल सुबह की फ़्लाइट ले और वापस आ जा... हर बात में अपनी ना चलाया कर..”
नीना भी यही सोच रही थी लेकिन उसकी उंगलियों में कुछ सरसराहट और अजीब-सा एहसास महसूस हुआ, मानो अगर उसने पेंटिंग पूरी नहीं की तो कुछ बहुत बुरा होगा। वह अपने हाथों पर खुजली करने लगी।
****
अब चलते हैं दिल्ली।
एक लड़की लगातार नीना के फ़्लैैट की घंटी बजा रही थी लेकिन नीना तो वहाँ थी नहीं। काफ़ी देर दरवाज़ा न खुलने पर वह डोर व्यूअर से झाँकने लगी लेकिन कुछ दिखाई नहीं दिया। उस खुराफ़ाती और जासूस दिमागवाली लड़की ने हर एंगल से देख कर यह कन्फ़र्म कर लिया कि मोहतरमा अपने फ़्लैैट से ग़ायब हैं।
“ये लड़की आखिर गई कहाँ?” सोचते हुए वह नीना के फ़्लोर पर बने पास वाले फ़्लैट में चली गई। यह लड़की थी अंजली मिश्रा।
इनकी तांक-झाँक करने वाली हरक़तों से अंदाज़ा तो लगा लिया होगा कि यह हैं एक जर्नलिस्ट। रिपोर्टर अंजलि मिश्रा।
मुद्दे की तह तक जाना हो या बाल की खाल निकालनी हो, इन दोनों ही बातों में अंजली का कोई मुक़ाबला नहीं। अंजली, नीना की पड़ोसन है। इन दोनों ने अच्छे पड़ोसियों जैसे चीनी की लेन-देन से लेकर जीवन के फलसफ़े साझा कर, अब अच्छे दोस्त बन गए थे। खैर, अंजली ने अपने फ़्लैैट में आकर उसे कॉल किया। नीना उस वक़्त अपने हाथों को घूर रही थी।
नीना: “हैलो... हे अंजली!!”
अंजली: “हाँ जी, मैडम, कहाँ है आप? कब से बेल बजा रही हूँ...”
नीना: “यार.. मैं न... एक पोर्ट्रेट बनाने के सिलसिले में कोलकाता आई हुई हूँ।”
अंजली: “वाह! और बताया तक नहीं!”
नीना: “ नहीं यार, वो न…”
अंजली: “हाँ हाँ। .. ठीक है, ठीक है… कैसा पोर्ट्रेट बे?”
नीना ने उसे पूरी बात बताई, कैसे वसुंधरा इवेंट्स में उसे सत्यजीत मिला और उसे यहाँ आने का न्योता दिया। फिर वह यहाँ आकर काम करने लगी। नीना की आवाज़ से साफ़ पता चल रहा था कि वो थोड़ा टेन्स है।
अंजली: “बाकी सब तो ठीक है, लेकिन तू इतना मुरझाया क्यों साउन्ड कर रही है?”
नीना: “यार, यहाँ काफ़ी चीज़ें अजीब तरीके से हो रही हैं.. और मैं वो पोर्ट्रेट करके ही वापस आना चाहती हूँ।”
अंजली : “तो, तुझे बंगाली दाल में कुछ कला नज़र आ रहा है!”
नीना : “कुछ भी बोलती है, यार तू! हाँ… मतलब समझ में नहीं आ रहा की मामला क्या है…”
अंजली: “तू टेंशन मत ले, मैं ज़रा देखती हूँ... इस सत्यजीत की हवेली के पीछे का माजरा क्या है? इसका कच्चा चिट्ठा खोलती हूँ... तू अपना ख्याल रखना। मैं जल्द-ही तुझे कॉल करूंगी… चल, बाय...”
नीना: “हाँ!! बाय।”
उसके बाद नीना ने लाइब्रेरी से एक किताब ली और अपने कमरे में आकर किताब में खो गई। देखते-देखते दिन गुज़र गया। रात का खाना उसने अकेले खाया। अपने रूम की तरफ़ वापस आते समय, उसे अपने पीछे धीमे कदमों की आहट सुनाई दी।
उसके माथे पर पसीने की बूंदें उभर आईं... आँखों की पुतलियाँ आजू-बाजू देखने लगीं... पलट कर देखूँ या नहीं? वह आगे बढ़ी कि वह आहट दोबारा सुनाई दी। इस बार उसने अपनी मुट्ठियाँ भिंची और पलट गई लेकिन पीछे तो कोई नहीं था!
ऐसा है ना कि वहम की एक लिमिट होती है जो नीना के केस में क्रॉस हो चुकी थी! कोई चीज़ एक-दो बार हो, उसे आप वहम कह सकते हैं, लेकिन बार-बार कुछ होना और होते रहना वहम नहीं, सच्चाई होती है।
अब उसे नींद आने से रही। उसने सोचा चलो पोर्ट्रेट को आगे बढ़ाया जाए। वह गेस्ट रूम ना जाकर स्टूडियो में गई, लाइट्स ऑन किया, ऐप्रन पहना और कलर, पिगमेंट, ब्रश उठाकर पेंट करना शुरू किया ही था कि उसे पीछे से आती रोशनी में एक छायादार आकृति के खड़े होने का एहसास हुआ...
उसके दिल की धड़कन थोड़ी बढ़ गई! उसकी साँसें तेज़ होने लगीं। नीना ने सोच कि जल्दी से मुड़ती हूँ और देखती हूँ कि कौन है मेरे पीछे। वह झट से पीछे मुड़ी पर वहाँ कोई नहीं था..
क्या सच में कोई नीना के पीछे था?
वह कौन है जो उसका पीछा कर रहा था?
नीना के हाथों पर पिगमेंट का इतना पक्का रंग कैसे चढ़ा?
No reviews available for this chapter.