रणवीर की बातें यहीं खत्म नहीं हुई थीं। आरव अभी तक यह सोच रहा था कि सिर्फ़ दौलत ही सुहानी की नीयत का मकसद था। मगर रणवीर ने उसके सामने एक और झूठ को सच बना कर एक परत की तरह खोल दिया था—एक ऐसी साज़िश की परत, जो वर्षों पुरानी थी और जिसमें उसकी पूरी दुनिया उलझी हुई थी।
"और एक बात और जान ले, आरव," रणवीर ने सधी हुई लेकिन सख़्त आवाज़ में कहा।
“शिव प्रताप—सुहानी का बाप—अब जेल में है। उसी धोखाधड़ी के केस में, जिसकी वजह से तेरे पिता... शमशेर राठौर... ने अपनी जान ले ली थी।”
आरव के भीतर कुछ टूटता सा महसूस हुआ। वो ये बात जानता तो था, मगर अपने पिता की मौत का कारण फिर से जानना उसके लिए कड़वा ज़हर था। उसका शरीर वहीं जड़ हो गया, और यादें लहू बनकर उसकी रगों में दौड़ने लगीं—पिता का शांत चेहरा, अचानक हुई मौत, और तब से शुरू हुआ दर्द जो आज तक कम नहीं हुआ था।
“क्या? शिव प्रताप जेल में है?” उसने धीमी आवाज़ में पूछा, जैसे यक़ीन करने से पहले खुद को परख रहा हो।
"हाँ," रणवीर ने आगे कहा, “शमशेर भाई को जो अपमान झेलना पड़ा था, शिव प्रताप के धोखे की वजह से, जिसमे करोड़ों का घोटाला, और साथ ही नाम राठौर परिवार का डूबा। जब सच सामने आया, तब तक बहुत देर हो चुकी थी। शमशेर भाई उस बेइज़्ज़ती को सह नहीं पाए, और उन्होंने आत्महत्या कर ली। अब जब हम लोगों ने उसे जेल में डाल दिया है, तो सुहानी तुझे अपने जाल में फँसाकर, अपने पिता को छुड़वाने की कोशिश करेगी।”
रणवीर की आँखों में अब चेतावनी थी।
“वो तेरे करीब आएगी, तुझसे हमदर्दी जताएगी, प्यार का नाटक करेगी और जैसे ही मौका मिलेगा, अपने बाप को जेल से बाहर निकाल लेगी। फिर वही अधूरा खेल दोबारा शुरू होगा—हमें रास्ते से हटाने का। ताकि इस हवेली, इस विरासत, इस सत्ता पर सिर्फ़ उनका राज हो। सब कुछ…फाइनली सुहानी के ज़रिये उनके नाम हो जाएगा।”
आरव की साँसें तेज़ हो गईं। अब उसे अपने सामने सुहानी के हर नाटक, हर आंसू, हर शब्द एक चाल लगने लगे थे। उसके दिल में अब मोहब्बत नहीं, बस एक सवाल था—क्या ये सब सच है? या मैं सिर्फ़ एक मोहरे की तरह इस्तेमाल हो रहा हूँ?
रणवीर की बातों ने उसका मन पूरी तरह झकझोर दिया था। अब वो किसी पर यक़ीन नहीं कर सकता था…ख़ासकर उस रिश्ते पर, जिस में लोग अपने ज़िंदगी की सबसे ज़्यादा नज़दीकियाँ पाते हैं—सुहानी के साथ उसकी शादी का रिश्ता झूठा था, एक फरेब था। वो ये साफ़-साफ़ समझ चुका था।
दूसरी तरफ, सुहानी की दुनिया एक अलग ही जंग से गुजर रही थी। वो उस कशमकश में थी जहाँ दिल चीखना चाहता था, पर ज़ुबान पर ताला था। वो आरव से कुछ कहना चाहती थी—सब कुछ। उसे सच्चाई बताना चाहती थी, हर झूठ का पर्दाफाश करना चाहती थी…मगर अब ऐसा करना नामुमकिन हो गया था। आरव का सच से सामना, उसकी ज़िंदगी को तोड़ सकता था। वो जानती थी कि आरव का दिल पहले ही घावों से भरा हुआ है। किसी भी तरह का झटका अब उसके लिए जानलेवा हो सकता है।
"नहीं," सुहानी ने खुद से कहा था, “मैं आरव को और नहीं टूटने दूंगी।” वो चाहती तो थी कि एक-एक करके राठौर परिवार के सारे राज़ सामने ला दे, शिव प्रताप और काजल की बर्बादी का सच बाहर रखे, गौरवी और दिग्विजय की साज़िशों को बेनकाब करे…आरव कि माँ, पिता, और भाई के साथ हुए अत्याचार को उसके सामने खोल कर रख दे। मगर अगर उसने ऐसा किया, तो सबसे पहले उस आग में आरव जलेगा और वो अब किसी भी हाल में आरव को तकलीफ़ नहीं देना चाहती थी। वो जानती थी कि एक बार फिर सब उसे ही दोषी ठहराएंगे।
दिग्विजय और गौरवी पहले भी आरव को उसके खिलाफ भड़का चुके थे, और अब दोबारा वही करने जा रहे थे…सुहानी को इसका एहसास था। उसे मालूम था कि अब फिर से वही नफरत उसकी ओर लौटेगी—आरव की आँखों में जहर बनकर। वो फिर से उसके नज़रिये में एक स्वार्थी, चालाक, लालची लड़की बन जाएगी।मगर इस बार…वो तैयार थी।
“अगर आरव की सलामती इसी में है, तो मैं उसकी नफरत भी झेल लूंगी। वो मुझे गलत समझे, मुझसे नफ़रत करे, मगर जिए…बस जिए।"
और इस खामोश लड़ाई में, सुहानी ने एक और बार खुद को भुला दिया—आरव के लिए। उस रात हवेली की हवाओं में भी अजीब सी बेचैनी थी। एक ओर आरव था—जिसके दिल में अब शक़, ग़ुस्सा और टूटा हुआ विश्वास उबाल ले रहा था।
दूसरी ओर सुहानी थी—जिसके सीने में सच्चाई की ज्वाला धधक रही थी, पर होंठ अब भी खामोश थे। एक कमरे में आरव बार-बार रणवीर की कहीं बातें, अपने मन में दोहरा रहा था, और दूसरे कमरे में सुहानी, आरव की हर बात को बिना सुने भी महसूस कर पा रही थी। दिलों की इस दूरी में अब बस एक बात शेष थी—फैसला।
क्या आरव नफरत की उस राह पर जाएगा, जहाँ से लौटना मुमकिन नहीं? या सुहानी का त्याग, उसकी चुप्पी, उसके आँसुओं की नमी किसी दिन आरव की जली हुई रूह को सुकून देगी? उस रात न कोई चीख़ निकली थी, न कोई आँसू। बस दो दिलों की तड़प थी—एक गलतफहमी की दीवार के आर-पार।
सुबह होने से पहले ही हवेली के गलियारों में हलचल शुरू हो चुकी थी। पर उस हलचल के बीच दो कमरे ऐसे थे, जहाँ हर आवाज़ सन्नाटे से दब चुकी थी—एक आरव का, दूसरा सुहानी का कमरा। आरव, जो अब तक अपनी हर भावना को छुपाने में माहिर था, अब खुद से हार चुका था। रणवीर की बातें उसके ज़ेहन में हथौड़े की तरह गूंज रही थीं।
“अगर सुहानी सच में मुझसे सिर्फ़ अपने बाप के लिए जुड़ी है, तो… तो मैं क्या हूँ? एक सीढ़ी? एक ज़रिया?”
उसने खुद से पूछा। वो चाहता था कि सुहानी सामने आए, कुछ बोले, कोई जवाब दे—पर एक अजीब सी चुप्पी अब उसके और सुहानी के बीच दीवार बन चुकी थी। उसे याद आए वो लम्हे जब सुहानी ने उसकी आँखों में देखकर कहा था, “मैं झूठ नहीं बोल रही।” क्या वो भी एक झूठ ही था? दूसरी ओर, सुहानी के हाथ में वही पुराना बक्सा था—जिसमें काजल की तस्वीरें, खत, और वो दस्तावेज़ थे जो सब कुछ पल मे जंग उजागर कर सकते थे। पर वो जानती थी, ये सब दिखाने का मतलब होगा…आरव का टूट जाना। उसने बक्सा बंद किया और अलमारी के एक कोने में छिपा दिया।
“जब वक़्त आएगा, सच खुद सामने आएगा।” उसने खुद से कहा। “तब तक... मैं हर दर्द अकेले सह लूंगी।”
उसी शाम, डाइनिंग हॉल में पहली बार आरव और सुहानी आमने-सामने बैठे। पर नज़रों का मिलना तो दूर, आरव की आँखों में अजनबीपन, और नफरत साफ़ नज़र आ रही थी। और सुहानी ने भी अपना दर्द एक शालीन मुस्कान में छुपा लिया था। दिग्विजय, गौरवी और बाकी सदस्य हालात का तमाशा देख रहे थे। उनकी नज़रें साफ कह रही थीं—“अब आरव भी फिर से हमारे क़दमों में है।” पर उन्हें नहीं पता था, इस चुप्पी के पीछे कोई कमजोर नहीं, दो मज़बूत इरादे बैठे थे—एक साज़िश को समझने का, दूसरा उस साज़िश को सहकर जीतने का।
अगली सुबह, हवेली में एक नई हलचल होती है। शिव प्रताप का केस अदालत में दोबारा खुलता है और इस बार, किसी ने कोर्ट में नए सबूत जमा करवा दिए हैं—गुमनाम नाम से। दिग्विजय घबरा जाता है, “कौन है ये? किसने भेजे हैं ये कागज़ात?” उसके हाथ काँपते हैं। पर जवाब किसी के पास नहीं था—केवल एक शख़्स के पास था, आरव राठौर के पास।
रणवीर की कही हर बात उसके ज़ेहन में हथौड़े की तरह गूंज रही थी। उसका दिल अब मीरा के लिए उसके मन में मोहब्बत और सुहानी के लिए बेशुमार नफ़रत के दो ध्रुवों के बीच खिंचता जा रहा था, और इस बार उसने अपने दिल की, और अपने ज़ख़्मी अतीत की भी सुनी। नफ़रत ने जैसे उसके आंखों पर पट्टी बांध दी थी।
आरव ने वो कर दिया जो शायद कभी सुहानी सोच भी नहीं सकती थी—उसने खुद अपने हाथों से कुछ और ‘सबूत’ अदालत में पहुंचा दिए। ये सबूत, कथित तौर पर शिव प्रताप की धोखाधड़ी से जुड़ी फाइलों, गवाहियों और नकली बैंक ट्रांजैक्शनों के रूप में थे, जिन्हें बड़ी चालाकी से इकट्ठा किया गया था।
उसका एक ही मकसद था—सुहानी को जीतने ना देना। उसे ये दिखाना था कि वो राठौर परिवार के खिलाफ जाकर कुछ नहीं कर सकती, कि वो अब भी बस एक प्यादा है, और चालें अब आरव के हाथ में हैं। जब सुहानी को इस फैसले की भनक लगी, वो अपने ऑफिस में एक मीटिंग में थी।
फोन की स्क्रीन पर जैसे ही “Additional Charges Accepted by Court” की हेडलाइन चमकी, उसका चेहरा सफेद पड़ गया, गला सूख गया। उसने एक पल को आँखें बंद कीं और जब दोबारा खोलीं, तो जैसे उसकी आँखों में आग भड़क रही थी। बिना कुछ कहे, वो उठ खड़ी हुई और सीधे कोर्ट की तरफ दौड़ पड़ी।
कोर्टरूम में पहले से ही हलचल थी। मीडिया के कैमरे बाहर कतार में खड़े थे, अंदर कुछ वकील कानाफूसी कर रहे थे। जज साहब अपनी कुर्सी पर बैठ चुके थे, और सामने शिव प्रताप झुके कंधों के साथ खड़ा था—थका हुआ, कमजोर, लेकिन फिर भी अपनी बेटी की उम्मीद में मुस्कराने की कोशिश करता हुआ।
जैसे ही सुहानी अंदर आई, पूरे कोर्टरूम का माहौल जैसे थम सा गया। उसके कदमों की आवाज़, उसकी तेज़ साँसें, और उसकी आँखों में तैरता तूफ़ान किसी को भी चौंकाने के लिए काफी था।
“माई लॉर्ड,” सुहानी की आवाज़ कड़क थी, “मुझे इस केस में बोलने की इजाज़त दी जाए।”
जज ने सिर उठाकर उसे देखा। कोर्ट की मर्यादा में रहते हुए उन्होंने सिर हिलाया।
“ये जो नए सबूत अदालत में पेश किए गए हैं,” उसने कागज़ की ओर इशारा करते हुए कहा, “ये झूठे हैं…पूरी तरह से मनगढ़ंत। किसी ने साज़िश के तहत इन्हें तैयार करवाया है, ताकि मेरे पिता को और फँसाया जा सके।”
जज ने शांत लहजे में कहा, “मिस सुहानी, अदालत इन सबूतों की वैधता पहले ही जांच चुकी है। हमारे पास डिजिटल और गवाहों की पुष्टि है। अदालत कोई भी फैसला बिना प्रमाण के नहीं करती।”
“मगर मैंने वो प्रमाण देखे हैं, माई लॉर्ड!” सुहानी अब बुरी तरह काँप रही थी। “उनमें से आधे कागज़ों पर मेरे पिता के सिग्नेचर तक फर्ज़ी हैं, मुझे वक्त दीजिए, मैं साबित करूंगी कि ये सबूत झूठे हैं!”
“देरी की कोई गुंजाइश अब नहीं बची, मिस सुहानी,” जज ने सख़्ती से कहा।
“शिव प्रताप को धोखाधड़ी, आपराधिक षड्यंत्र और कंपनी कानून उल्लंघन के आरोप में 4 वर्षों की अतिरिक्त सज़ा दी जाती है। कोर्ट की कार्यवाही समाप्त की जाती है।”
ठाक!
गैवल की आवाज़ पूरे कोर्टरूम में गूंज उठी, जैसे किसी ने सुहानी के सीने पर हथौड़ा मार दिया हो। वो बुत बन कर वहीं खड़ी रह गई, उसकी आँखों में आँसू नहीं थे, सिर्फ़ गुस्सा था—और वो दर्द, जिसे न रोका जा सकता था, न बयां किया जा सकता था।
उसकी नज़र शिव प्रताप पर पड़ी। उसने अपनी बेटी को देख कर हल्की सी मुस्कान दी, जैसे कहना चाहता हो, “मैं जानता हूँ कि तूने बहुत कोशिश की होगी...”
मगर सुहानी के अंदर कुछ टूट चुका था। उसे अब यक़ीन हो चला था कि ये सिर्फ़ एक कानूनी लड़ाई नहीं थी—ये एक ऐसा जाल था जिसमें उसे फँसाया जा रहा था। और वो जानती थी, इस बार ये जाल किसी और ने नहीं—आरव ने खुद बुना था। अब उसकी आँखों में आँसू थे—पर ये हार के नहीं, एक आने वाले तूफ़ान के संकेत थे।
कोर्ट के उस भारी-भरकम फैसले के बाद, सुहानी बाहर निकली तो उसके कदम खुद-ब-खुद लड़खड़ाए। आँखों में आँसू नहीं थे, मगर दिल में एक सूनापन था—ऐसा जैसे किसी ने उसकी आत्मा को निचोड़कर फेंक दिया हो।
बाहर धूप तेज़ थी, मगर उसके भीतर हर रोशनी बुझ चुकी थी। उसने अपने आँचल को कसकर पकड़ रखा था, जैसे वही उसका अंतिम सहारा हो। भीड़ में से रास्ता बनाते हुए वो अपनी कार की ओर बढ़ी, पर तभी उसकी नज़र थोड़ी दूरी पर खड़ी एक और कार पर पड़ी। एक काले रंग की लक्ज़री गाड़ी—जिसे वो कहीं भी पहचान सकती थी।
गाड़ी के अंदर कोई बैठा था। उसकी धड़कन एक पल को थम गई…आरव। वही चेहरा, वही निगाहें—मगर अब उनमें प्यार की जगह नफ़रत की चिंगारियाँ थीं।
उसने सुहानी को देखा, बिल्कुल सीधी निगाहों से। उन आँखों में अब वो softness नहीं थी, जो कभी उसकी धड़कनों को सुकून देती थी। अब वहाँ केवल एक चुनौती थी, जैसे वो कह रहा हो—"मैं सब जान चुका हूँ। अब तुम बच नहीं सकती।"
सुहानी का मन एक पल को कांप उठा। वो चाहती थी कि कुछ कहे, उसे कुछ समझाए… मगर उसकी ज़ुबान पर जैसे ताले लग गए थे। सिर्फ़ नज़रों का संवाद बचा था—और उस संवाद में सिर्फ़ तड़प थी। आरव ने धीरे से अपनी आँखों पर चश्मा पहना, और फिर बिना पलक झपकाए सुहानी को देखा।
एक क्षण बाद… उसने खिड़की का शीशा धीरे-धीरे ऊपर चढ़ाया। वो जो एक झरोखा था आरव की दुनिया का, वो अब बंद हो चुका था। आरव ने ड्राइवर की ओर बिना देखे बस एक ठंडी आवाज़ में कहा— “Let's go.”
गाड़ी ने धीरे-धीरे रफ़्तार पकड़ी और सड़क की धूल उड़ाती हुई वहाँ से निकल गई। सुहानी बस वहीं खड़ी रही, बिल्कुल स्थिर। उसकी आँखें जाती हुई कार को तब तक देखती रहीं, जब तक वो नज़रों से ओझल नहीं हो गई। वो कुछ कह नहीं सकी, रो नहीं सकी, बस खड़ी रही—जैसे पत्थर बन गई हो। उसके होठों से एक धीमी फुसफुसाहट निकली— “तुम भी मुझे छोड़ कर चले गए, आरव...”
क्या सुहानी अपने पिता को बेक़सूर साबित कर पायेगी?
आरव के सामने सुहानी सच लाएगी या बस यूं ही दर्द सेहती रहेगी?
नफरत की आग में किस हद तक जायेगा आरव?
जानने के लिए पढ़ते रहिये, रिश्तों का क़र्ज़।
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