सुहानी छुपकर एक कोने में खड़ी थी। उसकी नज़रें सामने के दृश्य पर टिकी हैं — आरव, मीरा की बाहों में। उसकी दुनिया नहीं रुकी, उसे इसकी आदत हो गयी थी। मगर उसका दिल दुख ज़रूर रहा था।
"दर्द का सबसे गहरा ज़ख़्म वो होता है जो भरोसे को तोड़ता है... मैं तो सिर्फ़ इतना चाहती थी कि जो रिश्ता ज़बरदस्ती से शुरू हुआ था, उसमें थोड़ा सा सच, थोड़ा सा एहसास घुल जाए। पर शायद मेरी सोच ही मेरी सबसे बड़ी दुश्मन है..." सुहानी ने खुद से कहा।
वो अब रोती नहीं थी। उसके हाथ धीरे-धीरे ढीले पड़ गए, आँखों में खालीपन उतर आया, और कदम पीछे हटने लगे — उस दृश्य से दूर। कोई ड्रामा नहीं, कोई आवाज़ नहीं — बस एक ख़ामोश तूफ़ान जो उसके भीतर उठ रहा था।
वो मुड़ती है, धीरे-धीरे उस कमरे से दूर जाने लगती है। हर कदम उसके टूटे हुए दिल के टुकड़े को वापस जोड़ रहा है। भव्य झूमर की रौशनी अब उसकी नज़रों के लिए फीकी पड़ चुकी है।
अपने कमरे में पहुँच कर सुहानी दरवाज़ा धीरे से बंद कर लेती है — न ग़ुस्से से, न दुख में — बस एक ख़ामोश ठहराव के साथ। वो पलभर दरवाज़े से टिक जाती है, जैसे अंदर आने से पहले खुद से लड़ाई लड़ रही हो।
“मैं रो नहीं रही हूँ… क्योंकि आँसुओं का हक़ तब होता है जब कोई सामने हो जो उन्हें समझ सके।”
कमरे की खामोशी भी गूँज रही थी। सुहानी धीरे से आगे बढ़ती है। खिड़की के पास खड़ी सुहानी की आंखें बाहर नहीं, अपने ही भीतर झांक रही थी — अपनी ही यादों के गलियारों में। अंधेरे कमरे में हल्की सी नीली चांदनी पड़ती है, और यादें ताज़ा हो जाती हैं।
कुछ दिन पहले…
आरव कमरे में, बिना दरवाज़ा खटखटाए धीरे से आता है। हाथ में दो कप चाय, आंखों में वही संकोच जो अब अजनबी नहीं लगता।
आरव कहता है…"बाहर बारिश हो रही थी, तो सोचा साथ में चाय पी जाए। सब सो रहे थे तो मैं खुद ही बनाकर ले आया। तुम्हारे हाथ जैसी तो नहीं होगी, लेकिन…पी जा सकती है।" आरव ने चाय की एक चुस्की लेते हुए कहा, एक प्याली सुहानी को पकड़ा दी।
सुहानी चौंकती नहीं, मुस्कुराती है… जैसे उसे अब उसकी आहट पहचान में आने लगी हो। वो दोनों खिड़की के पास बैठ जाते हैं, कप हाथ में थामे, खामोशी साझा करते हुए।
उसके अगले दिन…
आरव कमरे की चौखट पर बैठा है, हाथ में सुहानी की पसंदीदा किताब।
आरव मज़े लेते हुए बोला…."मुझे लगा था सिर्फ मैं ही बोरिंग हूँ, पर तुमसे मिलकर लगता है बोरिंग होना एक आर्ट है।”
सुहानी हँसने लगती है। पहली बार — खुल कर। उस हँसी में कोई बनावट नहीं थी।
तीसरी रात…
आरव चुपचाप आता है, देखता है सुहानी सो रही है। वो कुछ नहीं कहता, बस पास बैठ जाता है — उसकी तरफ पीठ किए, लेकिन उसकी धीमी चलती सांसें उसके पास होने का सबूत देती हैं।
अब वो रोज़ यूँ ही रात को छुप छुप कर मिलने लगे थे।
धीरे-धीरे, सुहानी खुद उसे बताने लगी — अपनी माँ की यादों के बारे में, उसके सपने, उसकी बचपन की बातें, और वो सारे धोखे जिनमें उसकी ज़िन्दगी उलझी हुई है।
आरव सुनता है — गहराई से, बिना टोके, फिर अचानक कहता है….“जब लोग बहुत कुछ सह चुके होते हैं, तब वो दूसरों की खामोशी भी पढ़ना सीख जाते हैं…जैसे तुम।”
वो आखिरी रात जब वो दोनों साथ थे…
सुहानी के बाल उलझ जाते हैं। आरव बिना कुछ कहे, धीरे-धीरे उसके उलझे हुए बाल को सुलझाने लगता है। उसके शरीर के सारे cell इस बात से वाकिफ होते हैं की उसकी उँगलियाँ सुहानी के बालों के सपर्श में हैं, पर उसकी नज़रों में ठहराव होता है।
आरव: “तुम्हारे बाल जब उड़ते हैं ना, तो ऐसा लगता है जैसे सारा वक़्त ठहर जाता है। बिलकुल किसी फिल्म कि कहानी की तरह।”
सुहानी उसकी ओर देखती है — पहली बार बिना कोई दीवार खींचे।
लेकिन आज, सुहानी अब भी उसी खिड़की के पास खड़ी है। वो सब पल उसकी आंखों के सामने तैर रहे हैं — मगर अब उन सब पर एक साया पड़ चुका है — आरव और मीरा की वो झलक।
सुहानी टूटे हुए स्वर में खुद से कहती है, “क्या ये सब सिर्फ दिखावा था? क्या मेरी उम्मीदें भी एक और साज़िश थीं? क्या मेरा यकीन भी खरीदा गया था…?”
एक ठंडी हवा का झोंका पर्दे को सरकाता है, और सुहानी की आंखों से एक खामोश आंसू उसके गाल पर गिरता है — बिना किसी आवाज़ के। रात के सन्नाटे में जब आरव सुहानी के कमरे में लौटता है, तो सब कुछ अजीब सा लग रहा था — एक ख़ामोशी थी जो उसके दिल को चुभ रही थी।
कमरे में कोई नहीं था। सुहानी की चूड़ियों की हल्की सी खनकती हुई आवाज़, या उसकी ख़ुशबू, या फिर सुहानी की सुकून देने वाली परछाई — कुछ भी नहीं। जैसे कोई एक अहम लम्हा वहां से चुराकर ले गया हो।
उसका दिल बेचैन हो गया, उसने अपने कोट का बटन खोला, लेकिन हाथों ने ठहराव खो दिया। एक ही तस्वीर बार-बार दिमाग में घूम रही थी — मीरा का अचानक आकर गले लगना… और उसका उस पल कुछ न कह पाना।
कुछ देर पहले…
सीढ़ियों के पास मीरा रोती हुई उसके सामने आई थी। पल भर में उसने उसे थाम लिया — आँखों में पुरानी यादों का समंदर था।
"आरव… तुम नहीं समझ सकते, मैं कितना टूट चुकी हूँ..." मीरा बुदबुदाई।
आरव चौंका, पर शांत रहा।
"मीरा…" उसने धीमे से खुद को अलग किया, "पुरानी यादों को आज के सच से मत जोड़ो। जो बीत गया है, उसे वापस नहीं लाया जा सकता… और जो आज है, वो… बिल्कुल अलग है।" आरव अंदर से गुस्से से खौल रहा था, मीरा ने जो आरव की माँ के साथ मिल कर उसके साथ किया था, उसका बस चलता तो वो मीरा को खुद से दूर धकेल देता, मगर फिर आगे की सच्चाई का पता उसे कभी ना लग पाता।
मीरा को अपने झांसे में रखना ज़रूरी था। उसे इस वेहम में रखना ज़रूरी था, ताकि वक़्त आने पर उसका सही तरीके से इस्तेमाल किया जा सके।
मीरा ने उसकी आँखों में देखा — उसे अपने लिए अब उनमें फ़िक्र नहीं दिखी। उसे ऐसा लग रहा था जैसे शायद आरव को अब सुहानी से प्यार हो रहा है। मगर वो ये कहाँ जानती थी, कि आरव और सुहानी उसके सच के बारे में जानते थे और आरव की आँखों की बेरुखी, गुस्सा अब उसी वजह से थी।
आरव ने वो लम्हा याद कर के गहरी सांस ली।
“शायद मुझे उसी वक़्त साफ़-साफ़ सब कह देना चाहिए था…,” वो बड़बड़ाया…..पर अब बहुत देर हो चुकी थी।
उसने कमरे के वाशरूम की ओर देखा — दरवाज़ा बंद था और उस दरवाज़े के पीछे… शायद एक टूटा हुआ विश्वास था।
आरव ने कुछ देर तक कमरे के उस बंद दरवाज़े को देखा। वो चाहकर भी आगे नहीं बढ़ पा रहा था। दिल में कुछ था जो बोझ की तरह लिए बैठा था — शायद पश्चाताप, या शायद डर… कि कहीं सुहानी फिर से टूट न जाए।
"सुहानी…" उसने दरवाज़े के पास खड़े होकर पुकारा, “मैंने... जान-बूझकर कुछ नहीं किया… पर शायद मेरी ख़ामोशी ने बहुत कुछ कह दिया।”
अंदर से कोई जवाब नहीं आया। वो दीवार से टिक गया, जैसे उसी दरवाज़े से सवाल कर रहा हो —
“तुम क्यों इतना असर डालने लगी हो मुझपर, सुहानी?”
कल तक जिसे वो सिर्फ एक मोहरा समझता था, आज वही लड़की उसके ज़ेहन में रह-रह कर उस पर हावी होती जा रही थी।
उसे याद आया — कैसे पिछले कुछ दिनों में वो हर रात सुहानी से मिलने जाता था। कैसे उनके बीच बातों की एक डोर बनने लगी थी… कैसे वो उसकी आँखों में झांककर खुद से भागना भूल जाता था।
उसने आँखें बंद की। कुछ दिन पहले…
"आप तो बिल्कुल अलग हैं, बाहर से दिखने वाले आरव से…" सुहानी ने एक रात मुस्कुराते हुए कहा था।
"क्या मतलब?" आरव ने पूछा था।
“मतलब… बाहर से एकदम सख़्त, लेकिन अंदर से बिल्कुल… एक अधूरे शेर की तरह, जो किसी का साथ चाहता है।”
वो हँस पड़ा था, पर उस रात उसे नींद नहीं आई थी। वो रात भर सुहानी की कही हुई बात के बारे में सोचता रहा।
आज उसी अधूरे शेर को लग रहा था — शायद उसने खुद ही अपनी सबसे बड़ी जंग हार दी।
सुबह की पहली किरणें खिड़की से अंदर आ चुकी थीं, लेकिन सुहानी की आंखों में अब भी रात का अंधेरा भरा था। वो रात भर सोई नहीं थी। सिर्फ लेटी रही — बिल्कुल शांत। ना रोई, ना चीखी, ना सवाल किया।
कभी आरव की उन बातों को याद करती जो उसने गुस्से में कही थीं, तो कभी उन पलों को जब उसने पहली बार आरव की आंखों में अपने लिए चिंता देखी थी।
उसने धीरे-धीरे अलमारी से अपना बैग निकाला और कुछ ज़रूरी चीज़ें समेटनी शुरू कर दीं। हर चीज़ को छूते हुए उसे लग रहा था कि मानो हर पल उसके खिलाफ एक कहानी लिख रहा हो।
कुछ घंटे बाद…
आरव उसे ढूंढता हुआ किचन, ड्रॉइंग रूम और गार्डन तक पहुंच चुका था।
गौरवी की नज़रें उस से टकराईं, पर उन्होंने कुछ नहीं कहा — शायद ये खामोशी भी किसी जंग का हिस्सा थी।
आरव, खुद से “तुम कहाँ हो सुहानी?”
जाने से पहले सुहानी ने आरव के लिए एक चिट्ठी लिखी थी, जिसके लिफाफे पर लिखा था, “मुझे जवाब नहीं चाहिए, आरव। मुझे सच्चाई चाहिए… और जब तक आप अपने मन में चल रहे सवालों के जवाब नहीं ढूंढ़ लेते, मैं इस झूठ के महल में कैद नहीं रह सकती।”
वो चिट्ठी आरव के कमरे की टेबल पर रखकर वो घर के उस रास्ते से बाहर निकल गई, जहां से घर के नौकर और माली आया जाया करते थे। — किसी को कुछ भी बिना बताये ।
आरव अपने कमरे में लौटा, तो उसे मेज पर एक सफेद कागज़ रखा दिखा।
हाथ कांपते हुए वो चिट्ठी उसने पढी — सुहानी की लिखावट पहचानने में उसे एक पल भी नहीं लगा।
“आरव,
मैंने आप से सवाल नहीं किए क्योंकि मुझे डर था…
जवाबों से नहीं, बल्कि उन सवालों से जो शायद मैंने खुद से भी नहीं पूछे थे।
आपके साथ बिताए हर लम्हे में मैंने सच्चाई ढूंढ़ी… पर वो उन सारे झूठ के बीच कहीं खो गईं।
मैं जा रही हूं — खुद से मिलने, और उस सच्चाई तक पहुँचने, जो किसी और की कहानी में नहीं… मेरी अपनी कहानी में दबी हुई है।
अगर आप भी खुद को ढूंढने की हिम्मत जुटा सकें… तो शायद हम फिर मिलें।
– सुहानी”
आरव के चेहरे पर उदासी साफ़ झलक रही थी… लेकिन उसकी आंखों में एक तूफान उठ चुका है। उसकी आँखों के सामने सुहानी कि वो सारी यादें साफ़ झलकने लगी…. सुहानी का हल्का-सा मुस्कुराना, उसके सिर पर पट्टी बाँधना, आरव का उसकी किताबें संभालना, रात को किचन में बिना बोले चुपचाप साथ खाना बनाना…फिर अचानक — मीरा का गले लगना, और सुहानी के टूटते नज़रों का दृश्य।
वहीं दूसरी तरफ, सुहानी अकेले एक बस में बैठी, किसी अनजानी जगह के लिए रवाना हो रही है — उसकी आंखें खिड़की से बाहर टिकी हैं, पर मन अतीत में उलझा है।
आरव घर में तूफान सा खोजता फिर रहा है — सवाल कर रहा है, CCTV फुटेज देख रहा है, राठौर हवेली के गार्ड्स से पूछताछ कर रहा है।
"क्या सच में मैंने उसे खो दिया? या अभी भी वक़्त है कुछ कह पाने का?" आरव खुद से पूछता है।
एक दिन, सुहानी चुपचाप रसोई के पास से गुजर रही थी। तभी एक बुज़ुर्ग नौकरानी, सावित्री, जल्दी से उसके पास आती है और धीरे से उसका हाथ पकड़ती है।
सावित्री धीमे स्वर में उससे कहती है, “बिटिया… ये आपके लिए है।”
वह एक छोटी सी fold की हुई चिट्ठी उसकी हथेली में रखती है।
सुहानी चौंकते हुए पूछती है, “ये क्या है? किसने दिया है?”
सावित्री इधर-उधर देखकर फुसफुसाते हुए कहती है, “मैं उनका नाम यहाँ नहीं ले सकती… पर उन्होंने कहा है कि आप समझ जाएंगी। बोले कि ये बहुत ज़रूरी है… किसी को दिखाना मत।” सावित्री इतना कहकर तेज़ी से वहां से चली जाती है।
सुहानी जल्दी से इधर-उधर देखती है, फिर किसी को आस पास न देख झट से चिट्ठी खोलती है।
“हमें मिलना होगा। तुम्हारी मां का सच अब और दफन नहीं रह सकता। कल सुबह मंदिर में मिलो, अकेले।”
— रणवीर
सुहानी ने तुरंत चिट्ठी मोड़कर अपने कुर्ते के अंदर छुपा ली, फिर सीढ़ियों की ओर तेज़ी से चल पड़ी, ताकि कोई देख न ले। उसके चेहरे पर भावनाओं का एक मिश्रण दिखता है — डर, उम्मीद, और जिज्ञासा।
मंदिर की सीढ़ियाँ – सुबह का वक़्त
हलकी-हलकी सूरज की किरणें मंदिर की सफेद दीवारों को छू रही थी। चारों ओर शांति, केवल मंदिर की घंटियों की मधुर आवाज़ सुनाई दे रही थी।
सुहानी एक सादी सी सूती साड़ी में, घूंघट में चेहरा छुपाए धीरे-धीरे मंदिर की सीढ़ियाँ चढ़ती है। उसके दिल की धड़कनें तेज़ हैं, हाथ में वो छोटा-सा नोट कसकर पकड़ा हुआ है — “हमें मिलना होगा… तुम्हारी माँ की सच्चाई अब छुपी नहीं रहनी चाहिए। कल सुबह मंदिर में मिलो। अकेले! – रणवीर ”
वो चारों ओर देखकर सुनिश्चित करती है कि कोई उसका पीछा तो नहीं कर रहा। मंदिर के पीछे की गली में एक साया खड़ा था — लंबा, सादा कुर्ता-पजामा पहने रणवीर राठौर। उसकी आँखों में चिंता के साथ सच्चाई कहने का संकल्प दिख रहा था।
सुहानी पीछे से आई, दोनों कुछ पल तक बिना बोले एक-दूसरे को देखते रहे।
रणवीर धीमी आवाज़ में कहता है, “देर हो गई, पर तुम आ गई… बिलकुल अपनी माँ की तरह.”
सुहानी कांपती आवाज़ में कहती है, “सच क्या है, रणवीर अंकल? माँ ने क्यों सब कुछ छुपाया? और कौन था मेरी ज़िंदगी के सारे फैसले लेने वाला?”
रणवीर गहरी सांस लेते हुए कहता है, “ये कहानी तुम्हारे जन्म से पहले शुरू हुई थी, सुहानी… काजल ने मोहब्बत की थी, और उस मोहब्बत का सौदा हुआ था… उसी घर के अंदर.”
रणवीर नज़रें झुकाकर आगे कहता है, “मैं तुम्हें सच दिखाने आया हूँ … पूरा सच। तुम्हारी माँ ने जो झेला, और तुम जो झेल रही है… दोनों एक ही खेल का हिस्सा हो, जो राठौर परिवार ने रचा था।”
सुहानी के चेहरे पर आंसू की एक बूंद गिरती है, पर वह खुद को संभाल लेती है।
सुहानी दृढ़ता से कहती है, “तो चलिए, सच को ज़िंदा करते हैं… अब डरने का वक़्त गया, रणवीर अंकल। मुझे मेरी माँ के लिए इंसाफ चाहिए.”
तो क्या है वो सच?
रणवीर, सुहानी को ऐसा क्या बताने वाला है, जिसे सुनकर वो उस जगह लौटने का फैसला लेती है जहां से ये सब शुरू हुआ था?
क्या आरव पता लगा पायेगा - सुहानी कहाँ है?
क्या सुहानी इस बार आरव को माफ़ कर पाएगी?
ये सब जानने के लिए, आगे पढ़ते रहीये, 'रिश्तों का क़र्ज़!'
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